देव आनंद : रहना अनादि-अनंत का...

दीपक असीम
सोमवार, 5 दिसंबर 2011 (14:29 IST)
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ऐसा लगता था देव आनंद अनादि हैं, अनंत हैं। वे हमारे पैदा होने से पहले धरती पर मौजूद थे और हमारे मर जाने के बाद भी धरती पर मौजूद रहेंगे। ऐसा लगता था कि वे हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। मगर गलत लगता था। कभी सुनने में नहीं आया कि देव आनंद कभी अस्पताल में भर्ती हैं या उन्हें कभी खाँसी भी हुई है। उनकी देह रोग जानती ही नहीं थी। उनकी देह ये भी भूल गई थी कि वो नश्वर हैं।

विदेश में हेल्थ चेकअप कराते हुए शायद उनकी देह को खयाल आया होगा कि अरे मैं तो मिट्टी हूँ और मिट जाना ही मेरा धर्म है। इसीलिए एक ही अटैक में वे चल बसे। उनके बस में होता तो वे अंतिम साँस हिन्दुस्तान में ही लेना चाहते। जो लोग लंबी और सार्थक जिंदगी जीना चाहते हैं, वे देव आनंद से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

हर फिक्र को धुएँ में उड़ाने वाले गीत में देव आनंद के होंठों पर सिगरेट होती है। मगर असलियत में वे सिगरेट नहीं पीते थे। शराब भी नहीं। उन दिनों देव आदंन और उनके तमाम डायरेक्टर विदेशी फिल्मों से बहुत प्रभावित थे, जिनमें हीरो तरह-तरह के हैट पहनता है और लगातार बदबूदार धुआँ छोड़ता है। सो, इसी तरह का रूप उन्होंने भी धारण कर लिया। उनकी फिल्में देखकर न जाने कितने लाख लोगों ने सिगरेट पीना अपना फैशन स्टेटस बना लिया।

काश कि उन्हें पता होता देव आदंन सिगरेट नहीं पीते। ये केवल उनकी छवि है। अपने शरीर को वे मंदिर की तरह पवित्र रखते थे। इसीलिए वे बूढ़े तो हुए पर कभी बदसूरत या भद्दे नहीं लगे। उनकी मिमिक्री करने वाले कई कलाकार भारी, भद्दे और कुरूप होकर चलन से बाहर हो गए, पर देव आनंद टिके रहे।

इतनी लंबी उम्र जीने के लिए संयम तो चाहिए ही, दिल भी बहुत बड़ा चाहिए। निर्माता के तौर पर देव आदंन ने कभी पैसे के लिए फिल्में नहीं बनाईं। पैसा उनके लिए दोयम था। ताल्लुकात पहले थे। एक जमाने में निर्माता अपने वितरकों के लिए ट्रायल शो भी रखता था। देव आनंद सभी वितरकों को अपने घर लंच पर ले जाते थे। उनके सामने तरह-तरह के खाने परोसकर खुद सूप पीते रहते थे।

भाव-ताव कभी नहीं किया। अक्सर यही होता था कि वितरक जो राशि बोलता था, उसी में देव साहब मान जाया करते थे।, फिर मुँह से बोली राशि में से भी यदि वितरक लाख-पचास हजार कम दे तो वे खयाल नहीं करते थे। उनके बंगले के एक कोने में बना डबिंग स्टूडियो उन फिल्म निर्माताओं के लिए खास आसरा था, जिनके पास नकद पैसे नहीं होते थे। उधारी भी लगभग डूब जाया करती थी, मगर वे पैसे के लिए जीने वाले शख्स थे ही नहीं।

वे कभी 'उपेक्षित बूढ़ा' बनना नहीं चाहते थे, इसीलिए फिल्में बनाते रहते थे। ये उनके जीवन जीने का ढंग था। वे इस माहौल के बाहर जी ही नहीं सकते थे। फिल्म निर्माण का माहौल पानी था और वे मछली। यकीन नहीं हो रहा कि देव साहब चले गए। हिन्दी सिनेमा का पहला स्टाइलिश हीरो चला गया। इस पर कैसे भरोसा किया जाए?

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