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गैर-हिंदुओं को योग करना चाहिए?

हमें फॉलो करें गैर-हिंदुओं को योग करना चाहिए?

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

पहले ब्रिटेन के कट्टरपंथियों द्वारा योग को हिंदुओं का विज्ञान कहकर ईसाइयों को योग से दूर रहने की हिदायत दी गई थी। अब मलेशिया कशीर्ष इस्लामिक परिषद ने योग के खिलाफ फतवा जारी कर मुसलमानों को इससे दूर रहने को कहा है।

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मलेशिया की नेशनल फतवा कांउसिल द्वारा तैयार किए गए इस फतवे में कहा गया है कि योग में हिंदू धर्म की प्रार्थनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है और यह भगवान के नजदीक ले जाने का माध्यम समझा जाता है। इसे बुतपरस्ती बताते हुए इस्लाम विरोधी कहा गया है और इस कारण से मुसलमानों को योग से दूर रहने की हिदायत दी गई है।

इससे एक महत्वपूर्ण सवाल का जन्म होता है कि क्या योग गैर-हिंदुओं को करना चाहिए या नहीं? क्या योग करने से वे हिंदू बन जाएँगे? क्या स्वस्थ रहने की प्रक्रिया से, इलाज से कोई हिंदू हो सकता है? बड़ी अजीब बात है। यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि हो सकता है कि योग का आविष्कार यदि अरब में हुआ होता तो भारत के हिंदू भी वही करते जो मलेशिया के शीर्ष इस्लामिक परिषद ने किया है।

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लगभग चार हजार ईसा पूर्व जब योग का जन्म हो रहा था तब मानव जाति के मन में यह खयाल ही नहीं था कि कौन हिंदू, कौन बौद्ध, कौन ईसाई और कौन मुसलमान। योग के ईश्वर की बात करें तो वह जगत का कर्ता-धर्ता, संहर्ता या नियंता नहीं है, जबकि हिंदू, इस्लाम, सिख और ईसाई धर्म मानते हैं कि ईश्वर ही जगत का कर्ता-धर्ता और नियंता है। योग ज्योतिष में भी विश्वास नहीं करता। अब आप तय करें कि क्या योग किसी धर्म का विरोधी है?

गड़बड़ की शुरुआत यहाँ से होती है कि जब हम भारतीय कैलेंडर को हिंदुओं का कैलेंडर बोलना शुरू करते हैं तो स्वाभाविक ही है कि अन्य धर्म के लोग इससे दूर रहने का ही प्रयास करेंगे, जैसे कि उर्दू को मुसलमानों की भाषा घोषित कर दिया गया। सिर्फ इस कारण कि उसकी लिपि अरबी थी, जबकि वह अपनी शुरुआत में शुद्ध भारतीय भाषा थी, जिसमें भारत के हर प्रांत की भाषा के रुढ़ शब्दों का समावेश किया गया था। यह भी सोचें कि क्या अरबी में लिखी गई हर बात को आप इस्लाम से जोड़कर देख सकते हैं। क्या संस्कृत या हिंदी में लिखे गए प्रत्येक साहित्य को आप हिंदू धर्म से जोड़कर देखेंगे?

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योग विशुद्ध रूप से शरीर और मन का विज्ञान है। योग के दर्शन को हिंदू ही नहीं दुनिया के प्रत्येक धर्म ने अपनाया है। चाहे वह पाँच वक्त की नमाज, रोजा रखना हो या चर्च में समूह में प्रार्थना करने का उपक्रम हो। जैन धर्म के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत या उपवास की कठिन प्रक्रिया हो या फिर बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य हो या आष्टांगिक मार्ग का दर्शन। जरा सोचें दुनिया के प्रत्येक धर्म में उपवास की धारणा कहाँ से आई। क्या योग को आप इतनी आसानी से दरकिनार कर सकते हैं, जिसने दुनिया के हर धर्म को कुछ न कुछ दिया है।

ध्यान और योग का कोई धर्म नहीं। दोनों ही धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक हैं, जिसके माध्यम से शरीर और मस्तिष्क को पूर्ण स्वस्थ्य रखा जाता है। आप खुद सोचे क्या आयुर्वेदिक दवा खाने से कोई कैसे हिंदू हो सकता है या ऐलोपैथिक दवा खाने से कैसे किसी की धार्मिक भावनाएँ बदल सकती हैं। मुश्किल तो यह है कि 9/11 के बाद हर बात को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखा जाने लगा है।

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