यद्यपि मानसून इस वर्ष की अपनी भारत-यात्रा पर निकल पड़ा है और उम्मीद जताई जा रही है कि वह निर्धारित समय पर केरल के तट पर दस्तक दे देगा। लेकिन उसके आगमन के इंतजार में व्याकुल हो रहे देश को भीषण गर्मी ने बुरी तरह झुलसा रखा है। वैसे तो हर साल ही मई के महीने में गर्मी अपने पूरे शबाब पर होती है, लेकिन इस बार तो वह कुछ ज्यादा ही कहर बरपा रही है।
पाकिस्तान की तरफ से आ रही गर्म हवा के थपेड़े बर्दाश्त करना लोगों के लिए मुश्किल हो रहा है। यही वजह है कि देश के विभिन्न इलाकों में लोगों के मरने का सिलसिला तेज हो गया है। अब तक 2000 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। न सिर्फ उत्तर भारत के मैदानी इलाके, बल्कि दक्षिण के पठार भी गर्मी से बुरी तरह झुलस रहे हैं। सबसे दर्दनाक खबरें आंध्रप्रदेश और तेलंगाना से आ रही हैं, जहां पिछले कुछ ही दिनों में गर्मी ने तकरीबन 1400 लोगों को मौत की नींद सुला दिया है।
कुछ वर्ष पहले तक इस मौसम में लोग गर्मी से राहत पाने के लिए पहाड़ों की पनाह लेते थे लेकिन अब तो हालत यह है कि पहाड़ भी मैदानी इलाकों की तरह तप रहे हैं। तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते कई हिल स्टेशनों का बुरा हाल है। वैसे मई के महीने में औसत तापमान का 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाना आम बात है, लेकिन इस बार कई जगह तापमान औसत से 5 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है। राजधानी दिल्ली में तो पारा 46 को पार कर चुका है और इलाहाबाद में 48 डिग्री को छू चुका है।
मौसम विभाग बेशक मानसून के नियत समय पर आने को लेकर आश्वस्त है लेकिन साथ ही वह बिना किसी हिचकिचाहट के यह चिंता भी जता रहा है कि लू के थपेड़े अभी कम से कम और एक सप्ताह तक लोगों को परेशान करते रहेंगे। वैसे सवाल बारिश का मौसम शुरू होने को लेकर नहीं है बल्कि यह है कि वह आगे कब तक जारी रहेगा और कहीं दगा देकर समय से पहले तो गायब नहीं हो जाएगा? बहरहाल, बड़ी संख्या में लोगों की मौत के लिए मौसम के खलनायकत्व को जिम्मेदार बताया जा रहा है, क्योंकि मार्च से अप्रैल मध्य तक हुई बेमौसम बारिश और ओलों की बौछार ने सिर्फ फसलों को ही तबाह नहीं किया बल्कि इसकी वजह से काफी समय तक लोगों को भी गर्मी के आने का अहसास नहीं हो पाया।
गर्मी के मौसम में जब पारा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता है तो इंसानी शरीर भी सहज रूप से अपने को उसे बर्दाश्त करने लायक बना लेता है। लेकिन मौसम अगर अचानक गर्म हो जाए तो शरीर को उसके साथ तालमेल बैठाने में दिक्कत आ जाती है और इसका नतीजा बीमारियों में बदलता दिखता है। इस समय यही हो रहा है।
भौगोलिक अवस्थिति के कारण भारतीय उपमहाद्वीप सामान्य तौर पर गर्म क्षेत्र है, लिहाजा यहां लोग गर्मी सहने के अभ्यस्त हैं। मई का दूसरा पखवाड़ा आमतौर पर धूलभरी आंधियों के लिए जाना जाता है। इस दौरान कहीं-कहीं मानसून पूर्व की बौछारें भी पड़ती हैं, मगर इस बार नजारा बदला हुआ है। अभी तो जानलेवा लू के थपेड़े कहर बरपा रहे हैं। इससे पहले 2010 में ऐसी ही गर्मी का प्रकोप देखा गया था, जब अमेरिका और फ्रांस से लेकर चीन तक त्राहि-त्राहि कर उठे थे। उस वर्ष भारत में भी भीषण गर्मी की वजह से 250 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। उसके बरक्स देखें तो इस बार गर्मी कहीं ज्यादा जानलेवा साबित हो रही है। करीब डेढ़ दशक पहले इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने अपने एक अध्ययन के आधार पर बताया था कि देश में गर्मी की वजह से हर साल औसतन 153 लोगों की मौत हो जाती है। इस लिहाज से इस वर्ष हुई मौतों का आंकड़ा बहुत बड़ा और डरावना है। वैसे 2003 में भी आंध्रप्रदेश में भीषण गर्मी के कारण 3000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। शायद यह वर्ष भी भीषण गर्मी वाला ऐसा ही अपवाद वर्ष है।
मौसम विभाग का मानना है कि इन दिनों हवा में नमी बिलकुल नहीं है और नम हवा की तुलना में शुष्क हवा को सूरज बड़ी तेजी से गर्म करता है। यही कारण है कि गर्मी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक इस भीषण गर्मी में कुछ भूमिका प्रशांत महासागर में मौजूद 'अल नीनो' प्रभाव की भी हो सकती है। अल नीनो की मौजूदगी के चलते ही इस वर्ष एक बार फिर कमजोर मानसून की भविष्यवाणी भी की जा रही है।
