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जिहादी लड़ाकों के गैर इस्लामी कारनामे

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दुनिया के कई देश इस समय आतंकवाद से पीड़ित हैं। यह भी सच है कि इनमें ज्यादातर इस्लाम के नाम पर फैलाया जाने वाला आतंकवाद है। मगर इन स्वयंभू इस्लामी लड़ाकों के जेहन में किस कदर सच्चा इस्लाम बसता है और ये इस्लामी शिक्षाओं पर कितना अमल करते हैं, वह इनकी करतूतों को देख-सुनकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हत्या, बलात्कार, नशाखोरी, नशे का व्यापार, चोरी, झूठ, निंदा आदि को गैर इस्लामी बताया गया है, मगर इराक और सीरिया में आईएस या फिर अन्य इस्लामी आतंकियों के बारे में जानें तो पता लगता है कि वे वही सब करते हैं जिसे गैर इस्लामी माना गया है।


पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित मीडिया ग्रुप के एक खोजी पत्रकार द्वारा जेहाद के नाम पर अपना सब कुछ कुर्बान कर देने का जज्बा रखने वाले एक आतंकवादी से गुप्त रूप से मुलाकात कर उसका साक्षात्कार किया गया। अमजद बट्ट नामक इस 30 वर्षीय पंजाबी युवक के कंधे पर जहां एके-47 लटकी हुई थी वहीं उसकी कमर में एक रिवॉल्वर भी लगी नजर आ रही थी।

इस्लाम के नाम पर कत्लेआम : उसने अपना परिचय देते हुए यह बताया कि पहले तो वह स्वयं अफीम, स्मैक, हेरोइन जैसे तमाम नशे का आदी था और बाद में वह इसी कारोबार में शामिल हो गया। उसने बताया कि नशीले कारोबार में शामिल होने के बाद आम लोग उसे गुंडा कहने लगे। बट्ट ने यह भी स्वीकार किया उसे न तो नमाज अदा करनी आती है, न ही कुरान शरीफ पढ़ना और इसके अतिरिक्त भी किसी अन्य इस्लामी शिक्षा का उसे कोई ज्ञान नहीं है। परंतु इसके बावजूद अमजद बट्ट का हौसला इतना बुलंद है कि वह इस्लाम के नाम पर किसी की जान लेने या अपनी जान देने में कोई परेशानी महसूस नहीं करता।

पाकिस्तान का पंजाब प्रांत, पाक अधिकृत कश्मीर तथा पाक-अफगान सीमांत क्षेत्र एवं फाटा का इलाका ऐसे लड़ाकों से भरा पड़ा है, जो इस्लामी शिक्षाओं को जानें या न जानें, उन पर अमल करें या न करें परंतु इस्लाम के नाम पर मरना और मारना उन्हें बखूबी आता है। आतंकी अमजद बट्ट के अनुसार जब उसने नशीले कारोबार के रास्ते पर चलते हुए अपने आपको जुर्म की काली दुनिया में धकेल दिया तो उसके बाद उसके संबंध जेहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले आतंकी संगठनों से भी बन गए।

यहां एक बार फिर यह बात काबिले जिक्र है कि जेहादी आतंकवाद की जड़ें वहीं हैं जिनका जिक्र बार-बार होता आ रहा है और इतिहास में यह घटना एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो चुकी है। अर्थात सोवियत संघ की घुसपैठ के विरुद्ध जब अफगानी लड़ाकुओं ने स्वयं को तैयार किया उस समय इन लड़ाकों ने जिन्हें तालिबानी लड़ाकों के नाम से जाना गया, सोवियत संघ के विरुद्ध खुदा की राह में जेहाद घोषित किया।

