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नेहरू की विदेश नीति का मोदी संस्करण

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शरद सिंगी

किसी भी देश की विदेश नीति एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होता है जो एक सम्प्रभु राष्ट्र से दूसरे सम्प्रभु राष्ट्र के रिश्तों के बारे में राष्ट्र की नीति को रेखांकित करता है, किन्तु यह कोई संविधान की तरह स्थाई दस्तावेज़ नहीं होता और बदलती दुनिया के साथ निरंतर परिवर्तित होता रहता है। 
भारत की विदेश नीति के जनक/ रचनाकार जवाहर लाल नेहरू थे।  कहा जाता है कि उन्होंने लगभग अकेले ही इस नीति दस्तावेज़ का प्रारूप बनाया था। पाठकों को आश्चर्य होगा कि नेहरूजी ने अपने सत्रह वर्ष के प्रधानमंत्रित्वकाल में विदेश मंत्री का पद भी  अपने ही पास रखा था और इस तरह सबसे ज्यादा वर्षों तक विदेश मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड भी उनके नाम है। 
 
नेहरूजी ने अपने कार्यकाल में बहुत से राष्ट्राध्यक्षों को व्यक्तिगत मित्र बना लिया था और यही कारण था कि वे अमेरिका और सोवियत संघ की लड़ाई के बीच पिसते हुए राष्ट्रों का एक गुट निरपेक्ष संगठन बनाने में सफल रहे थे। यद्यपि यह संगठन कभी प्रभावशाली नहीं हो पाया क्योंकि इस संगठन के पास साधनों की  कमी थी। पंचशील का सिद्धांत भी नेहरूजी की ही देन है, किन्तु न तो अब गुटनिरपेक्ष आंदोलन रहा और न ही पंचशील। 
 
पिछले कुछ वर्षों से और विशेष रूप से नई  सरकार आने के पश्चात विदेश नीति का नया चेहरा हमें देखने को मिल रहा रहा है। पंचशील की जगह पंचामृत ने ले ली है। पंचशील सिद्धांत में शांतिवाद मुख्य स्तम्भ था किन्तु  पंचामृत जो भारतीय जनता पार्टी का विदेश नीति का  दस्तावेज़ है उसमें सम्मान, संवाद, समृद्धि, सुरक्षा और संस्कृति एवं सभ्यता को विदेश नीति का स्तम्भ बताया गया है। 
 
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत की छवि एक गरीब और निरीह राष्ट्र की थी जो शांति और  अमन का याचक था किन्तु अब वह दबंग राष्ट्रों में अपनी गिनती देखना चाहता है। तो अब यह प्रश्न उठता है कि नेहरूजी की विदेश नीति और मोदीजी के विदेश नीति में क्या अब कोई साम्य बचा है? शायद केवल एक, जिस तरह जवाहरलाल ने विदेश नीति में व्यक्तिगत रिश्तों को  प्राथमिकता दी थी उसी तरह  अब वर्तमान प्रधानमंत्री  ने भी व्यक्तिगत रिश्तों को विदेश नीति का  अहम हिस्सा बना दिया  है।
 
विदेश नीति की  जब बात होती है तो सामान्य तौर पर उसे कांग्रेस या भाजपा की विदेश नीति नहीं कहा जाता है।  विदेश नीति राष्ट्राध्यक्षों के नाम से जानी जाती है, जैसे  नेहरू सरकार की विदेश नीति, ओबामा  सरकार की विदेश नीति या मोदी सरकार की विदेश नीति।  क्योंकि  लक्ष्य एक होते हुए भी पार्टी से अधिक राष्ट्राध्यक्ष की व्यक्तिगत सोच इस नीति को अधिक प्रभावित करती है। 
 
वर्तमान प्रधानमंत्री मोदीजी की बात लें।  विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति को जब उन्होंने उनके प्रथम नाम बराक से सम्बोधित किया था तब कई भारतीय कूटनीतिज्ञ दहशत में थे।  उसके बाद  तो उन्होंने चीन के राष्ट्रपति से भी व्यक्तिगत संबंधों की शुरुवात की और उत्तरी सीमा पर चीनी सेना द्वारा निरंतर हो रहे सीमा उल्लंघन पर विराम लगवाया। पराकाष्ठा तो तब हो गई जब वे बातों-बातों में लाहौर घूम आए और पूरे विश्व के कूटनीतिकारों को हैरत  में डाल  दिया। 
 
जो काम विदेश नीति वर्षों तक न कर सकी वे काम आसानी से  सुलझा लिए गए।  उदाहरण के लिए बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद हो या वर्षों से लंबित  फ्रेंच लड़ाकू विमानों का सौदा हो। हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात के अबुधाबी के युवराज और प्रभारी शासक से मोदीजी ने  जिस प्रकार व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाए हैं उससे सारे खाड़ी के देशों में एक हर्ष मिश्रित आश्चर्य का भाव है। दुबई के अखबारों में तीन दिनों तक लगातार मोदीजी के साथ अबुधाबी के युवराज की ख़बरें बहुत प्रमुखता से छपती रहीं जिन्हें देख मैं भी चकित था। 
 
यह बात तो निश्चित है कि जब नौकरशाही कूटनीतिक दांवपेंच में उलझ जाती है  तब  व्यक्तिगत संबंध ही पटरी से उतरी रेल को पुनः पटरी पर लाने का काम करते हैं।   जाहिर है कि व्यक्तिगत सम्बन्ध परंपरागत कूटनीति  में तुरुप का इक्का है तथा केवल  राष्ट्राध्यक्ष ही हैं जिनके पास इस  इक्के को खेलने का अधिकार होता है। वे इस इक्के की चाल से खेल का प्रारूप बदल सकते हैं, किन्तु साथ में यह ध्यान भी रहे कि यदि यह इक्का किसी अनाड़ी के हाथ लग गया तो खेल के प्रतिगामी होने में भी समय नहीं लगता। 
 
हमारी धारणा है कि यदि उद्देश्य ईमानदार, विश्वास कपटरहित तथा विचार स्पष्ट हों, रचनात्मक हों और  सभी पक्षों के हितों का ध्यान रखकर निर्मित किए गए हों तो मानवीय संबंधों में निश्चय ही रचनात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। शंका, कुशंका की गुंजाइश दुराववादी नीतियों में ही होती है और दुराव या छलकपट की रीति-नीति बहुत समय तक आवरण में नहीं रखी जा सकती। वह तो उजागर होकर ही रहेगी। अतः जिस निष्ठा और रचनात्मकता के साथ हमारी विदेश नीति का निर्माण एवं क्रियान्वयन किया जा रहा है, उसके निश्चित ही अच्छे परिणाम निकलेंगे, इसमें संदेह कोई गुंजाइश नहीं है।   

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