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जब श्रीकृष्ण को खतरे का आभास हुआ तो उन्होंने किए दो बड़े कार्य, जानिए रहस्य...

हमें फॉलो करें जब श्रीकृष्ण को खतरे का आभास हुआ तो उन्होंने किए दो बड़े कार्य, जानिए रहस्य...

अनिरुद्ध जोशी

वैसे तो महाभारत में ऐसे कई मौके आए जबकि श्रीकृष्ण की जान जा सकती थी, लेकिन उन्होंने बहुत ही चतुराई और शक्ति से खुद को बचाए रखा। एक बार वे कालयवन के चंगुल से बच निकले थे। दूसरी बार जब द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला था, तो श्रीकृष्ण अकेले ही थे और वह भी निहत्थे अपने कट्टर दुश्मन जरासंध के पास उन्हें समझाने पहुंच गए थे। इसी तरह एक बार जब उन्हें हस्तिनापुर पांडवों का शांति प्रस्ताव लेकर अकेले ही जाना था तब उन्होंने दो कार्य किए थे। जानिए वे कार्य क्या थे?
 
 
पहला कार्य :
कौरव और पांडवों के बीच युद्ध को रोकने के अंतिम प्रयास के तौर पर भगवान श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर जाने का निर्णय लिया लेकिन वहां शकुनि और दुर्योधन अपनी कुटिल नीति के तहत श्रीकृष्ण को मारना चाहते थे ताकि पांडवों का सबसे मजबूत पक्ष समाप्त हो जाए।
 
 
ऐसे में श्रीकृष्ण यह जानते थे कि हस्तिनापुर में मैं यदि कहीं सुरक्षित रह सकता हूं तो वह है विदुर का घर। विदुर की पत्नी एक यदुवंशी थी। दूसरी बात यह कि विदुर का दुर्योधन और शकुनि ने कई बार अपमान किया था, तो विदुर भी कहीं-न-कहीं दुर्योधन से चिढ़ते थे। दुर्योधन ने जब विदुर का अपमान किया था तो उन्होंने भरी सभा में ही यह निर्णय ले लिया था कि यदि वो उस पर विश्‍वास ही नहीं करता तो वे भी युद्ध नहीं लड़ना चाहते। ऐसा कहकर विदुर में युद्ध नहीं लड़ने का संकल्प ले लिया था।
 
 
जब श्रीकृष्ण रात को विदुर के यहां रुके तो विदुर ने श्रीकृष्ण को समझाया था कि आप यहां क्यों आ गए? वह दुष्ट दुर्योधन किसी की नहीं सुन रहा है। वह आपका भी अपमान जरूर करेगा। श्रीकृष्ण जानते थे कि दुर्योधन भरी सभा में मेरा भी अपमान कर सकता है और उसके बाद परिस्थितियां बदल जाएंगी। ऐसे में हस्तिनापुर में उन्होंने विदुर के यहां रहने का फैसला किया, क्योंकि विदुर के पास एक ऐसा हथियार था, जो अर्जुन के 'गांडीव' से भी कई गुना शक्तिशाली था। विदुर के सहयोग से ही श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर और राजमहल में ससम्मान प्रवेश किया।
 
 
दूसरा कार्य : 
भगवान कृष्ण सात्यकि की योग्यता और निष्ठा पर बहुत विश्वास करते थे। जब वे पांडवों के शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर गए, तो अपने साथ केवल सात्यकि को ले गए। कौरवों के सभाकक्ष में प्रवेश करने से पहले उन्होंने सात्यकि से कहा कि वैसे तो मैं अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हूं, लेकिन यदि कोई बात हो जाए और मैं मारा जाऊं या बंदी भी बना लिया जाऊं, तो फिर हमारी सेना दुर्योधन की सहायता के वचन से मुक्त हो जाएगी और ऐसी स्थिति में तुम उसके (नारायणी सेना के) सेनापति रहोगे और उसका कोई भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र रहोगे। सात्यकि समझ गया कि कृष्ण क्या कहना चाहते हैं इसलिए वह पूर्ण सावधान होकर सभाकक्ष के दरवाजे के बाहर ही डट गया।
 
 
सात्यकि पर विश्वास के कारण ही दुर्योधन के व्यवहार को देखकर सभाकक्ष में कृष्ण ने कौरवों को धमकाया था कि दूत के रूप में आए हुए मेरे साथ यहां कोई अनिष्ट करने से पहले आपको यह सोच लेना चाहिए कि जब हमारी यादव सेना के पास यह समाचार पहुंचेगा, तो वह हस्तिनापुर की सड़कों पर क्या गजब ढाएगी। यह सुनते ही सारे कौरव कांप गए और शकुनि सहित उन्होंने दुर्योधन को कोई मूर्खता करने से रोक दिया। तब श्रीकृष्‍ण ने शांति प्रस्ताव के तहत कौरवों से पांडवों के लिए 5 गांव मांगे थे, लेकिन दुर्योधन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
 
 
संदर्भ : महाभारत उद्योग पर्व
 

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