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Afghanistan: दो साल में तालिबानी शासन ने छीन ली महिलाओं की आजादी

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DW

, बुधवार, 16 अगस्त 2023 (09:19 IST)
-शबनम फॉन हाइन
 
Two Years of the Taliban in Afghanistan: अफगानी लोग महसूस करते हैं कि उन्हें अकेले छोड़ दिया गया है। जब से तालिबान ने सत्ता पर कब्जा किया है तब से ऐसी सामाजिक पाबंदियां लगाई गई हैं कि महिलाओं और लड़कियों की आजादी खतरे में पड़ गई है। ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि मैं एक बुरा सपना जी रही हूं। यह कहना मुश्किल है कि पिछले 2 सालों में हमने क्या झेला है। 29 साल की मारूफ ने यह बात डीडब्ल्यू से फोन पर कही।
 
काबुल की रहने वाली मारूफ ने महिलाओं और बच्चों के लिए एक गैरसरकारी संगठन बनाया था लेकिन 15 अगस्त 2021 में तालिबान ने जब काबुल में कदम रखा तो उनकी संस्था बंद कर दी गई। 20 साल तक अफगानिस्तान में रहने के बाद नाटो सेनाओं के बाहर निकलने का वक्त आया तो कट्टरपंथी इस्लामिक गुट तालिबान ने बहुत तेजी के साथ आगे बढ़ते हुए पूरे देश में पांव पसार लिए। यह महज कुछ हफ्तों के अंदर हुआ।
 
तालिबान ने इस वादे के साथ सत्ता पर कब्जा किया था कि इस्लामिक कानून यानी शरिया के दायरे में महिला अधिकारों का सम्मान होगा लेकिन पिछले 2 सालों में तस्वीर इसके उलट रही है। ऐसी तमाम पाबंदियां और बैन लगाए गए हैं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की हिस्सेदारी खत्म कर दी है, जैसे शिक्षण संस्थाओं और दफ्तर जाने की शर्तें।
 
कब्जे से पहले चेतावनी
 
मारूफ कहती हैं, मुझे समझ नहीं आता कि इस बात की उम्मीद कहां से जगी कि तालिबान बदल गए हैं या बेहतर हुए हैं? हमें हमेशा से मालूम था कि उनके शासन में हम वो सब खो देंगे जो हमने हासिल किया है।
 
वह आगे कहती हैं, 'सत्ता पर कब्जे के बीस दिन पहले, काबुल में हम जैसी महिला कार्यकर्ताओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी ताकि लोगों को हालात के बारे में फिर से बताया जा सके। हमने कहा कि आप उन इलाकों की तरफ देखिए जो तालिबान के कब्जे में हैं और कैसे वो महिला अधिकारों से चिढ़ते हैं लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी।'
 
काबुल पर कब्जे पर से पहले ही अफगानिस्तान के कई ग्रामीण इलाकों पर तालिबान जमे हुए थे। इन क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियां घरों में बंद रहती हैं। उनके हिस्से में बेटी, पत्नी और मां की परंपरागत भूमिका है। यह हालात बिलकुल वैसे ही हैं, जैसे 1996 से 2001 के बीच पहले रह चुके हैं। उस वक्त भी अफगानी महिलाओं और लड़कियों को पढ़ने या काम करने की इजाजत नहीं थी। किसी पुरुष के बिना वह घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं। तालिबानी आदेशों को तोड़ने वाली महिलाओं पर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाए जाते थे।
 
अफगानिस्तान के भीतर शांति समझौतों के लिए जिम्मेदार रहे शांति मंत्रालय में उप-मंत्री अलेमा अलेमा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि 1990 के दशक वाले तालिबान और आज में कोई फर्क नहीं है। बस वह पहले से ज्यादा सतर्क और अनुभवी हैं। अलेमा कहती हैं, सत्ता में आने के बाद से उन्होंने 51 बैन लगाए हैं जिनसे महिलाएं प्रभावित हैं। इसका मतलब है हर महीने एक बैन। उन्होंने एक साथ इन सबका ऐलान नहीं किया, क्योंकि वह लोगों को डराना नहीं चाहते थे। अफगानिस्तान में भी उन्हें थोड़ा संभलकर चलना पड़ रहा है जिससे ताकत हासिल करने से पहले वह समाज को अपना दुश्मन न बना लें।
 
नाटो सेनाओं की वापसी
 
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की अगुआई वाली अमेरिकी सरकार ने 2018 में तालिबान के साथ सीधे बातचीत शुरू की। अब जर्मनी में रहने वाली अलेमा को लगता है कि अगर ट्रंप प्रशासन ने राष्ट्रपति गनी और स्थानीय विशेषज्ञों को बातचीत में शामिल किया होता शायद नतीजा दूसरा होता। अमेरिका और उसके साथी तालिबान के साथ कतर की राजधानी दोहा में बातचीत करना चाहते थे। इसका लक्ष्य था कि अफगानिस्तान से सेनाओं की शांति से वापसी हो सके जहां तालिबान ने लड़ाई शुरू कर दी थी।
 
इस लड़ाई में हजारो अफगानी लोग और सैनिक मारे गए। हालांकि बातचीत का नतीजा यह हुआ कि 29 फरवरी 2020 को सेनाओं की वापसी का वक्त तय करने में सफलता मिली। अलेमा कहती हैं, फरवरी 2020 के समझौते में अफगानिस्तान के भीतर ही शांति वार्ता की बात कही गई जिसमें तालिबान सरकार से सीधे सौदेबाजी करे। हालांकि तालिबान ने हमसे बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
 
समझौते ने तोड़ा अफगान हौसला
 
तालिबान के साथ अमेरिका की सीधी बातचीत ने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में मदद की। अपने दोहा दफ्तर में उन्होंने वह समझौता किया जिससे अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद थी लेकिन उसी डील ने अफगान सेना का हौसला तोड़ा। तालिबान के बढ़ते कदमों को रोकने की जद्दोजहद थम गई।
 
अफगानिस्तानी पत्रकार और अरियाना रेडियो एंड टेलीविजन के पूर्व प्रबंध निदेशक खुशाल आसेफी कहते हैं, 'अगस्त 2021 में अफगानिस्तान में जो हुआ वह तालिबान की सैन्य जीत नहीं थी बल्कि एक राजनैतिक फैसला था। तालिबान के साथ पर्दे के पीछे क्या समझौता हुआ, यह किसी को नहीं पता। ऐसा लगा कि पश्चिमी देशों ने सरकार से समर्थन खींच लिया था।'
 
आसेफी को भी देश छोड़ना पड़ा, क्योंकि उन्हें कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था और जान का खतरा भी था। वह कहते हैं, 'पिछले 2 साल का घटनाक्रम इस अहसास को गहरा कर देता है कि देश को तालिबान के हाथों में छोड़ दिया गया है। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश में किस तरह की तहस-नहस मचाए हुए हैं। अब तालिबानी नीतियों की निंदा करने से ज्यादा कुछ नहीं होता। अर्थव्यवस्था तबाह है और 20 लाख से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। लोग सिर्फ जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।'


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