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धरती के कांपने का सिलसिला और हम

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अनिल जैन

हिमालय क्षेत्र में धरती के डोलने-थरथराने का सिलसिला नया नहीं है, लेकिन नेपाल में आया भूकंप यकीनन बहुत बड़ी त्रासदी है। भीषणता के लिहाज से यह लगभग अस्सी बरस पहले आए भूकंप के बाद दूसरा सबसे बड़ा भूकंप है, जिसने अनुमानों के मुताबिक करीब दस हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर दिया है। इस इलाके में पिछला बड़ा भूकंप 15 जनवरी, 1934 में आया था, जिसकी तीव्रता 8.2 थी। तब वैज्ञानिकों ने अनुमान जताया था कि इस इलाके में 21वीं शताब्दी में कभी भी बड़ा भूकम्प आ सकता है।
माना जा रहा है कि यह शायद वही भूकम्प हो, जिसकी आशंका जताई गई थी। रिक्टर पैमाने पर 7.9 की तीव्रता वाले इस भूकंपन को नेपाल से सटे बिहार, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि सीमावर्ती सूबों में व्यापक तौर पर और दिल्ली, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी कहीं कम तो कहीं ज्यादा महसूस किया गया। इसके अलावा चीन, भूटान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में भी इस भूकम्प का असर देखा गया। लेकिन सर्वाधिक तबाही इसने नेपाल में ही मचाई। इसका केंद्र नेपाल में लगभग 11 किलोमीटर गहराई में था। यानी रिक्टर पैमाने पर 7.9 की तीव्रता के हिसाब से यह कम गइराई का भूकम्प था। कम गहराई वाला भूकम्प ज्यादा तबाही मचाता है, क्योंकि इसका असर धरती की सतह पर ज्यादा होता है। 
 
दरअसल, भूकंप ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जिसे न तो रोक पाना मुमकिन है और न ही उसका अचूक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। वैसे भूकंप हमारे लिए कोई नई प्राकृतिक परिघटना नहीं है। यह सदियों से मनुष्य जाति को डराता रहा है। भूकंप कैसे आता है या धरती क्यों डोल उठती है, इस बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित रही हैं।
 
प्राचीन सभ्यताओं ने धरती के थरथराने की घटनाओं को तरह-तरह के मिथकों से जोड़कर समझने की कोशिश की है। ज्यादातर का मानना रहा है कि पृथ्वी किसी विशालकाय जंतु, जैसे शेषनाग, कछुआ, मछली, हाथी की पीठ पर या फिर किसी देवता के सिर पर टिकी हुई है और जब कभी वे अपने शरीर को हिलाते हैं, तो धरती डोल उठती है। भारतीय मिथक यह है कि धरती शेषनाग के फण पर स्थित है और जब भी वह अपना फण सिकोड़ते या फैलाते हैं, तब धरती थरथरा उठती है।
 
यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने जमीन की गहराइयों में बहने वाली हवाओं को भूकंप का कारण माना था, जबकि महात्मा गांधी की मान्यता थी कि जब धरती पर पाप की बहुतायत हो जाती है, तब वह क्रुद्ध होकर डोलने लगती है। दुनिया के और भी कई दार्शनिकों और चिंतकों की इस बारे में अपनी-अपनी मान्यताएं होंगी। जो भी हो, भूकम्प इस मिथक का खंडन करता है कि धरती एक स्थिर बनावट है। धरती के बारे में मनुष्य जितना जानता है, भूकम्प के कारण वह जानकारी संदिग्ध न हो जाए, इसलिए भी भूकम्प के बारे में कोई न कोई कहानी गढ़नी पड़ती है।
क्‍या कहते हैं भू-गर्भ वैज्ञानिक...आगे पढ़ें...

