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कैसे होगा 2019 तक स्वच्छ मध्यप्रदेश?

हमें फॉलो करें कैसे होगा 2019 तक स्वच्छ मध्यप्रदेश?
डॉ. परशुराम तिवारी

सुना है गांधीजी ने भारत की आजादी की तुलना में देश में देश में स्वच्छता को अधिक महत्वपूर्ण माना था। इसके बावजूद देश को स्वच्छता से पहले आजादी ही मिली। गांधीजी ने देश के सही रूप में विकास के लिए पहले गांव के विकास पर जोर दिया था।



इसके बावजूद अतीत की सरकारों ने गांधीजी की इस तरह की अनेक नेक इच्छाओं की अनदेखी की। यही वजह है कि देश को स्वच्छ बनाने की दिशा में 67 साल तक कोई ठोस नीति या योजना नहीं बनी।

गत लगभग दो दशक में संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम और निर्मल भारत अभियान के तहत कुछ प्रयास हुए थे, जो नाकाफी रहे। कारण? इनमें राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति एवं जनभागीदारी की महत्वपूर्ण कमियां थीं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने पहले भाषण में स्वच्छता को देश के एक व्यापक एजेंडे के रूप में देश के सामने रखा। उन्होंने स्वच्छता के महत्व को कुछ इस तरह बयां किया था- 'पहले शौचालय, फिर देवालय।' इस भावना को अमली जामा पहनाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) की शुरुआत की गई।

इस मिशन ने मानो ठहरे हुए पानी में कंकड़ मार दिए हैं। जन-जन में साफ-सफाई की आदत को बढ़ावा देने और खुले में शौच जाने की प्रथा को समाप्त करने का संदेश देने के लिए प्रधानमंत्री के साथ लाखों लोगों ने अपने हाथ में झाड़ू थामी।

कई जगह लड़कियों ने ससुराल में जाने से पहले शौचालय बनाने की मांग रखना शुरू कर दिया। कई जगह लोगों ने प्रोत्साहन राशि न मिलने पर भी स्वेच्छा से अपने घर में शौचालय बनवा लिए। वातावरण की साफ-सफाई के अन्य प्रयास भी देश में शुरू हुए हैं।

मप्र के हरदा में ही चलाए गए मल युद्ध अभियान द्वारा की जा रही पहल का स्वयं प्रधानमंत्री ने रेडियो पर प्रसारित अपने 'मन की बात' कार्यक्रम में उल्लेख किया है। देश-दुनिया में चर्चा हो रही है कि स्वच्छता कार्यक्रम ने सही मायने में अभियान का रूप ले लिया है।

इसके पीछे यह मन जाग रहा है कि स्वच्छता मिशन के साथ अब व्यापक राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक सक्रियता और जनभागीदारी दिखने लगी है। केंद्र सरकार ने 2019 तक भारत को खुले में शौचमुक्त बनाने के लिए योजना भी बना ली है। मप्र सरकार ने भी 2019 तक प्रदेश में लक्षित 90,03,900 हजार शौचालय बनाने की कार्ययोजना बना ली है।

यहां तक तो ठीक है, पर यक्षप्रश्न ये है कि क्या सिर्फ प्रधानमंत्री की इच्छा और कार्ययोजना बना लेने मात्र से देश में खुले में शौचमुक्त और स्वच्छता का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है? आगामी 5 साल में इस लक्ष्य को हासिल करना यानी पहाड़ तोड़ने जैसा कठिन और चुनौतीपूर्ण है।

यह चिंता इसलिए है, क्योंकि मिशन में 'दसरथ माझियों' का तो अता-पता ही नहीं है। इस तथ्य को समझने के लिए मप्र के स्वच्छता से जुड़े कुछ जरूरी आंकड़ों, राज्य में 1 साल में प्राप्त उपलब्धियों और चल रही प्रक्रियाओं पर रोशनी डालना जरूरी है।

