जमीयत उलमा-ए-हिंद का राजधानी दिल्ली सम्मेलन निसंदेह लंबे समय तक चर्चा में रहेगा। मौलाना अरशद मदनी के अस्वीकार्य और आपत्तिजनक वक्तव्य का जैन मुनि लोकेश मुनि ने मंच पर प्रतिवाद किया, लेकिन उनके गिरेबान में हाथ डालने की कोशिश हुई और स्थिति ऐसी हो गई कि अगर पुलिस हस्तक्षेप नहीं करती तो उन पर हमला हो ही गया था।
उनके साथ सद्भावना के तहत आए अनेक कई साधु संत और दूसरे धर्म के प्रतिनिधि मंच छोड़कर चले गए। वास्तव में जिस तरह की तकरीरें पहले संगठन के प्रमुख मौलाना महमूद मदनी तथा बाद में उनके चाचा मौलाना अरशद मदनी ने की उस पर मौन रहना उन्हें स्वीकार करने का पर्याय माना जाता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति, संगठन, समूह को अपनी बात खुल कर रखने का पूरा अधिकार है। किंतु उसमें दूसरे की भावनाओं के साथ मान्य तथ्यों और तर्कों का समावेश अवश्य होना चाहिए।
कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कह सकता है कि जमीयत उलेमा ए हिंद का सम्मेलन इस परिधि को अत्यंत बुरी तरह लांघने का आयोजन बन गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके प्रमुख डॉक्टर मोहन भागवत आदि पर विरोधी टिप्पणियां करना अस्वाभाविक नहीं है। हालांकि इस तरह के संगठनों को, जो स्वयं को प्रत्यक्ष राजनीति से अलग घोषित करते है, ऐसे मामलों में भी शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। जिस तरह की शब्दावली या वहां प्रयोग की गई उनसे लगा ही नहीं कि संगठन का मर्यादा के पालन से कोई सरोकार भी है। खुले अधिवेशन में उस तरह का भाषण आना हर दृष्टि से चिंताजनक है।
क्या जमीयत के प्रमुख महमूद मदनी और अन्य लोगों ने इस पर विचार नहीं किया कि इस तरह के भाषणों का आम मुसलमानों के बीच क्या संदेश जाएगा? ये यहीं तक सीमित नहीं रहे। मौलाना महमूद मदनी और अरशद मदनी दोनों ने हिंदू सनातन धर्म सहित सारे धर्मों के ऊपर इस्लाम को बिठा दिया। महमूद मदनी ने कहा कि खुदा का पहला पैगाम भारत की धरती पर आया। यही सबसे पहले नबी और प्रथम मानव सैयदना आदम अवतरित हुए। यह धरती इस्लाम का जन्म स्थान और मुसलमानों की पहली मातृभूमि है। इसलिए यह कहना कि इस्लाम बाहर से आया हुआ धर्म है पूरी तरह से गलत और ऐतिहासिक रूप से निराधार है। अरशद मदनी ने तो यहां तक कहा कि मनु ही हमारे आदम थे जिन्होंने पहली इबादत इस्लाम के अनुसार किया। उन्होंने कहा कि मनु यानी आदम, ओम यानी अल्लाह को पूजते थे।
उन्होंने अपमानजनक लहजे में यह भी कह दिया कि तुम्हारे दादा, परदादा, लकड़दादा…. सारे मुसलमान थे। ऐसी अनर्गल और तथ्यहीन बातें उस तरह के तेवर में कहने का निहितार्थ क्या हो सकता है? निश्चित रूप से भारत में शांति और सद्भाव की कामना करने वाला हर व्यक्ति यह प्रश्न पूछ रहा होगा।
जमीयत जैसे संगठन से जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार की उम्मीद है। इसने आजादी के पहले पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था। पर आज इस संगठन पर मदनी परिवार और उनके रिश्तेदारों का कब्जा है। प्रदेश संगठनों के प्रमुख पदों पर भी वही लोग हैं जो भाजपा, आरएसएस आदि के उग्र विरोध एवं कट्टर मजहबी सोच के लिए जाने जाते हैं। अधिवेशन के मंच पर असम के सांसद बदरुद्दीन अजमल से लेकर ममता सरकार में मंत्री सिद्दीकुल्लाह चौधरी तथा हाल ही में आतंकवाद के पोषण के आरोप में एनआईए छापामारी की जद में आए कश्मीर के मौलाना रहमतुल्लाह जैसे अनेक राजनीतिक चेहरे थे जिनका विचार और व्यवहार सब जानते हैं। ध्यान रखिए, तीनों अपने प्रदेश के जमीयत के अध्यक्ष हैं। इनके मोदी भाजपा और संघ विरोधी होने से किसी को समस्या नहीं होनी चाहिए। किंतु उसके नाम पर जिस ढंग से अपने-अपने राज्यों में राजनीति करते हैं बातें करते हैं वाह सामान्य लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार नहीं हो सकता।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। महमूद मदनी और अरशद मदनी पिछले काफी समय से सांप्रदायिक सौहार्द्र और सद्भाव की बात करते हुए ऐसी तकरीरें देते रहे हैं, जिनसे शांति और सद्भाव बिगड़ने का भय पैदा होता है। पिछले वर्ष महमूद मदनी ने देवबंद में आयोजित संगठन के कार्यक्रम में कहा कि यह हमारा देश है जिनको मुसलमानों से समस्या हो देश छोड़कर चले जाएं। उसमें उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के तीन तलाक सहित अन्य मामलों को इस्लाम विरोधी बताया। यह कहा कि फैसला देने दो अपने शरीयत को पकड़े रहो।
