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मैं कांग्रेस बोल रही हूं...

हमें फॉलो करें मैं कांग्रेस बोल रही हूं...
- हेमन्त चतुर्वेदी
 
मैं कांग्रेस बोल रही हूं, मध्यप्रदेश कांग्रेस। वही कांग्रेस, जो पूरे चार दशकों तक काबिज रही सूबे की सत्ता पर। वही कांग्रेस, जिसने एक समय अखंड राज किया हिन्दुस्तान के दिल पर। वही कांग्रेस, जिसने मध्य भारत को बनाया मध्यप्रदेश।
 
क्या दिन थे वो भी, हर कुछ फीका-फीफा लगता था मेरी शान के सामने। हर किसी से बड़ा था मेरा वजूद। कोई आसान काम नहीं था, वो नाम, वो शान, वो पहचान पाना। नजर उठाने की देर भर थी, बस मैं ही नजर आती थी, मैं ही दिखाई देती थी।
 
मुझे आज भी याद है वो दिन...जब सूबे के गठन के साथ ही मेरी उंगली पकड़कर रविशंकर शुक्ल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। बड़ी खुशी हुई थी मुझे उस वक्त, जब मेरे द्वारा जन्मा एक और राज्य अस्तित्व में आता जा रहा था। जहां मेरी ही सरकार ने बिजली पहुंचाई, सड़कें बनवाईं, अस्पताल और स्कूल खुलवाए। लोग धन्यवाद देते थे मुझे, धन्यवाद देते थे मेरी सरकार को। कोई सियासी दल कितना भी बड़ा क्यों न बन जाए, मेरी उस हैसियत को कभी पा नहीं सकता। जब माला फेरी जाती थी मेरे नाम की। लोगों के दिलों में बसने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
चेहरे बदलते गए। लेकिन मेरा राज कायम रहा। अखंड रही मैं मध्यप्रदेश में दो दशकों तक। लेकिन केन्द्र में इंदिरा की गलती का खामियाजा उठाना पड़ा मुझे। और सन् 1977 में चला गया मेरे सर से सत्ता का ताज। लेकिन ज्यादा दिन तक कायम नहीं रही सत्ता से मेरी ये दूरी। महज तीन साल में ही की मैंने धमाकेदार वापसी। मेरा नाम लेकर अर्जुन सिंह पहुंचे सत्ता के सिंहासन पर। 
 
एक बार फिर शुरू हो गया प्रदेश में मेरा स्वर्णिम काल। एक बार फिर बुलंद हो गया मेरे नाम का झंडा। एक बार फिर मध्‍यप्रदेश बन गया, कांग्रेस का मध्यप्रदेश। सूबे की अखंड पहचान बनने में सफल होने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं। लेकिन काश...काश, सूबे में लहराता रहता पंजा छपा हुआ वह पताका। काश, देश के दिल में कायम रहती मेरी सत्ता। काश, मध्यप्रदेश रहता कांग्रेसमय मध्यप्रदेश।
 
लेकिन वक्त ने फिर करवट ली और अपने साथ बदला हालातों को। हालात बदले, तो लोगों की सोच भी बदली, सोच के साथ बदली सत्ता। और एक बार फिर मुझे छोड़ना पड़ा सूबे का सिंहासन। बड़ा ही दुखभरा वक्त था वह मेरे लिए। मैं रो रही थी, बार-बार कोस रही थी उस घड़ी को, जब कांग्रेस के हाथ से भाजपा ने छीन लिया था प्रदेश को। सोच रही थी ऐसा क्या करूं, एक बार फिर मध्यप्रदेश बन सके मेरा मध्यप्रदेश, कांग्रेस का मध्यप्रदेश। सूबे की सत्ता के लिए लगातार संघर्ष करने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
इस वक्त भी मुझे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। वहां अयोध्या में बाबरी ढही, और यहां मेरा वर्चस्व बढ़ गया। प्रदेश की जनता ने मुझे सर आंखों पर लिया। और इस बार मेरे दामन की छांव के तले प्रदेश का राजपाठ संभाला राघौगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह ने। और सिर्फ संभाला हीं नहीं, बल्कि और बढ़ा दिया मेरा रूतबा। जिस वक्त पूरे देश में अन्य सियासी दल पैर पसारते जा रहे थे, उस वक्त सूबे में लगातार बुलंद हो रहा था मेरे नाम का झंडा। मैं और ताकतवर हो रही थी। मैं बढ़ती ही जा रही थी। मुझे अच्छी तरह से याद है सन् 1998। जब देश में अटल का नाम लेकर भाजपा मजबूती के पायदान पर चढ़ रही थी, लेकिन उस वक्त दिग्विजय सिंह ने प्रदेश में मजबूत रखा मेरे नाम को। और फिर की एक दमदार वापसी। प्रदेश के लोगों के दिल में रची-बसी मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
काश...काश सबकुछ ऐसा ही चलता रहता। लेकिन समय के साथ-साथ मेरे सामने अपना वर्चस्व कायम रखने की चुनौती बढ़ती ही जा रही थी। दिग्विजय की दूसरी पारी लगातार लोगों के दिलों में मेरे प्रति एक नफरत को जन्म दे रही थी। जिस कांग्रेस ने अंग्रेजों के गुलाम हिन्दुस्तान को आजाद हिन्दुस्तान बनाया। जिस कांग्रेस ने अंतरराष्ट्रीय पटल पर देश को एक पहचान दी। जिस कांग्रेस ने देशवासियों को बिजली, पानी सड़क मुहैया कराई। उसी कांग्रेस को नई पीढ़ी विकास विरोधी के तौर पर जानने लगी थी। मेरे राज को अंधा राज बताया जाने लगा था। मेरे नाम के साथ-साथ भ्रष्टाचार और विनाश जैसे शब्द परोसे जाने लगे थे। मैं टूट रही थी, बिखर रही थी। मैं समझ गई थी, कि जल्द ही ढहने वाला है मेरा वजूद। अपनी आंखों के सामने अपने सिमटते वजूद को देखने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
मेरी आशंका सही साबित हुई, मेरे कयास सच निकले और सन् 2003 में दरक गई वो इमारत, जिस नींव को मैंने अपने लहू से सींचा था। जिसे मजबूत करने के लिए मैंने अपना सबकुछ झोंक दिया था। वो कायम रह सके इसके लिए मैंने संघर्षों के रास्तों पर वो सफर तय किए थे। जिनके बारे में सोचना भी हर किसी के बस की बात नहीं थी। गौरवशाली अतीत से अंधकारमय वर्तमान का सफर तय करने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
अपने और परायों में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता। बस, जो अच्छे समय में अपने होते हैं, वह बुरे वक्त में पराए बन जाते हैं। इस बात को मैंने सीखा सत्ता से लंबे समय तक दूर होने के बाद। शुरुआती समय में तो मेरे नाम के सहारे अपना वजूद तलाशने की कोशिश की कुछ लोगों ने। उम्मीद उन्हें भी थी खुद को चमकाने की। मेरी भी उम्मीद जागी सोचा फिर से हासिल कर पाऊंगी वो नाम, वो शान, वो पहचान। 
 
