‘सिंह इज़ किंग’ एक डेविड धवननुमा शैली की फिल्म है, जिसमें लॉजिक को दरकिनार कर हास्य को महत्व दिया गया है। दिमाग घर पर रखकर आइए और फिल्म का आनंद उठाइए। फिल्म का कंटेंट कमजोर है, लेकिन उम्दा हास्य दृश्य इस कमजोरी पर भारी पड़ते हैं।
इस फिल्म का क्रेज़ वैसा ही है जैसा अमिताभ बच्चन की फिल्मों का वर्षों पहले हुआ करता था। दर्शक अमिताभ को देखने जाते थे और कहानी वगैरह से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता था। वे अपने सुपरस्टार की हर उस अदा पर तालियाँ पीटते थे, भले ही वह गले उतरे या न उतरे। इस फिल्म में भी अक्षय और सिर्फ अक्षय हैं। वे परदे पर ऊटपटाँग हरकतें करते हैं, जो उनके प्रशंसकों को अच्छी लगेंगी जिनकी संख्या पिछले दो साल में बहुत बढ़ गई है।
फिल्म की शुरुआत में लकी (सोनू सूद) के बारे में बताया गया है कि कैसे पंजाब से ऑस्ट्रेलिया पहुँचकर वह काले धंधों में लिप्त हो गया। फिर आते है पंजाब के गाँव में रहने वाले हैप्पी सिंह (अक्षय कुमार) पर। वह एक मुर्गी को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागता है (अनीस बज्मी कुछ नया नहीं सोच सकते थे) और इस काम को अंजाम देने में वह पूरे गाँव को तहस-नहस कर देता है। हैप्पी से परेशान गाँव वाले सोचते हैं कि इसे कहीं दूर भेज देना चाहिए। वे उसे इमोशनली ब्लैकमेल कर लंगोटिया यार रंगीला (ओमपुरी) के साथ ऑस्ट्रेलिया से लकी को वापस लाने के लिए भेज देते हैं।
एयरपोर्ट पर उनकी एक आदमी से टक्कर हो जाती है। बॉलीवुड की हजारों फिल्मों की तरह इस टक्कर में टिकट की अदला-बदली होती है। जाना था ऑस्ट्रेलिया और पहुँच जाते है इजिप्ट क्योंकि फिल्म की नायिका सोनिया (कैटरीना कैफ) से जो मुलाकात करवानी थी। नायक और नायिका की पहली मुलाकात के बारे में भी अनीस ने ज्यादा दिमाग नहीं लगाया। हजारों बार आजमाया हुआ फार्मूला अपनाया। सोनिया के हाथ से एक चोर हैंडबेग चुराकर भागता है और हमारे नायक ओलिम्पिक चैम्पियन की तरह फर्राटा दौड़ लगाकर उसे पकड़ लेते हैं। लो जी हो गई हैप्पी-सोनिया में मुलाकात। हैप्पी उसे अपना दिल दे बैठते हैं और सपनों में एक-दो गाने भी गा लेते हैं। इजिप्ट दर्शन के बाद हैप्पी और रंगीला ऑस्ट्रेलिया पहुँच जाते हैं।
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लकी जो किंग कहलाता है उसका पता हैप्पी एक पुलिस वाले से पूछता है। ऑस्ट्रेलिया की पुलिस भारत की पुलिस की तरह थोड़ी है। वह उसकी मदद कर सीधे कुख्यात अपराधी के घर पहुँचा देती है। हैप्पी को लकी घर से निकाल देता है। हैप्पी और रंगीला का सामान ऑस्ट्रेलिया नहीं पहुँचता और खाने के लाले पड़ जाते हैं। यहाँ उन्हें एक और पंजाबी महिला (किरण खेर) मिलती है, जो दिल से हिन्दुस्तानी रहती है। हैप्पी सरदार को वह खाना खिलाती है और हैप्पी बहुत हैप्पी हो जाता है। नमक जो खा लिया।