उन्होंने कह दिया कि शौहर तीन तलाक दे और बीवी मान ले तो न्यायालय उसमें क्या करेगा?ऐसी अनेक बातें उद्धृत की जा सकती है। पहले से यह लोग यह डर पैदा करते रहे हैं कि देश मुसलमानों और इस्लाम के विरुद्ध हो रहा है। किसने मुसलमानों के लिए अलग देश की बात की है? संघ का ऐसा कोई बयान उद्धृत कर दें? अगर नहीं तो फिर यह कहने की क्या आवश्यकता है कि देश जितना नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत का है उतना ही महमूद मदनी का है? या फिर जिन्हें मुसलमानों से आपत्ति है वह देश छोड़कर चले जाएं? इसे तो जानबूझकर देश का माहौल खराब करने का आचरण माना जाएगा। शायद महमूद मदनी आम मुसलमानों के बीच यह दिखाना चाहते हैं कि वे राष्ट्रीय स्तर पर मोदी और मोहन भागवत के समानांतर ही हैं।
हालांकि अगर वे तथ्यों के साथ बात करते तो उन्हें ज्यादा गंभीरता से लिया जाता। इनकी ज्यादातर बातें तथ्यों से परे तो है ही यह सोच और इस तरह से सार्वजनिक रूप से बार-बार प्रकट करना कई दृश्यों से चिंताजनक है। सच क्या है? हजरत मोहम्मद साहब का जन्म 570 ईसवी में मक्का में हुआ था और 632 ईस्वी में उनकी मृत्यु हो गई। इतिहास बताता है कि उन्हें 610 ईसवी में मक्का के पास हीरा नाम की गुफा में ज्ञान प्राप्त हुआ था। 24 सितंबर को पैगंबर साहब की मक्का से मदीना की यात्रा इस्लामी दुनिया में मुस्लिम संवत यानी हिजरी संवत के नाम से जानी जाती है। इसके पहले इस्लाम धर्म का कोई इतिहास नहीं है। इस्लाम की कोई मान्य निर्मित संरचना भी उसके पूर्व की नहीं मिलती। भारत में इस्लाम का आगमन उसके बाद हुआ। 712 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के साथ उस समय का विस्तारवादी इस्लाम भारत में आया। पर मदनी चाचा भतीजा की तरह भारी संख्या में दुनिया भर में ऐसे मुसलमान हैं जो इस्लाम को सभी धर्मों से पुराना मानते हैं।
इस तरह की विचारधारा के परिणाम भयानक रहे हैं। इसी सोच से विश्व में क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध हुए। इस्लाम के रक्तरंजित विस्तार को रोकने के लिए ईसाइत के साथ 1095 से 1291 तक यानी 200 वर्षों तक भयंकर मारकाट मची। इसमें सीरिया से ईसाइयों को बाहर करने से लेकर स्पेन की पाक जमीं और बाल्टिक आदि पर इस्लाम की विजय का इतिहास अत्यंत डरावना है। इजरायल और फिलिस्तीन के संघर्ष को आज भी उसी क्रूसेड का विस्तार कहा जाता है। दुनिया भर में आतंकवादी इस्लामी श्रेष्ठता के इसी भाव को लेकर हिंसा व रक्तपात कर रहे हैं और अनेक देश बर्बाद हो चुके हैं। हमारे यहां धर्म का अर्थ कर्तव्य से है। धर्म यहां उपासना पद्धति, कर्मकांड या पुस्तक तक सीमित नहीं है। हिंदू धर्म को जानने वाले इस्लाम और ईसाइयत के संदर्भ में धर्म की जगह रिलीजन या मजहब का प्रयोग करते हैं। हिंदू धर्म में दूसरे धर्म को हीन मानने के लिए एक शब्द नहीं। हिंदू धर्म का मूल स्वर है `एकं सद् विप्राः बहुधा वदंति`।
यानी सभी धर्मों में एक ही भाव की सोच। अरशद मदनी ने डॉक्टर मोहन भागवत को जाहिल कहा। ऐसी भाषा संघ के पदाधिकारियों ने किसी के लिए भी प्रयोग नहीं की। जमीयत, मौलाना मदनी चाचा भतीजे और अन्य नेताओं की सोच और वक्तव्य हर दृष्टि से अस्वीकार्य है। इस प्रकार की भाषा हमने आजादी के पूर्व 1936 से 47 तक सुनी है। जाहिर है, इसका मान्य सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रतिकार होना चाहिए। मुसलमानों के अंदर से भी विरोध आवश्यक है। जमात उलेमा ए हिंद सहित भारत के अनेक मुसलमान और समूह इनका विरोध कर रहे हैं।
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