इस कथित जेहादी युद्ध में जहां अशिक्षित अफगानी मुसलमान सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट हुए वहीं इसी दौरान अमेरिका ने भी सोवियत संघ के विरुद्ध तालिबानों को न केवल सशस्त्र सहायता दी तथा अफगानिस्तान में इन लड़ाकुओं के प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने में भी उनकी पूरी मदद की बल्कि उन्हें नैतिक समर्थन देकर उनकी हौसला अफजाई भी की। इनमें से कई ट्रेनिंग कैंप ध्वस्त तो जरूर हो चुके हैं, परंतु इनमें प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके तमाम आतंकी अभी भी मानवता के लिए सिरदर्द बने घूम रहे हैं।

अमजद बट्ट ने भी एक ऐसे ही प्रशिक्षण केंद्र से जेहादी पाठ पढ़ा तथा हथियार चलाने की ट्रेनिंग ली। उसके अनुसार जब वह प्रशिक्षण प्राप्त कर हथियार लेकर अपने गांव लौटा तो कल तक अपराधी व गुंडा नजर आने वाला व्यक्ति अब उसके परिवार, खानदान तथा गांव वालों को खुदा की राह में मर मिटने का हौसला रखने वाला एक समर्पित जेहादी मुसलमान नजर आने लगा। उसे देखकर तथा उससे प्रेरित होकर उसी के अपने खानदान के 50 से अधिक युवक एक ही बार में जेहादी मिशन में इसलिए शरीक हो गए कि कहीं अमजद बट्ट अल्लाह की राह में जेहाद करने वालों में आगे न निकल जाए।

आगे चलकर यही लड़ाके किसी न किसी आतंकी संगठन जैसे लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत-उल-अंसार अथवा लश्कर-ए-झांगवी से रिश्ता स्थापित कर उनके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों पर काम करने लग जाते हैं। इन सभी संगठनों का गठन भले ही अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर किया गया रहा हो, परंतु ये सभी सामूहिक रूप से मानवता को नुकसान पहूंचाने वाले गैर इस्लामी काम अंजाम देने में लगे रहते हैं।

उदाहरण के तौर पर लश्कर-ए-झांगवी का गठन पाकिस्तान में सर्वप्रथम शिया विरोधी आतंकवादी कार्रवाइयां अंजाम देने हेतु किया गया था। इस संगठन पर शिया समुदाय को निशाना बनाकर सैकड़ों आतंकी हमले किए गए। उसमें दर्जनों हमले ऐसे भी शामिल हैं, जो इनके द्वारा मस्जिद में नमाज पढ़ते हुए मुसलमानों या इमामबाड़ों व मोहर्रम के जुलूस आदि का निशाना बनाकर हमले किए गए। अब यही संगठन अपने आपको इतना सुदृढ़ आतंकी संगठन समझने लगा है कि इसने पाकिस्तान में अपने हितों को नुकसान पहुचाने वालों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है। इसके सदस्य पाकिस्तान में सेना विरोधी आतंकी कार्रवाइयों में भी पकड़े जा चुके हैं।

इसी प्रकार लश्कर-ए-तैयबा जिसका गठन कश्मीर को स्वतंत्रता दिलाने के उद्देश्य से किया गया था, इसने भी अपने निर्धारित लक्ष्य से अलग काम करना शुरू कर दिया। इस संगठन पर भी जहां भारत में तमाम निहत्थे बेगुनाहों की हत्याएं करवाने का आरोप है, वहीं इस संगठन पर पाकिस्तानी सेना के एक सेवानिवृत्त जनरल की हत्या का भी आरोप है।

मानवता के विरुद्ध संगठित रूप से अपराधों को अंजाम देने वाले ऐसे संगठन ज्यादातर अपने साथ गरीब व निचले तबके के अशिक्षित युवाओं को यह कहकर जोड़ पाने में सफल हो जाते हैं कि यहां उन्हें दुनिया की सारी चीजें तो मिलेंगी ही साथ ही उनके लिए अल्लाह जन्नत के रास्ते भी खोल देगा। और इसी लालच में एक अनपढ़, बेरोजगार और मोटी अक्ल रखने वाला मुसलमान नवयुवक अपने आपको जेहादी आतंक फैलाने वाले संगठनों से जोड़ देता है। इस समय पाकिस्तान में अधिकांश आतंकी संगठन जो भले ही अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर गठित किए गए थे, परंतु अब लगभग ये सभी आतंकी ग्रुप अमेरिका, भारत तथा इनके हितों को निशाना बनाने के लिए अपनी कमर कस चुके हैं।

