फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं, जिनके आधार पर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी। लेकिन पटकथा इतनी सतही लिखी गई है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। फिल्म के चरित्र भी दोषपूर्ण हैं। अभि खुद यह नहीं जानता कि वह किसे चाहता है? जब कार्तिका की बुराई सुनता है तो अमू को चाहने लगता है और कार्तिका को सामने पाकर उससे शादी करने के सपने देखने लगता है। पूरी फिल्म में पगलू, कार्तिका की असलियत सामने लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, अंत में कार्तिका के साथ हो जाता है। फिल्म के शुरुआती 45 मिनट बेहद बोर हैं। रिमी सेन जब फिल्म में प्रवेश करती है तब फिल्म में थोड़ी देर के लिए रुचि पैदा होती है। इसके बाद फिल्म में बची-खुची रुचि भी खत्म हो जाती है और जो दिखाया जा रहा है उसे झेलना पड़ता है। फिल्म के निर्देशक ईश्वर निवास (पहले ई. निवास थे, अब ईश्वर हो गए हैं, शायद किस्मत जाग जाए इसलिए) का सारा ध्यान फिल्म को मॉडर्न लुक देने में रहा। आधुनिक कपड़े, ट्री हाउस, डिस्कोथेक, शानदार घर और ऑफिस, बड़ी-बड़ी बातों की भूलभुलैया में वे फिल्म की पटकथा पर ध्यान देना भूल गए। गानों का फिल्मांकन भव्य है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कहीं से भी टपक पड़ते हैं। विशाल-शेखर का संगीत बेदम है।
फिल्म की कहानी टीनएज कलाकारों की माँग करती है, लेकिन आफताब और रितेश जैसे कलाकारों से काम चलाया गया है। रितेश तो फिर भी ठीक हैं, लेकिन आफताब मिसफिट हैं। उन्होंने खूब बोर किया है। हास्य भूमिकाएँ निभाने में रितेश को महारत हासिल है, यह एक बार फिर उन्होंने साबित किया है। आयशा टाकिया को ज्यादा मौका नहीं मिला है। रिमी सेन के चरित्र में कई रंग हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है। अनुपम खेर पूरी फिल्म में एक कुत्ते को प्रशिक्षण देते रहते हैं, पता नहीं इस भूमिका में उन्होंने क्या खूबी देखी?
कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है।