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बच्चों और महिलाओं के साथ यौनदुराचार के आरोपों से घिरते कैथलिक चर्च

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राम यादव

, गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023 (22:13 IST)
दुनियाभर में ईसाइयों का कैथलिक चर्च काफी समय से बड़े धर्मसंट में है। कैथलिक पादरी और धर्माधिकारी, भक्तजनों को नित्यप्रति दयालु और चरित्रवान बनने के उपदेश देते हैं। लेकिन, उनके उपदेश कई बार 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे, अपनी गिरेबां कोई न देखे' वाली कहावत ही चरितार्थ करते लगते हैं।
 
इक्के-दुक्के देशों में ही नहीं, दुनिया भर के अनेक देशों में ईसाइयों के कैथलिक संप्रदाय के पादरी और उनसे ऊपर के बिशप एवं कार्डिनल जैसे वरिष्ठ धर्माधिकारी, बच्चों और महिलाओं के साथ यौनदुराचार के बढ़ते हुए आरोपों का सामना कर रहे हैं। आरोप या तो स्वयं उनके ही विरुद्ध होते हैं या इसलिए कि वे चर्च के परिसरों में होने वाले यौनशोषण के मामलों को दबाने-छिपाने और दोषियों को बचाने की जुगाड़ में रहते हैं। यहां तक कि वर्तमान पोप फ्रांसिस और उनके पूर्वगामी, पोप बेनेडिक्ट 16वें तक पर संदेह है कि इस या उस मामले की जांच में उन्होंने सक्रियता या पूरी निष्पक्षता का परिचय नहीं दिया। यौनदुराचार के मामले इतने बढ़ते गए हैं कि लोग चर्च छोड़ कर भागने लगे हैं।  
 
जर्मन चर्च से भाग रहे हैं : सवा आठ करोड़ की जनसंख्या वाला जर्मनी, यूरोप में इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। 1950 में 97 प्रतिशत जर्मन जनता कैथलिक या प्रॉटेस्टंट चर्च की सदस्य हुआ करती थी। 2022 में यह अनुपात केवल 45.8 प्रतिशत रह गया। अकेले 2022 में 5 लाख जर्मनों ने कैथलिक चर्च की और 3,80,000 ने प्रॉटेस्टंट चर्च की सदस्यता त्याग दी। यौन दुराचार चर्च से नाता तोड़ने का सबसे बड़ा करण बन गए हैं। दोनों संप्रदायों के चर्चों को 2022 में कुल मिलाकर 13 अरब यूरो की सदस्यता आय से हाथ धोना पड़ा। जर्मनी में हर चर्च के सदस्यों को अपने आयकर के 6 से 8 प्रतिशत के बराबर मासिक फ़ीस देनी पड़ती है।   
 
विशेषकर कैथलिक चर्च इतना रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और भारी-भरकम है कि दुनिया भर में लुभावने व्यापक धर्मप्रचार व प्रसार के बावजूद लोग उससे दूर जा रहे हैं। सभी देशों के कैथलिक धर्माधिकारियों को वैटिकन में बैठे पोप के इशारों-विचारों के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। इसीलिए हर पोप, समय-समय पर वैटिकन में एक ऐसी वैश्विक धर्मसभा का आयोजन करता है, जिसे 'सिनॉड' कहा जाता है। हर ऐसी धर्मसभा में, कैथलिक चर्च की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रश्नों पर सोच-विचार होता है और धर्मप्रचार-प्रसार की नई रणनितियां रची जाती हैं।
 