गत 1 साल में भाबरा (आलीराजपुर), बड़वानी, सरदारपुर (धार) और पेटलावद (झाबुआ) जिलों की 62 पंचायतों के 125 से अधिक गांवों में स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर हुए प्रयासों को करीब से देखने के बाद जमीनी हकीकत कुछ और ही दिखी।

विश्व हाथ धुलाई दिवस के अंतर्गत प्रदेश में एमपी वॉश (डीएफआईडी/ वॉटर एड) के सहयोग से शासन द्वारा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाने के लिए गठित राज्य टीम का अंग होने के नाते भी 30 से अधिक जिलों में मिशन के काम को करीब से देखने का अवसर मिला। उसी आधार पर यह मीमांसा संभव हुई-

ये है जमीनी सच्चाई-

• बहुत जतन करने पर अक्टूबर 2014 से सितंबर 2015 के बीच सरकार ने लगभग 5.69 लाख शौचालय बनवाए हैं जबकि 5 साल की कार्ययोजना के अनुसार कुल लक्ष्य 90,03,900 में से प्रदेश में से इस साल 1,80,780 शौचालय बनना चाहिए थे जबकि मप्र सरकार की उपलब्धि लगभग 31.7 प्रतिशत ही रही यानी सरकार फेल हो गई। यदि इसी गति से प्रदेश सरकार ने स्वच्छता मिशन को लागू करने का काम किया तो 2019 तक लगभग 28,45,000 शौचालय ही बन सकेंगे। इसका मतलब ये होगा कि निर्धारित लक्ष्य के बाकी 61,58,900 शौचालय बनाने के लिए 2019 के बाद 11 साल और लगेंगे। यानी लक्ष्य 2030 तक या इसके बाद ही हासिल हो सकेगा। इसमें भी गुणवत्ता और समुदाय/ लोगों द्वारा उनके उपयोग की गारंटी शामिल नहीं है।

• सीहोर जिले का बुधनी मुख्यमंत्री का गृह विकासखंड है। वर्ष 2013-14 से यहां गांव को खुले में शौचमुक्त करने के प्रयास चल रहे हैं। 2 साल में यहां बहुत धनराशि खर्च की गई है। कुछ काम भी हुए हैं, पर कामयाबी कोसों दूर है। 2015 तक बुधनी विकासखंड में लगभग 16,000 शौचालय बनाए गए थे। इनमे से अनेक तो फर्जी या लापता हैं। लगभग 1965 शौचालय जर्जर और अनुपयोगी पाए गए हैं। इसी तरह राज्य के प्रायः सभी जिलों में 2012 के पहले रिपोर्ट किए गए 15 लाख में से अधिकतर शौचालय फर्जी और जर्जर पाए गए हैं। इस तरह के जर्जर शौचालयों को सुधारने के लिए सरकार के पास न तो धनराशि की व्यवस्था है और न ही मरम्मत की अलग से कोई रणनीति।

• शौचालय निर्माण में प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों और स्वच्छ्ता दूतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन मिशन में न तो राजमिस्त्रियों का गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण होता है और न ही उनको निर्माण कार्य में निरंतर लगाए रखने की जिलों/ विकासखंड के पास कोई ठोस योजना है। इसी तरह स्वच्छ्ता दूतों को भी प्रशिक्षण के बाद प्रायः काम ही नहीं दिया जाता। अगर काम दिया भी गया तो बाद में किसी ने ही पूछा नहीं कि उन्होंने मिशन के लिए क्या काम किया? अगर किसी दूत ने कोई काम किया भी है तो उनके मानदेय के भुगतान की कोई चिंता नहीं करता। इससे इन दूतों का योगदान नगण्य होकर रह गया है।