लेकिन साल 2008 ने भी मेरे ऊपर आघात किया। और इस वक्त भी सभी दांव फेल साबित हुए मेरे लिए लड़ने वालों के। मैं फिर हार गई थी, बदलाव की उम्मीदों पर जी रही थी, सोच रही थी कि कभी तो बदलेगा वक्त। फिर लौटेगा मेरा वो रसूख। फिर से हासिल करूंगी मैं वो सबकुछ, जो बहुत पहले खो दिया था मैंने। लेकिन मेरी उम्मीद की एक और वजह बनने वाला साल 2013 भी मेरे हिस्से में आंसू लेकर आया। और फिर से मेरे हाथ लगी मायूसी। सत्ता के विरह में अपने पुराने वैभवशाली दिनों को याद करने वाली मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
आज में हताश हूं, मैं निराश हूं...नहीं-नहीं, मेरी हताशा की वजह मेरा सिमटता वजूद नहीं है। बल्कि मैं दुखी हूं उस कुठाराघात से, जो मेरे अपनों ने मुझे दिया है। जो कभी मेरे सीने पर पैर रखकर सत्ता का सिंहासन चढ़े थे, आज उन्हें चिड़ होती है मेरे नाम से। वो यहां तक कहते हैं कि कांग्रेस का नाम चुनाव नहीं जिता सकता। वो यहां तक कहते हैं, वापस सत्ता पानी है तो पंजे के निशान से मोह छोड़ना पड़ेगा। वो यहां तक कहते हैं कि मध्यप्रदेश को फिर से कांग्रेसमय मध्यप्रदेश बनाना है तो टुकड़े-टुकड़े करने पड़ेंगे कांग्रेस के। अपनों के जख्मों की मार झेलती मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
मैंने बिना भेदभाव किए सबको सत्ताधीश बना दिया। लेकिन आज मेरे लिए वो एक मंच पर खड़ा होना पसंद नहीं करते। मैंने खुले हाथों से सबको खैरातें बांटीं, लेकिन आज कोई याद करना पसंद नहीं कर रहा मुझको। मेरे झंडे उठाने वाले आपस में खुद के लिए लड़ते हैं, झगड़ते हैं। लेकिन मैंने कभी भी उन्हें अपने लिए लड़ते नहीं देखा। मैं दुखी होती हूं, फफक-फफक कर रोती हूं। मेरी आंखों से बहते आंसुओं में ही मेरी उम्मीदें डूबती जा रही हैं। मुझे डर है कि कहीं खत्म न हो जाऊं मैं, कहीं मिट न जाऊं मैं, कहीं सिमट न जाऊं मैं। हकीकत को छोड़कर उम्मीदों में जी रही मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 
उम्मीद अभी भी जिंदा है। दिल के एक कोने में ही सही, एक लौ जल रही है वापसी की। कि कोई आएगा ऐसा झंडाबरदार, जो फिर से बुलंद करेगा नाम। मुझे फिर लौटाएगा मेरी पुरानी पहचान। और कांग्रेस को बनाएगा फिर से वही शानदार और जानदार कांग्रेस। मुझे पता है कि कहीं न कहीं अभी भी जिंदा हूं मध्यप्रदेश में। दिल से दूर हुई हूं यहां के लोगों के, भूले नहीं हैं वो मुझे। एक बार फिर चुनेंगे वो मुझे, एक बार फिर अपना बनाएंगे। और मैं हासिल करूंगी अपना खोया हुआ वजूद, अपना खोया हुआ रसूख। चारों तरफ अंधेरे में आशाओं की लौ तलाश रही मैं वही मध्यप्रदेश कांग्रेस बोल रही हूं।
 

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