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हैप्पी और लकी की एक और मुलाकात होती है। दुश्मनों के हमले में लकी को गोली लगती है। लकी को कंधों पर रखकर हैप्पी उसे अपना हथियार बनाकर लड़ता है और दुश्मनों को मार भगाता है। बेचारे लकी को ऐसी बीमारी हो जाती है कि वह कोई भी हरकत नहीं कर पाता, लेकिन उसे सुनाई सब कुछ देता है। वह अपनी इस बीमारी का जिम्मेदार उँगली उठाकर (ये मत पूछिए कि उँगली उसने कैसे उठा दी) हैप्पी को बताता है और उसकी गैंग में शामिल बेवकूफ लोग समझते हैं कि हैप्पी उनका नया किंग होगा। नया किंग दिल का अच्छा है, गरीबों में पैसे बँटवाता है। बेचारा रंगीला, उसे ऑस्ट्रेलिया में गरीबों को ढूँढने में बहुत मेहनत करना पड़ती है।
किरण खेर ने अपनी बेटी से झूठ बोला था कि वो अमीर है। वो अपने बॉयफ्रेंड के साथ वापस आ रही है, अब किरण अपने झूठ को छिपाए कैसे? घबराइए मत, हैप्पी जो है ना। लकी के गैंग के सदस्यों को हैप्पी माली, बावर्ची, चौकीदार, ड्रायवर बनाकर खुद मैनेजर बन जाता है। किरण की बेटी आती है, पर ये क्या ये तो सोनिया है और वो भी बॉयफ्रेंड (रणवीर शौरी) के साथ।
हैप्पी न केवल लकी और उसकी गैंग का हृदय परिवर्तन करता है, बल्कि लड़ते-लड़ते सोनिया के साथ अनजाने में अग्नि के सात फेरे ले लेता है, पंडितजी इसे शादी घोषित कर देते हैं।
कहानी में दम नहीं है, लेकिन अनीस ने बीच-बीच में हास्य दृश्य डालकर फिल्म को गतिशील और मनोरंजक बनाया है। फिल्म का पहला भाग तेज गति का, घटनाप्रधान और हास्य से भरपूर है, लेकिन दूसरे भाग में फिल्म हाँफने लगती है। फिल्म का अंत संतुष्ट नहीं करता क्योंकि फिल्म अचानक खत्म हो जाती है।
अक्षय और ओमपुरी की कैमेस्ट्री बेहतरीन थी, लेकिन मध्यांतर के बाद निर्देशक ने इस जोड़ी का फायदा नहीं उठाया। अक्षय की दाढ़ी भी पूरी फिल्म में छोटी-बड़ी होती रहती है। निर्देशक अनीस बज्मी ने अपना सारा ध्यान कहानी को छोड़ हास्य दृश्य और अक्षय कुमार पर लगाया है। कुछ दृश्य अच्छे हैं, जैसे- अक्षय का किंग बनना, सोनू सूद का खून उबलना, सोनू का ड्रिंक ट्रॉली की तरह उपयोग करना, यशपाल शर्मा की दु:ख भरी कहानी सुनना।
अक्षय कुमार इस फिल्म की जान है। इस फिल्म से अक्षय को हटा दिया जाए तो कुछ नहीं बचेगा। उनके उम्दा अभिनय के कारण ही फिल्म में रूचि बनी रहती है। अक्षय ने पटकथा से ऊपर उठकर अतिरिक्त प्रयास के जरिए अपने अभिनय को बेहतरीन बनाया है। कैटरीना कैफ को सुंदर और ग्लैमरस लगना था और यह काम उन्होंने बखूबी किया। फिल्म में सहायक अभिनेताओं की टीम अच्छी है। ओमपुरी, किरण खेर, यशपाल शर्मा, मनोज पाहवा, रणवीर शौरी जैसे कलाकारों का काम अच्छा है। जावेद जाफरी द्वारा बोले गए आधे से ज्यादा संवाद तो समझ में ही नहीं आते। किरण खेर का मेकअप बहुत खराब है। फिल्म का संगीत ठीक-ठाक है।
कुल मिलाकर ‘सिंह इज़ किंग’ उन लोगों को पसंद आ सकती है, जो थिएटर में थोड़ी देर तनाव दूर करने के लिए जाते हैं।