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कृष्ण के वृंदावन में अब गोपियां नहीं विधवाएं मिलती हैं

- एंथोनी डेंसलोव

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, सोमवार, 25 मार्च 2013 (15:50 IST)
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भारत में हर साल हजारों विधवाएं उत्तरप्रदेश के वृंदावन का रुख करती हैं। परिवार वालों ने उन्हें छोड़ दिया है और अब इस दुनिया में वे अकेली हैं। इनमें से कुछ तो सैकड़ों मील का सफर तय करने के बाद वृंदावन पहुंचती हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि वो ऐसा क्यों करती हैं।

भारत में मंदिरों और धार्मिक स्थलों की भरमार है, लेकिन यमुना के तट पर स्थित वृंदावन का खास महत्व है क्योंकि ये कृष्ण की नगरी है।

वृंदावन में सैकड़ों मंदिर हैं और यहां हर किसी की जुबान पर कृष्ण और उनकी प्रेमिका राधा का ही नाम है। हर साल दुनियाभर से लाखों की संख्या में कृष्ण भक्त यहां पहुंचते हैं।

लेकिन इस सबसे दूर वृंदावन का एक स्याह पहलू भी है। इसे विधवाओं के शहर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिरों के बाहर आपको सादी सफेद साड़ियां पहने ये विधवाएं भीख मांगते मिल जाएंगी। इनमें से अधिकांश उम्रदराज होती हैं।

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बदतर जिंदगी : भारत में विधवाएं अब सती नहीं होती हैं, लेकिन जिंदगी अब भी उनके लिए बदतर है। विधवाओं को अशुभ माना जाता है। तमाम कानूनों के बाद आज भी उन्हें पति की संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है और वे दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जाती हैं।

धार्मिक ज्ञान से भरे लोग हो या समाजशास्त्री इस सवाल का ठोस जवाब किसी के पास नहीं है कि वृंदावन में ऐसा क्या है कि पूरे भारत से खासकर बंगाल से विधवाएं यहां का रुख करती हैं।

केवल वृंदावन में ही छह हजार विधवाएं हैं और आसपास के इलाकों में भी बड़ी संख्या में विधवाओं ने अपना ठिकाना बना रखा है।

इनमें से कई तो अपनी बची खुची जिंदगी को राधा कृष्ण की सेवा में लगाने के इरादे से यहां पहुंचती है जबकि बाकी अपने परिजनों की बेरुखी और ज्यादतियों से बचने के लिए वृंदावन का रुख करती हैं।

ये भारतीय समाज का ऐसा पहलू है जिसे सरकार दुनिया की नजरों से छिपाना चाहेगी क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद ये समस्या सुलझाई नहीं जा सकी। दिल्ली के एक गैर सरकारी संगठन मैत्री ने इनमें से कुछ विधवाओं को भोजन और आश्रय देने का जिम्मा उठा रखा है।

दया पर गुजरती जिंदगी : एक छोटे मंदिर में कुछ विधवाएं पालथी मारकर फर्श पर बैठी हैं जबकि युवा स्वयंसेवक उन्हें चावल और दाल परोस रहे हैं।

इनमें से कुछ पश्चिम बंगाल से 1000 मील से भी अधिक दूरी तय करके यहां पहुंची हैं। कई बार वे खुद यहां पहुंचती हैं और कई बार उनके परिजन उन्हें यहां छोड़ जाते हैं।

सैफ अली दास 60 साल की हैं लेकिन जमाने की मार ने उन्हें वक्त से पहले ही बूढ़ा बना दिया है। उन्होंने कहा कि उनके पति पियक्कड़ थे और 12 साल पहले उनका देहांत हो गया था।

उनकी एक बेटी थी जो अस्पताल में चल बसी और बेटे का संपत्ति विवाद में खून हो गया। बेटे की मौत के बाद उनकी दुनिया वीरान हो गई और उन्होंने बाकी का जीवन वृंदावन में बिताने का फैसला किया।

वहीं सोंदी 80 साल की हैं। उनके पति का जवानी में ही निधन हो गया था। उनके बच्चे हैं लेकिन जीवन की सांध्य बेला में बहू ने उन्हें बेघर कर दिया।

भक्ति ही विकल्प : विधवाओं के लिए चार आश्रम संचालित किए जा रहे हैं लेकिन अधिकांश किराए के मकान में रहती हैं और किराया चुकाने के लिए भीख मांगती हैं। इनमें कुछ महिलाओं का कहना है कि स्थानीय लोग उनसे ठीक से पेश नहीं आते हैं। सिर्फ वृंदावन आने वाले श्रद्धालुओं की दी गई भीख से उनका जीवन चलता है।

गौरी दास 1971 में भारत और बांग्लादेश सीमा पर तनाव की वजह से वृंदावन चली आई थीं। तब उनके पति भी उनके साथ आए थे। उन दोनों की तीन बेटियां थीं। वो अब बीते 15 साल से वृंदावन में अकेली रह रही हैं और मानती हैं कि राधा की भक्ति के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है।

मंदिर में भजन गाने के लिए उन्हें कुछ सिक्के मिलते हैं। गौरी दासी उन करोड़ों लोगों में शामिल हैं जो आध्यात्मिक रास्ते के लिए दुनियादारी को छोड़ते हैं। लेकिन भगवान के इन सेवकों में बहुत से लोग दयनीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं।

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