पाकिस्तान की ही तरह अफगानिस्तान में भी इस्लामी जेहाद का परचम जिन तथाकथित इस्लामी जेहादियों के हाथों में है, उनकी भी वास्तविक इस्लामी हकीकत इस्लामी शिक्षाओं से कोसों दूर है। तालिबानी मुहिम के नाम से प्रसिद्ध इस विचारधारा में संलिप्त लड़ाकुओं की आय का साधन अफगानिस्तान में होने वाली अफीम की खेती है। यह भी दुनिया का सबसे खतरनाक नशीला व्यापार है।

एक अनुमान के अनुसार विश्व के कुल अफीम उत्पादन का 93 प्रतिशत अफीम उत्पादन केवल अफगानिस्तान में होता है। यहां लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इसकी घनी पैदावार होती है। सन् 2007 के आंकड़े बताते हैं कि उस वर्ष वहां 64 बिलियन डॉलर की आय अफीम के धंधे से हुई थी। इस बड़ी रकम को जहां लगभग 2 लाख अफीम उत्पादक परिवारों में बांटा गया वहीं इसे तालिबानों के जिला प्रमुखों, घुसपैठिए लड़ाकों, जेहादी युद्ध सेनापतियों तथा नशाले धंधे के कारोबार में जुटे सरगनाओं के बीच भी बांटा गया। उस समय अफीम का उत्पादन लगभग 8,200 मीट्रिक टन हुआ था। यह उत्पादन पूरे विश्व की अफीम की अनुमानित खपत का दोगुना था।

ड्रग कारोबार का यह उद्योग केवल अफीम तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसी अफीम से विशेष प्रक्रिया के पश्चात 12 प्रतिशत मारफीन प्राप्त होती है तथा हेरोइन जैसे नशीले पदार्थ का भी स्रोत यही अफीम है। तालिबानी लड़ाकों की रोजी-रोटी, हथियारों की खरीद-फरोख्त तथा उनके परिवारों के पालन-पोषण का मुख्य साधन ही अफीम उत्पादन है। एक ओर जहां ईरान जैसे देश में ऐसे कारोबार से जुड़े लोगों को मौत की सजा तक दे दी जाती है वहीं अपने को मुसलमान, इस्लामी, जेहादी आदि कहने वाले ये तालिबानी लड़ाके इसी गैर इस्लामी धंधे की कमाई को ही अपनी आय का मुख्य साधन समझते हैं। यही तालिबानी हैं, जो कि औरतों को सार्वजनिक रूप से मारने-पीटने तथा अपमानित करने जैसा गैर इस्लामी काम प्राय: अंजाम देते रहते हैं। स्कूल तथा शिक्षा के भी ये प्रबल विरोधी हैं। निहत्थों की जान लेना तो गोया इनकी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो चुका है।

ऐसे में क्या यह सवाल उठाना जायज नहीं है कि उपरोक्त सभी गैर इस्लामी कामों को अंजाम देने वालों को यह अधिकार किसने और कैसे दिया कि वे धर्म, इस्लाम और जेहाद जैसे शब्दों को अपने जैसे अधार्मिक प्रवृत्ति वालों के साथ जोड़ सकें। क्या यह इस बात का पुख्ता सबूत नहीं है कि इस्लाम आज गैर मुस्लिमों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं को जेहादी व तालिबानी कहने वाले ऐसे ही आतंकी मुसलमानों के हाथों बदनाम हो रहा है जिन्हें वास्तव में स्वयं को मुसलमान कहलाने का हक ही नहीं है, परंतु इस्लाम धर्म के दुर्भाग्यवश यही स्वयंभू रूप से इस्लामी जेहादी लड़ाके बन बैठे हैं।

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