वैटिकन में धर्मसभा : पोप फ्रांसिस के निमंत्रण पर 4 अक्टूबर से इस समय एक ऐसी ही धर्मसभा वैटिकन में चल रही है, जो 29 अक्टूबर तक चलेगी। विश्व के सभी कोनों से कुल करीब 375 लोग आमंत्रित किए गए हैं, जिनमें लगभग 275 बिशप, 50 से अधिक पादरी और लगभग 45 आम महिला और पुरुष चर्च कर्मी हैं। आमंत्रित बिशपों-कार्डिनलों के अलावा क़रीब 100 ऐसे लोग हैं, जिन में आधे से अधिक महिलाएं हैं। 8 "अतिथि/पर्यवेक्षक" और लगभग 75 पुरुष और महिलाएं हैं, जो धार्मिक सलाहकारों या धर्मसभा के कर्मचारियों के तौर पर "विशेषज्ञों" के रूप में सभा के "प्रतिभागी" हैं।
 
वर्तमान पोप फ्रांसिस का चयन कैथलिक चर्च के कार्डिनलों ने वैटिकन में गुप्त मतदान द्वारा मार्च 2013 में किया था। पोप बनने से पहले वे लैटिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना में कार्डिनल थे। उनका असली नाम ख़ोर्खे मारियो बेर्गोलियो (Jorge Mario Bergoglio) है। अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में उनकी कार्यशैली काफ़ी अलग है। उन्होंने वैटिकन के प्रशासनिक तंत्र को, जिसे 'कुरी' कहते हैं, पुनर्गठित किया।

'कुरी' पोप के कार्यालय के संचालन में हाथ बंटाने वाले प्राधिकरणों और संस्थानों की समग्रता है, किंतु पोप के सैद्धांतिक दिशा-निर्देशों से कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। पोप बनने पर आरंभ में उन्होंने कुछ ऐसे संकेत दिये, मानो वे पुरानी रूढ़ियों को तोड़ कर कैथलिक चर्च में कुछ ऐसे क्रांतिकारी परिवर्तन लाएंगे, जिन की भक्तजन लंबे समय से मांग कर रहे हैं।
 
अनसुनी मागें : गिरिजाघरों के पादरियों (पुजारियों) के लिए अविवाहित ब्रह्मचारी होने की अनिवार्यता को समाप्त करना, नारी समानता और महिलाओं को भी गिर्जाघरों में पूजा-पाठ वाला काम करने की अनुमति देना ऐसी ही कुछ मांगें हैं, जो आज तक अनसुनी हैं। चर्च के धार्मिक अनुष्ठानों में महिलाओं की साझेदारी का भी कैथलिक चर्च सरासर विरोधी है। समलैंगिक विवाहों या यौन-संबंधों के मामले में तो कैथलिक चर्च पूर्णतः रूढ़िवादी है।
 
वास्तव में यह सब किसी पोप को मिली उस शक्ति से मुंह मोड़ने के समान है, जो प्रथम वैटिकन काउंसिल ने 1869-70 में दी थी। लगभग 100 साल बाद, द्वितीय वैटिकन काउंसिल ने 1962-65 में कैथलिक चर्च को मानवाधिकारों के पालन, धार्मिक स्वतंत्रता की मान्यता या पूजा-पाठ में स्थानीय भाषा का प्रयोग की अनुमति देकर किसी हद सामयिक बनाया। किंतु वर्तमान पोप अंततः प्रचलित संरचनाओं को ही मजबूत करते दिखे हैं। 
 
पोप फ्रांसिस की अलग शैली : 87 वर्षीय पोप फ्रांसिस की सलाह सुनने और निर्णय लेने की अपनी एक अलग शैली है। इस धर्मसभा में पहली बार आम लोग भी हैं और उन्हें वोट देने का अधिकार भी है, यद्यपि बिशपों की तुलना में आम लोग बहुत कम संख्या में हैं। सभी वोटों का सातवां हिस्सा महिलाओं का होगा। इसीलिए इस धर्मसभा को कुछ लोग "सुपर सिनॉड" कहते हैं। 
 