अल नीनो की वजह से प्रशांत महासागर का पानी सामान्य से ज्यादा गर्म हो जाता है जिससे मानसून के बादलों के बनने और उनके भारत की ओर बढ़ने की गति कमजोर हो जाती है। केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भी आधिकारिक तौर पर माना है कि इस बार फिर मानसून की फुहारों पर अल नीनो का ग्रहण पड़ेगा और बरसात निराश करने वाली होगी। फिलहाल तो प्रशांत महासागर का पानी गर्म होने की वजह से समुद्री हवाओं का एशियाई लैंडमास की ओर रुख करना संभव नहीं हो पा रहा है, लिहाजा जमीन की तपन कम होने का नाम नहीं ले रही है।
जब भी गर्मी इस तरह से बढ़ती है, तो यह भी कहा जाने लगता है कि यह ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीजा है। यह सही है कि मौसम चक्र बदल रहा है, जिसकी वजह से पर्यावरण भी बदल रहा है और ग्लोबल वॉर्मिंग को हमारे युग के एक हकीकत के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है। फिर भी इस बात को अभी शायद पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि हर कुछ साल के अंतराल पर आ जाने वाली भीषण गर्मी या कड़ाके की जानलेवा सर्दी इस ग्लोबल वॉर्मिंग का ही परिणाम है। लेकिन गर्मी की वजह से मरने वालों की बड़ी संख्या यह तो बताती ही है कि हर कुछ साल बाद आने वाली मौसमी आपदा या उसके बिगड़े मिजाज का सामना करने के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं है।
बात सिर्फ भीषण गर्मी की ही नहीं है, उत्तर भारत में कड़ाके की शीतलहर और अनवरत मूसलधार बारिश के चलते आने वाली बाढ़ के शिकार भी ज्यादातर सामाजिक और आर्थिक रूप से निचले क्रम के लोग ही होते हैं। दरअसल, ऐसे लोगों को मौसम नहीं मारता, बल्कि वह गरीबी और लाचारी मारती है, जो उन्हें निहायत प्रतिकूल मौसम में भी बाहर निकलने को मजबूर कर देती है।
हैरानी की बात यह भी है कि हमारे देश में भीषण सर्दी और बाढ़ को तो कुदरत का कहर या प्राकृतिक आपदा माना जाता है, लेकिन झुलसा देने वाली गर्मी को प्राकृतिक आपदा मानने का कोई प्रावधान सरकारी नियम-कायदों में नहीं है। ऐसे में, भीषण गर्मी के बावजूद सरकारों पर लोगों की जान बचाने का कोई दबाव नहीं रहता। वे बस एडवाइजरी जारी कर देती हैं कि लोग इस गर्मी के प्रकोप से बचने के लिए यह करे और वह न करे। ऐसे में गर्मी की मार से अब लोग ज्यादा प्रभावित होने लगे हैं तो इसकी बड़ी वजह हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था और राजनीतिक नेतृत्व की काहिली तो है ही साथ एक अन्य वजह यह है कि मौसम से लड़ने वाला हमारा सामाजिक तंत्र भी अब कमजोर हो गया है।
एक समय था जब सरकार से इतर समाज खुद मौसम की मार से लोगों को बचाने के काम अपने स्तर पर करता था। सामाजिक और पारमार्थिक संस्थाएं लोगों को पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ लगाती थीं या शरबत पिलाने का इंतजाम करती थीं। यही नहीं, पशु-पक्षियों के लिए भी पानी पीने का इंतजाम किया जाता था। सड़कों के किनारे पेड़ भी इसीलिए लगाए जाते थे ताकि राह चलते लोग उन पेड़ों की छांव में कुछ देर सुस्ता सकें। सच कहे तो किसी भी मौसम की अति हमारे भीतर के इंसान को आवाज देती थी, परस्पर एक-दूसरे की चिंता करने के लिए प्रेरित करती थी। लेकिन आर्थिक आपाधापी और विकास के इस नए दौर में परस्पर चिंता और लिहाज का लोप हो गया है और इसीलिए परमार्थ के ये काम भी अब बंद हो गए हैं। अब तो सड़कों से पेड़ भी गायब हो गए हैं और बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना भी मुश्किल है।
पानी को हमारी सरकारों ने लगभग पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया है और बाजार को इससे कोई मतलब नहीं कि गर्मी में पानी राहत या जान बचाने के लिए कितना उपयोगी है। ऐसे में लोगों का लू की चपेट में आना स्वाभाविक है। कहा जा सकता है कि गर्मी के कहर को जानलेवा बनाने के लिए हमारी सरकारों का और हमारे सामाजिक तंत्र का निष्ठुर रवैया जिम्मेदार है।