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देश में आत्महत्या का बढ़ता मर्ज और लापता इलाज

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अनिल जैन

अकाल मौत के कारणों में आत्महत्या ही ऐसा कारण है जिस पर आसानी से नियंत्रण किया जा सकता है। परंतु नवउदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को जिस तरह चोट पहुंचाई है उससे देश में आत्महत्या की बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया है। 
शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब देश के किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्यान्य सामाजिक दुश्वारियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हाल ही में दुनियाभर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। यानी दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा। 
 
इस कड़वी हकीकत के बावजूद गांवों में 26 रुपए और शहरों में 33 रुपए रोज में जीवन यापन करने वालों को गरीब न मानने वाली निष्ठुर भारतीय राज्य व्यवस्था अब अपने लोगों के लिए आत्महत्या की राह और भी आसान करने जा रही है। खबर है कि इस सिलसिले में केंद्र सरकार जल्द ही कानून की किताबों यानी भारतीय दंड विधान (आईपीसी), दंड प्रकिया संहिता (सीआरपीसी), साक्ष्य अधिनियम आदि में संशोधन कर आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर करने पर विचार कर रही है। मौजूदा सरकार की पूर्ववर्ती यूपीए सरकार भी इस दिशा में काम कर रही थी और उसने इस आशय का संकेत कोई तीन वर्ष पूर्व दिल्ली हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के सिलसिले में अपना पक्ष पेश करते हुए दिया था।
 
जनहित याचिका में आईपीसी धारा 309 को खत्म करने की मांग की गई थी। इस धारा के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों सजा एक साथ हो सकती है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि तत्कालीन केंद्र सरकार के इस प्रयास का विभिन्न दलों और गठबंधनों वाली  25 राज्य सरकारों ने भी समर्थन किया था। यानी लोगों के आत्महत्या की राह आसान बनाने के सवाल पर देश में राजनीतिक स्तर पर आम सहमति है। 
 
चूंकि संविधान की समवर्ती सूची के तहत कानून-व्यवस्था का विषय राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है, लिहाजा केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस बारे में सभी राज्य सरकारों से भी राय मांगी थी, जिस पर सिर्फ बिहार, मध्यप्रदेश और सिक्किम ने ही असहमति जताई थी, जबकि जम्मू-कश्मीर ने कहा था कि आईपीसी उसके यहां लागू नहीं होता। आत्महत्या की कोशिश को अपराध न मानने वाली हमारी सरकारों की यह मानसिकता एक तरह से इस बात का सबूत है कि हमारी समूची राजनीति किस कदर निर्मम और जनद्रोही हो चुकी है।
 
दरअसल, हमारे यहां कानून की किताबों में आत्महत्या को अपराध मानने वाली धारा का प्रावधान यह सोचकर रखा गया था कि मनुष्य जीवन अनमोल है और उसे यों ही खत्म करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती है। और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसके लिए राज्य की ओर से कोई दंडात्मक व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उससे सबक लेकर कोई अन्य व्यक्ति इस तरह की आत्महंता कोशिश न कर सके। 
 
डब्ल्यूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012 में भारत में 258075 लोगों ने आत्महत्या की थी। हैरत की बात यह है कि इनमें 1.58 लाख से अधिक पुरुष और एक लाख के करीब महिलाएं थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉड्‌र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के तुलनात्मक आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है। आज भारत मे 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के है। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसद तक बढ़ी है। 
 
देश में प्रांतीय स्तर पर आत्महत्या से जुड़े एनसीआरबी के आंकड़े देखने से पता चलता है कि दक्षिण भारत के केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के साथ ही पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों मे आत्महत्या की कुल घटनाओं का 56.2 फीसदी रिकार्ड किया गया। शेष 43.8 फीसदी घटनाएं 23 राज्यों और सात केंद्र शासित राज्यों में दर्ज हुई। उत्तर भारत के राज्यों पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू कश्मीर मे एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर मात्र पांच फीसदी आंकी गई है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण के राज्यों में आत्महत्या की घटनाएं ज्यादा हुईं।
 
ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ आर्थिक परेशानियों के चलते ही करते हों, अन्य सामाजिक कारणों से भी लोग अपनी जान दे देते हैं। दरअसल, आज इंसान के चारों तरफ भीड़ तो बहुत बढ़ गई है लेकिन इस भीड़ में व्यक्ति बिल्कुल अकेला खड़ा है। परिवार, मित्र, संगी-साथी तथा स्कूल जैसी ताकतवर संस्थाएं तक आत्महत्या के निवारण मे खुद को असहाय महसूस कर रही है। यही कारण है कि आज बच्चों, नौजवानों, छात्रों, नवविवाहित दुल्हनों तथा किसानों की आत्महत्याएं सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा नहीं बन पा रही है। 
 