"सिनॉड" का शब्दिक अर्थ है, एक साथ एक राह पर चलना। तात्पर्य है, किसी निर्णय पर पहुंचने की प्रक्रिया में धर्माधिकारी और भक्तगण सहभागी बन कर साथ-साथ चलें। ऐसा इसलिए, क्योंकि कैथलिक चर्च लोकतांत्रिक नहीं है। न तो बिशप आपस में मिल कर अकेले ही कोई बड़ा निर्णय ले सकते हैं और न ही भक्तगण। एक दूसरा बड़ा कारण यह है कि कैथलिक चर्च में ईसा मसीह के प्रति पूर्ण समर्पण और विधिवत पवित्रीकरण-संस्कार के बाद ही कोई व्यक्ति बिशप या उससे ऊपर का धर्माधिकारी बनता है, जबकि सामान्य भक्त ऐसी किसी प्रक्रिया से नहीं गुज़रता। इसलिए दोनों का महत्व एकसमान नहीं हो सकता। तब भी, किसी धर्मसभा में दोनों के बीच पारस्परिक सहमति की अपेक्षा की जाती है।
 
लाक्षणिक मौलिक आदर्श : वैटिकन में बैठा हर पोप और उसके बिशप इत्यादि चाहते हैं कि कैथलिक चर्च के लिए लाक्षणिक कुछ मौलिक आदर्श हमेशा सुरक्षित रहने चाहियें। उदाहरण के लिए, भक्तजनों को मार्गदर्शन देने वाले पदों पर ऐसे कर्मकांडी पवित्रजन हों, जो अटल विश्वास के साथ मानते हों कि ईसा मसीह ने स्वयं उनके चर्च की स्थापना की है। चर्च में प्रभु यीशु की परमपावन आत्मा का वास है। यीशु के उत्तराधिकारी भी पूर्णतः पवित्र लोग रहे हैं। ऐसा चलते रहने पर ही चर्च की पवित्रता भी बनी रहेगी। इन आधारभूत नियमों और आदर्शों के पालन में कोई छूट नहीं दी जा सकती। 
 
कैथलिक चर्च की धर्मसभाएं कुछ निश्चित समयों के अंतर से क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर होती रहती हैं। इस समय 4 अक्टूबर से वैटिकन में जो सभा चल रही है, वह वैश्विक स्तर की सभा है। इस स्तर की सभा में आम तौर पर पूरी दुनिया के कैथलिक बिशप आदि जमा होते हैं। उन्हें भक्तसमाज नहीं चुनता, बल्कि वौटिकन में बैठे पोप स्वयं आमंत्रित करते हैं।
 
सभासद केवल परामर्श दे सकते हैं : सभा में भाग लेने वाले विभिन्न प्रश्नों और विषयों के बारे में केवल परामर्श दे सकते हैं; उनकी बातें और सुझाव मानना या नहीं मानना पोप का विशेषाधिकार है। पोप का पद और मत ही सर्वोच्च है। वैश्विक धर्मसभा में भाग लेने वाले वाले लोग, कैथलिक चर्च के कर्मियों और पुरोहितों के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि माने जा सकते हैं, हालांकि उनकी संख्या पहले से ही तय रहती है। महिला ननें और पुरुष पादरी सबसे निचले स्तर पर होते हैं। शुरू से ही तय रहता है कि पदानुक्रम के अनुसर किस-किस वर्ग के कितने-कितने लोग सभा में भाग ले सकेंगे। वे मतदान कर सकते हैं, पर उनके मतों से पारित किसी प्रस्ताव या सुझाव को मानना पोप के लिए अनिवार्य नहीं होता।   
 
जर्मनी में एक नया आंदोलन : फ़िलहाल तो किसी हद तक दुनिया के सारे कैथलिक अब तक के प्रचलित नियमों और उनकी परिभाषाओं का पालन कर रहे हैं। लेकिन, जर्मनी में कुछ समय से 'धर्मसभा मार्ग' (सिनोडालन वेग) नाम का एक ऐसा आन्दोलन ज़ोर पकड़ने लगा है, जो कैथलिक दुनिया के एकत्विक रंग को भंग कर रहा है। जर्मनी की कैथलिक महिलाएं इस आन्दोलन की जन्मदात्री हैं और वे ही इसका नेतृत्व भी कर रही हैं। वे अकेली नहीं हैं, एक बड़ी संख्या में पुरुष और प्रतिशील विचारों वाले कुछ जर्मन बिशप भी उनके साथ हैं।
 
