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आसियान सम्मेलन ने संगठन की शक्ति को रेखांकित किया

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शरद सिंगी

पिछले सप्ताह मलेशिया की राजधानी कुवालालम्पुर में आसियान देशों का शिखर सम्मलेन संपन्न हुआ। आसियान, एशिया और भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित राष्ट्रों का समूह है। इस समूह में म्यांमार, फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देश शामिल हैं। 
आसियान देशों के साथ में आने का उद्देश्य विशुद्ध राजनीतिक था जब ये देश एशिया में साम्यवाद (कम्युनिज़्म) के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए संगठित हुए थे। शनैः शनैः इस संगठन ने एक कूटनीतिक संस्था का रूप ले लिया तथा क्षेत्रीय मुद्दों का प्रबंधन हाथ में ले लिया। संगठन में वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस के जुड़ने के बाद, राष्ट्रों ने आपसी  व्यापार का विस्तार भी किया। देशों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण के लिए काम किया और सदस्य राष्ट्रों की प्रभुसत्ता को सम्मान दिया। 
 
सदस्य राष्ट्रों के बीच कई महत्वाकांक्षी आर्थिक संधियों और दक्षिण पूर्व एशिया के लिए मुक्त व्यापार समझौतों के माध्यम से व्यापार के विकास के लिए काम किया। संगठित होकर ये राष्ट्र आज जिस मुकाम पर पहुंचे हैं, उसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्रीय सम्मलेन में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे, चीन के प्रधानमंत्री ली एवं भारत के प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हुए। यह ध्यान देने  योग्य है कि जो देश पिछले दशक तक कोई विशेष महत्व नहीं रखते थे, आज विश्व की बदलती परिस्थियों में संगठित होने की वजह से महत्वपूर्ण बन गए हैं।
 
आसियान देशों की समस्याएं भी समान  हैं।  सबसे बड़ी समस्या  दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी। दक्षिण चीन सागर में स्थित ये सारे  देश चीन की दादागिरी से भयभीत  हैं। ओबामा ने  दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाने का स्पष्ट शब्दों में विरोध किया, क्योंकि चीन द्वारा  यह सब निर्माण दक्षिण चीन सागर की सम्पदा को हड़पने का प्रयास है, किन्तु चीन ने ओबामा की इस सलाह को मानने से साफ इनकार कर दिया।   उसने कहा कि वह अपना समुद्र में कृत्रिम द्वीपों के निर्माण  का कार्यक्रम बंद नहीं करेगा और उन द्वीपों को  अपनी सैन्य सम्बन्धी सामरिक गतिविधियों के लिए  उपयोग भी  करेगा। 
 
दक्षिण चीन सागर के जिस क्षेत्र में चीन अपने आधिपत्य की बात कह रहा है उस क्षेत्र में व्यापारिक जहाजों का आवागमन होता है। हवाई जहाजों के उड़ान का मार्ग भी उसी क्षेत्र के ऊपर से है, अतः आसियान देशों सहित विश्व के अनेक देशों को इस क्षेत्र पर चीन की दावेदारी मंज़ूर नहीं। इस मुद्दे पर दुनिया के देशों के साथ चीन का विवाद अवश्यम्भावी है। अमेरिका ने अपने जहाज उस क्षेत्र में विचरने के आदेश दे रखे हैं, ताकि चीन  का मनमाना  और अवैध कब्ज़ा वैध न हो जाए।   
 
चीन के साथ बिगड़ते रिश्तों ने भारत के लिए एक अवसर पैदा किया और भारत के प्रधानमंत्री ने इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया। भारत सरकार द्वारा  प्रारम्भ  'मेक इन इंडिया' के कार्यक्रमों की उन्होंने पुरजोर मार्केटिंग की। अपनी सिंगापुर यात्रा के दौरान भी उन्होंने निवेशकों को रिझाने की भरपूर कोशिश की। भारत की टैक्स प्रणाली की जटिलता, विदेशी निवेशकों के लिए अवरोध बनी हुई है जिसे प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया और आश्वस्त किया कि टैक्स प्रणाली के सरलीकरण पर बहुत काम चल रहा है और शीघ्र ही उनकी सरकार एक पारदर्शी कर प्रणाली को लागू करेगी, ताकि ईमानदार निवेशकों को किसी तरह की परेशानी न हो। 
 
आसियान शिखर सम्मलेन में हमने देखा कि कोई भी अविकसित या विकासशील राष्ट्र एकाकी रहकर विश्व की राजनीति और आर्थिक स्थितियों को प्रभावित नहीं कर सकता  किन्तु जब संकल्प के साथ राष्ट्रों के समूह बन जाते हैं तो निश्चित ही बड़ी आर्थिक एवं सामरिक शक्तियों को झुका सकते हैं और अपनी बात को अधिक सशक्त रूप से रख सकते हैं। 
 
यूरोपीय देशों का संगठन आज सबसे मजबूत है जिसने आपसी व्यापार के लिए अपनी  सीमाएं  खोल रखी हैं। मुद्रा भी साझा है। यद्यपि यूरोप के सारे राष्ट्र छोटे हैं किन्तु मिल जाने से उनकी अर्थव्यवस्था बड़ी दिखाई देती है। खाड़ी के देशों का भी एक संगठन है जिसमे व्यापार तो खुल चुका है किन्तु अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं सामरिक मुद्दों पर मतभेद हैं। 
 
जैसा हम जानते हैं भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित दक्षिण एशियाई  देशों ने भी एक संगठन बना रखा है, जिसे हम सार्क देशों का समूह कहते हैं किन्तु उसमें भारत और पाकिस्तान दो सबसे बड़े देशों के बीच तनाव होने से यह संगठन विश्व में अपना कोई प्रभाव नहीं रखता। यह केवल एक क्लब की तरह है, जो विश्व की कूटनीति या विश्व की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करने में असमर्थ है। इस संगठन के प्रभावी न हो पाने से इस समूह के छोटे-छोटे देशों जैसे नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, मालदीव्स आदि की विश्व में कोई आवाज़ नहीं है। पाकिस्तान भी अन्य कारणों से सुर्ख़ियों में है। 
 
इसमें संदेह नहीं कि क्षेत्रीय संगठन जब मज़बूत होते हैं तो वे आपसी सहयोग से अपने स्तर पर ही कई आर्थिक, कूटनीतिक एवं प्राकृतिक समस्याओं से निपट लेते हैं। विश्व मंच पर अपना कद बड़ा कर लेते हैं। विश्व के अन्य देशों को उनकी सलाहों का सम्मान करना पड़ता है, किन्तु पाकिस्तान जिस राह पर है उसे इन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं। विश्वमंच पर अपनी बात रखने के लिए उसे अपने घर में आग लगाने में संकोच नहीं। 
 
अतः सार्क संगठन कभी आसियान की तरह मजबूत होगा, यह धारणा करना मिथ्या है। यह इस बात का भी उदाहरण है कि एक देश की नकारात्मक सोच किसी बड़े सकारात्मक उद्देश्य की प्राप्ति में कैसे बाधक बन सकती है। फ़िलहाल तो आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती, फिर भी भारत अपने सकारात्मक प्रयसों में निरंतर प्रयत्नशील है। कभी तो सुबह आएगी।  
 

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