हैरत की बात यह है कि पारंपरिक रूप से मजबूत तथा परिवार के भावनात्मक ताने-बाने से युक्त भारत जैसे देश में भी खुदकुशी की चाह लोगों में जीवन जीने के अदम्य साहस को कमजोर कर रही है। जबकि भारतीयों के बारे में कहा जाता है कि हर विपरीत से विपरीत स्थितियों में जीवित रहने का हुनर इनके स्वभाव और संस्कार में है और इसी वजह से भारतीय सभ्यता और संस्कृति सदियों से तमाम आघातों को सहते हुए कायम है। स्वाधीनता संग्राम के दौर में डॉ. अल्लामा इकबाल ने तो लिखा भी है- 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी।' सवाल है कि फिर ऐसा क्यो हो रहा है कि दुनिया में अपनी हस्ती मिटाने पर आमादा लोगों में भारतीयों की तादाद सबसे ज्यादा है।
 
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक यह भी एक चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है, यानी जो उम्र उत्साह से लबरेज होने और सपने देखने की होती है उसी उम्र में लोग जीवन से पलायन कर जाते हैं। इस भयानक वास्तविकता की एक बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ दशकों में लोगों की उम्मीदें और अपेक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उसके बरअक्स अवसर उतने नहीं बढ़े। दरअसल, उम्मीदों और यथार्थ के बीच बड़ा फर्क होता है। यही फर्क अक्सर आदमी को घोर अवसाद और निराशा की ओर ले जाता है।
 
भारत में आजादी के बाद, खासकर आर्थिक नब्बे के दशक में उदारवाद की बयार शुरू होने के बाद भौतिक तरक्की तो बहुत हुई है, उपभोक्ता संस्कृति भी तेजी बढ़ी है जिसके चलते विलासिता के साधन भी इफरात में हर तरफ मौजूद हैं, लेकिन समाज का एक बड़ा तबका इन सबसे वंचित है। देश में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में एक लाख लोगों पर 2.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। यही वह दौर रहा है जब हमारे देश ने पंरपरागत मिश्रित अर्थव्यवस्था को अलविदा कहते हुए पूरी तरह बाजारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया। इसी दौर में हमारी सरकारों ने शाइनिंग इंडिया और भारत निर्माण जैसे कार्यक्रमों के जरिए देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश करते हुए दावे किए कि भारत जल्द ही आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है। और इसी दौर में देश के मुख्तलिफ हिस्सों में सूखे की मार तथा कर्ज के बोझ से दबे लाखों किसानों के आत्महत्या करने का सिलसिला भी शुरू हुआ। महाराष्ट्र के विदर्भ और उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड तो इस मामले कुख्याति अर्जित कर चुके हैं।
 
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि देश के आईआईटी व आईआईएम जैसे तकनीकी व प्रबंधन के उच्च शिक्षण संस्थानों तक में छात्रो के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह स्थिति हमारी शासन व्यवस्था के साथ-साथ हमारी समाज व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है और हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर परस्पर प्रेम, स्नेह, संवाद पर आधारित हमारे पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों, आदर्शों और नैतिकता का हमारे जीवन से क्रमशः लोप क्यों होता जा रहा है? आमतौर पर बच्चों, युवाओं, महिलाओं और किसानों के बीच बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं के लिए परीक्षाओं का तनाव व दबाव, प्रेम में नाकामी, दहेज-लोलुपता, गरीबी, बेरोजगारी, नशे की लत जैसे कारकों को जिम्मेदार माना जाता है। लेकिन ऐसी दशाएं तो कमोबेश प्रत्येक देश-काल में मौजूद रही हैं। परंतु पहले लोग इतनी बड़ी तादाद में और इतनी जल्दी जीवन से हार मानकर मौत को गले नहीं लगाते थे।
 
दरअसल, आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति विशुद्ध रूप से एक समाजशास्त्रीय परिघटना है। आज व्यक्ति अपने जीवन की तल्ख सचाइयों से मुंह चुरा रहा है और अपने को हताशा और असंतोष से भर रहा है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। यह हैरान करने वाली बात है कि भारत जैसे धार्मिक और आध्यात्मिक स्र्झान वाले देश में कुल आबादी के लगभग एक तिहाई लोग गंभीर रूप से हताशा की स्थिति में जी रहे हैं लेकिन डब्ल्यूएचओ का अध्ययन तो यही हकीकत बयान करता है। कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि देश के लगभग साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसदी लोग अवसाद के शिकार हैं।
 
बहरहाल, बेहतर तो यह होगा कि सरकार लोगों को आत्महत्या करने के लिए आजाद करने के बजाय आदमी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की गहराई से पड़ताल करे और अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी के तौर पर ऐसे उपाय करे कि लोग अपनी जीवनलीला समाप्त करने का विचार ही दिमाग में न लाए। यहां यह हकीकत भी नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे समाज में ऐसे शातिर अपराधियों की कमी नहीं है जो यह जानते हैं कि किसी सुनियोजित हत्या को कैसे आत्महत्या का रूप दिया जाए।
 

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