• बहुत से गांव/ फलियों/ पहाड़ी/ दुर्गम इलाकों तक शौचालय निर्माण सामग्री के परिवहन की लागत विक्रय स्थल से अधिक बैठती है जबकि मिशन के तहत सभी तरह के इलाकों के लिए शौचालय निर्माण लिए केवल 12,000 रुपए ही निर्धारित हैं। इस तरह मिशन में दूरी के मान से राशि का आवंटन व्यावहारिक नहीं है। इस कारण भी समय पर और गुणवत्तापूर्ण काम नहीं होता। केंद्र/ राज्य को इस मुद्दे पर भी जल्द और ठोस पहल करना चाहिए।

• विकासखंड और जिला स्तर पर जो समन्वयक पदस्थ हैं, वे प्रशासन के प्रोफेशनल बनने के बजाय या तो बाबू बना दिए गए हैं या फिर अफसर बन गए हैं। उन्हें सामाजिक परिवर्तन के वाहक बनाने की जरूरत है।

• बहुत से हितग्राहियों को मिशन की प्रोत्साहन राशि का भुगतान भ्रष्टाचाररहित नहीं है। दुखद पहलू तो ये है कि कहीं-कहीं तो स्वयंसेवी संस्थाओं की मौजूदगी में ही यह खेल जारी है।

• शौच के बाद और खाने से पहले सही तरीके से हाथ धोने की आदत को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 15 अक्टूबर 2014 को गिनीज बुक का विश्व कीर्तिमान बनाने की पहल मप्र शासन ने की थी। इस कीर्तिमान का शासन को गिनीज से प्रमाणीकरण मिल भी गया है। पर इस श्रमसाध्य काम को अंजाम तक पहुंचाने वाले शिक्षकों, प्रशिक्षकों, एसबीएम स्टाफ/ सहयोगियों और कार्यकर्ताओं को शासन ने सम्मान का एक शब्द भी नहीं दिया। इससे मिशन के लिए मेहनत करने वाले हतोत्साहित हुए हैं।

• विश्व हाथ धुलाई दिवस के आयोजन के लिए स्कूलों को दी गई सामग्री बाल्टी, मग, वॉश स्टैंड, पानी की व्यवस्था के साधन आदि बाद के दिनों में या तो गायब पाए गए या फिर स्कूल प्रबंधन ने ताले में बंद करके रख दिए। यानी प्रदेश में हाथ धुलाई कार्यक्रम एक टिकाऊ परंपरा बनने के बजाय महज रस्म अदायगी बनकर रह गया। सरकार को चाहिए कि वह महज तात्कालिक वाहवाही लेने के लिए अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय पुरस्कार लेने की बदनामी से बचे।

• अनेक स्कूलों में अब भी लड़के-लड़कियों के लिए शौचालय नहीं हैं। जहां हैं, उनमें से कुछ के खिड़की- दरवाजे टूटे हैं, कुछ में ताले पड़े हैं, कुछ का उपयोग शराबी-नशेड़ी व्यसन स्थल के रूप में कर रहे हैं। कई स्कूलों के शौचालय इसलिए उपयोगी नहीं होते, क्योंकि सफाई के लिए उनके पास स्टाफ और राशि उपलब्ध नहीं।

• यह आश्चर्यजनक ही है कि स्वच्छता मिशन की सफलता के लिए सरकार, नीति निर्माण से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और उनके सलाहकार, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन या राष्ट्रीय आजीविका मिशन जैसी प्रक्रियाओं और कोई प्रेरणा नहीं ले रहे, जो अपेक्षाकृत इससे बेहतर परिणाम दे रहे हैं।

गुणवत्तापूर्ण परिणाम के लिए जरूरी है ये पहल-

• स्वच्छता का मतलब केवल शौचालय बन जाना ही नहीं है। इस हेतु शौचालयों का नगर/ गांव के हर परिवार के सदस्यों द्वारा उपयोग, पानी की व्यवस्था, ठोस और गीले कचरे के लिए अलग-अलग कूड़ेदान की व्यवस्था, कचरे का प्रबंधन, नालियों का बनना एवं हर गली की नियमित साफ-सफाई होना भी जरूरी है। जहां ये व्यवस्थाएं मुकम्मल न हों, वहां के स्थानीय निकाय के अमले और समुदाय के लिए दंड का प्रावधान हो। इस हेतु पंचायत राज और नगरीय निकाय अधिनियमों में जरूरी बदलाव करना होंगे।