जर्मनी का "धर्मसभा मार्ग" आंदोलन चाहता है कि वैटिकन-निष्ठ विश्वव्यापी कैथलिक चर्च के कामकाज में महिलाओं की भूमिका बढ़े और महिलाओं को अधिक महत्व मिले। आज के समय के अनुकूल एक नई यौन-नैतिकता (सेक्स मॉरल) संहिता बने। चर्चों के भीतर और उनके परिसरों में यौनदुराचार के अनगिनित कांड़ों को देखते हुए चर्च की सत्ता का नया बंटवारा हो।     
 
राष्ट्रीय बिशप सम्मेलनों को स्वतंत्रता मिले : ये मांगें पिछले दो वर्षों से लगातार हो रही हैं। जर्मन 'धर्मसभा मार्ग' का एक प्रतिनिधि मंडल पोप से मिलने वैटिकन भी गया, पर पोप से मिल नहीं सका। जर्मन बिशप सम्मेलन के सुधार-उन्मुख अध्यक्ष, बिशप गेऑर्ग बेत्सिंग भी चाहते हैं कि विश्व धर्मसभा राष्ट्रीय बिशप सम्मेलनों को और अधिक स्वतंत्रता प्रदान करे। इसे ठुकराते हुए वैटिकन ने 21, जुलाई, 2022 को प्रकाशित एक वक्तव्य में कहा : "जर्मनी के धर्मसभा मार्ग के पास यह अधिकार नहीं है कि वह बिशपों और (कैथलिक) धर्मावलंबियों को नेतृत्व के नए स्वरूप अपनाने तथा धर्मशिक्षा और नैतिकता की नई दिशा की ओर चलने के लिए प्रतिबद्ध करे।" यानी, वैटिकन अब भी पुरातनपंथी बना रहना चाहता है।
 
पिछले 2 वर्षों से, कैथलिक धर्मसभा के विषयों पर दुनिया भर में चर्चा हुई है-- पहले राष्ट्रीय स्तर पर और फिर महाद्वीपीय स्तर पर भी। सुधार-उन्मुख जर्मन चर्च अकेला नहीं है। इसी तरह के बयान कई यूरोपीय देशों, लैटिन अमेरिका और यहां तक कि एशिया के कुछ हिस्सों से भी आते हैं। अफ्रीका में कैथलिक चर्च अधिक रूढ़िवादी है, जबकि अमेरिका में लगभग विभाजित हो गया दिखता है।
 
पोप का बढ़ता विरोध : कई दूसरे देशों के बिशप भी वर्तमान पोप के खिलाफ खुले तौर पर कार्य करने लगे हैं। पिछले कुछ सप्ताहों में ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और डोमिनिकन गणराज्य जैसे देशों में अलग-अलग बिशपों ने चर्च के पुरोहितों के लिए ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता को समाप्त कर देने का आह्वान किया है। इसके पीछे सोच यही है कि यदि वे वैवाहिक जीवन बिता सकेंगे, तो कामवासना से अंधे हो कर यौनदुराचार के रास्ते पर नहीं भटकेंगे।
 
इन दिनों 26 देशों के ऐसे पूर्व या सक्रिय कैथलिक भी रोम में हैं, जो किशोरावस्था में चर्च के पुरोहितों द्वारा यौन शोषण के शिकार बने थे। वे अपनी भयावह आपबीतियां सुना रहे हैं और उन फाइलों तक पहुंच प्रदान करने की मांग कर रहे हैं, जिनमें उनके साथ हुए अपराधों और उन्हें करने वाले अपराधियों के विवरण दर्ज हैं। इसमें संदेह ही है कि उनकी मांग सुनी जाएगी।


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