भू-गर्भ शास्त्रियों के मुताबिक धरती की गहराइयों में स्थित प्लेटों के आपस में टकराने से धरती में कंपन पैदा होता है। इस कंपन या कुदरती हलचल का सिलसिला लगातार चलता रहता है। वैज्ञानिकों ने भूकम्प नापने के आधुनिक उपकरणों के जरिए यह भी पता लगा लिया है कि हर साल लगभग पांच लाख भूकम्प आते हैं यानी करीब हर एक मिनट में एक भूकम्प। इन पांच लाख भूकम्पों में से लगभग एक लाख ऐसे होते हैं, जो धरती के अलग-अलग भागों में महसूस किए जाते हैं। राहत की बात यही है कि ज्यादातर भूकम्प हानिरहित होते हैं।
 
जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, वह तो वैसे भी बचने वाली नहीं है। कई बार हिम युग आ चुके हैं, जिनमें सब कुछ बर्फ से ढका था। तब न हमारे पूर्वज थे और न ही कोई जीव-जंतु। कुछ वैज्ञानिकों की मान्यता है कि जिस तेजी से पृथ्वी गरम हो रही है, उससे हिमशिखरों के पिघलने का सिलसिला शुरू हो गया है। एक समय ऐसा आएगा कि सारे हिमशिखर पिघल जाएंगे और समुद्र में इतना पानी आ जाएगा कि वह अपने आसपास की बस्तियों या देशों को प्लावित कर देगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य का भी एक दिन अंत होना तय है। वह भी एक बौना तारा बनकर रह जाएगा और ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर कहीं भी जीवन का नामोनिशान नहीं बचेगा। जीवन की तरह मृत्यु का भी चक्र है।
 
इस स्थिति से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सृष्टि की योजना में मानव जीवन या किसी भी प्रकार का जीवन नहीं है। यानी वह एक संयोग है, जिसके रहस्य का पता अभी तक चल पाया है। जीवन भले ही संयोग हो, मगर भूकम्प कतई संयोग नहीं है। धरती पर जीवन रहे या नहीं रहे, पर भूकम्प आते रहेंगे और धरती हिलती-डुलती रहेगी। मुमकिन है कि किसी बड़े भूकम्प से वह छिन्न-भिन्न हो जाए या उसका निजाम उलट-पुलट जाए और आज जहां पहाड़ सीना ताने खड़े हैं, कल वहां महासागर लहराने लगे।
 
हकीकत तो यह है कि पृथ्वी आज भी हमसे खुश नहीं है। पिछले कुछ दशकों से मनुष्य के प्रति उसके मिजाज में बदलाव आ रहा है, जिसे समूची दुनिया महसूस कर रही है। जिस पृथ्वी को बनने-संवरने में करोड़ों वर्ष लग गए, उसे हमने कुछ ही दशकों में बर्बाद कर दिया। सच तो यह भी है कि हम पृथ्वी को समझने में नाकाम रहे हैं और कभी इसकी संजीदा कोशिश भी नहीं की है। हमारी इस लापरवाही ने ही भूकम्प की आमद बढ़ाई है। 
 
भूकम्प से लोग कीड़े-मकोड़े की तरह मरते हैं। लेकिन वास्तव में सृष्टि के आकार के बरक्स धरती के हम लोग तो कीड़े-मकोड़े भी नहीं हैं। विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी मनुष्य इसी निष्कर्ष पर पहुंचने को बाध्य है कि उसका जीवन पानी के बुलबुले के समान है, लिहाजा मौत से डरने का कोई मतलब नहीं है। भूकम्प जैसी कुदरती आफत के सामने हम बिल्कुल असहाय हैं। लेकिन मानव मस्तिष्क इतना जरूर कर सकता है कि जब भी इस तरह का कोई कहर टूटे तो हमें कम से कम नुकसान हो। इस सिलसिले में हम जापान जैसे देशों से सीख ले सकते हैं, जिनके यहां भूकम्प बार-बार अप्रिय अतिथि की तरह आ धमकता है।
 
भूकम्प को लेकर वैज्ञानिक निष्कर्ष जो भी हों, यह तो तय है कि भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं हमें यह याद दिलाने नहीं आती हैं कि हम अब तक प्रकृति पर पूरी तरह विजय नहीं पा सके हैं। वैसे भी प्रकृति को इतनी फुरसत कहां कि वह हमारे ज्ञान और भौतिक क्षमता की थाह लेती रहे। प्रकृति दरअसल चाहती क्या है, यह एक ऐसा रहस्य है जिसका भेद शायद कभी नहीं खुलेगा और खुल भी गया तो मनुष्य के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं रहेगा। क्योंकि हम प्रकृति के नियमों को जानकर उनका आनंद ही उठा सकते हैं, प्रकृति के निजाम में कोई बड़ा दखल नहीं दे सकते।

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