• सभी स्तर के प्रशासनिक अमले में स्वच्छ भारत मिशन के प्रति प्रतिबद्धता की बेहद कमी है। सरकारी अधिकारी अब भी स्वच्छता के काम को एक रूटीन योजना के काम की तरह ही करते हैं। अत: कार्य प्रदर्शन के आधार पर इस तरह के अमले को हटाने या बनाए रखने अथवा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

• एसबीएम के दिशा-निर्देश जारी हुए एक साल हो गया है, पर मप्र में राज्य, जिला और विकासखंड स्तर पर अब तक अनुकूल और आवश्यक तंत्र विकसित नहीं किया गया। इसमें राज्य, जिला पंचायत और जनपद पंचायत स्तर पर मानव संसाधन सहित मिशन कार्यालयों की स्थापना करना आदि शामिल हैं।

• व्यवहार परिवर्तन हेतु, खासकर महिलाओं में स्वच्छता के महत्व पर आधारित सघन और प्रभावी संचार रणनीति बनाकर लागू की जाए। पंचायत/ गांव स्तर पर जागरूकता हेतु 'पैन इन वैन' जैसे नवीन तरीके के शिविर/ गतिविधियां आयोजित किया जा सकता है।

• विकासखंड और जिला समन्वयकों की दक्षता बढ़ने के लिए समय-समय पर सामुदायिक प्रक्रियाओं को बढावा देने वाले स्थानों/ मॉडल का भ्रमण/ एक्सपोजर कराया जाए। इससे गुणवत्तापूर्ण परिणाम की परिस्थिति बनती है।

• क्षमता वृद्धि/ प्रशिक्षण और अनुश्रवण के लिए राज्य स्तर पर संसाधन समूह अथवा संस्था का गठन हो।

• बेहतर कार्य प्रदर्शन के लिए सीएम कार्यालय, राज्य मिशन कार्यालय, जिला और जनपद स्तर की जल एवं स्वच्छता समितियों द्वारा नियमित निगरानी एवं समीक्षा हो। कलेक्टर द्वारा मिशन के काम की निगरानी के लिए माह में कम से कम एक बार जिले में मिशन के काम की समीक्षा अनिवार्य की जाए।

• पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के साथ पीएचई, स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला एवं बाल विकास विभागों से जुडी परियोजनाओं में अनिवार्य समन्वय सुनिश्चित किया जाए।

• मिशन के काम में थर्ड पार्टी की भूमिका सुनिश्चित हो, इससे गुणवत्तापूर्ण परिणाम हासिल करने में मदद मिलेगी।

• सभी जर्जर और अनुपयोगी शौचालयों को सुधारने में उद्योग जगत और समुदाय को भी आगे आना चाहिए।

• दूरस्थ इलाकों तक शौचालय निर्माण सामग्री की पहुंच और आकस्मिक काम के लिए पंचायत को अनाबद्ध राशि देने का प्रावधान होना चाहिए।

• हितग्राही को प्रोत्साहन राशि के भुगतान की हर स्तर पर समयसीमा तय हो। समय पर भुगतान न होने पर जिम्मेदार के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई हो।

• मिशन का काम अच्छा करने वालों को राज्य, जिला, जनपद और पंचायत स्तर पुरस्कृत और प्रोत्साहित किया जाए।

यदि 2019 तक मप्र को स्वच्छता मिशन के तहत आधी सफलता भी हासिल करना है तो स्वच्छ भारत मिशन के 1 साल पहले जारी दिशा-निर्देशों को मध्यप्रदेश की विशेष परिस्थितियों में तत्काल लागू करना होगा। मगर ये तब ही संभव होगा, जब मुख्यमंत्री चाहेंगे।

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