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विश्व की वर्तमान अस्थिर स्थिति पर एक नज़र

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शरद सिंगी

शायद यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज विश्व की स्थिति एक ऐसे जहाज की भांति हो गई है जिसका कोई सर्वमान्य कप्तान नहीं है अर्थात वह नेतृत्वविहीन हो चुका है। यह जहाज जगह जगह से जीर्ण-शीर्ण हो चुका है जिसकी न तो किसी को मरम्मत की चिंता है और न ही दिशा की। एक ओर तो  यह अपनी वर्षों पुरानी समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ है और ऊपर से निरंतर नई समस्याओं का बोझ बढ़ता जा रहा है। आज कोई देश या नेता इतना सक्षम नहीं जो इन विपरीत परिस्थितियों में इस दिशाविहीन जहाज को अपना नेतृत्व दे सके। 
जिन सक्षम देशों और उनके नेताओं  की ओर विश्व का आम नागरिक आशा से देखता है उन पर हम पहले नज़र डालते हैं। इस सूचि में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा सर्वप्रथम हैं। किन्तु वर्तमान में वे स्वयं अपने ही राष्ट्र को एक सक्षम नेतृत्व देने में असफल होते दिख रहे हैं। यूरोपीय संघ और रूस ने यूक्रेन को लेकर आपस में मोर्चा खोल रखा है। इस प्रकरण में रुसी राष्ट्रपति विश्व मंच पर अलग-थलग पड़ चुके हैं। चीन के दोस्त कम, दुश्मन ज्यादा हैं। जापान सहित हर पड़ोसी देश के साथ चीन के सीमा विवाद हैं अतः चीन के नेतृत्व में सर्वसम्मति का कोई प्रश्न नहीं। जापान ने अपने देश में आधिकारिक तौर पर मंदी की शुरुवात की घोषणा कर दी है। हालात की गंभीरता को देखते हुए जापान के राष्ट्रपति अबे ने  अपने कार्यकाल पूरा होने के दो वर्ष पूर्व ही संसद भंग चुनावों की घोषणा कर दी है। राष्ट्रपति अबे ने अपने आर्थिक सुधारों को लेकर जनता के बीच पुनः जाने का निर्णय कर लिया है। ऐसे में जापान से फिलहाल कोई उम्मीद नहीं है। अन्य महाशक्तियों में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री कैमरन और फ्रांस के प्रधानमंत्री फ्रांसवा होलांदे अपने ही देश में विभिन्न कारणों से अलोकप्रिय हो चुके हैं। यूरोप के अन्य देश वित्तीय संकट से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।  
 
अब विकासशील देशों की बात करें। मध्यपूर्व के इस्लामिक देश किसी भी समस्या की जड़ में अमेरिका का हाथ बताते हैं। यदि अमेरिका किसी समस्या को लेकर सक्रिय है तो उसमे उन्हें अमेरिका का हित दिखता है और यदि निष्क्रिय है तब भी  उसमे उन्हें अमेरिका का हित नज़र आता है।  ऐसी परिस्थिति में विश्व के प्रति उनकी अपनी कोई सोच या जिम्मेदारी नहीं रह जाती। अफ्रीकी देश तो यदि समस्याओं को न बढ़ाएँ तो उनका वही एक बड़ा योगदान होगा। एक अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्था दक्षिण कोरिया है किन्तु वह उत्तरी कोरिया की शैतानियों की वजह से विवश है। दक्षिण अमेरिका के  प्रमुख देशों में ब्राज़ील और अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्थाएं संकट में हैं। अतः इस समय विश्व में एक भारत को छोड़कर विश्व की समस्याओं के समाधान में किसको रूचि हो सकती है?  
 
कुछ नई चुनौतियाँ जो हाल ही के महीनों में जुड़ी हैं उनमे से प्रमुख है नए आतंकवादी गुट दाहेश (ईसिस) का मध्यपूर्व में अचानक शक्तिशाली हो जाना। कई देशों में यह आतंकवादी संगठन एक साथ सक्रिय हुआ तथा चिंता की बात है यह है कि यह संगठन खासकर पश्चिमी देशों के नवयुवकों को आकर्षित करने में सफल हो रहा है। 
 
दूसरी ओर वैश्विक अर्थव्यवस्था स्थिर होने से पूर्व ही फिर से लुढ़कने लगी है। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री कैमरून ने विश्व को चेतावनी देते हुए कहा है कि वर्तमान सारे संकेत विश्व में आने वाले वित्तीय संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। सबसे बड़ा संकेत कच्चे तेल के भावों में निरंतर गिरावट है। पिछले 6 माहों में  तेल  की कीमत 30 प्रतिशत तक गिर चुकी है। पूरा यूरोप मंदी की मार झेल रहा है और फ्रांस, स्पेन, ग्रीस, इटली आदि की सरकारें वित्तीय दबाव में हैं।  परन्तु इन संकेतों को कोई राष्ट्र गंभीरता से लेने को तैयार नहीं।  
 
उधर अफ्रीकी देशों में इबोला नामक बिमारी ने सर उठा रखा है। इस खतरनाक बीमारी को फैलने से रोकने के लिए अनमने प्रयास जारी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनियों के बावजूद रोकथाम के लिए अभी तक किसी बड़े प्रयास की शुरुआत नहीं हुई।  
 
जाहिर है वर्तमान परिस्थितियों में कोई एक देश या नेता विश्व को नेतृत्व देने में सक्षम नहीं है।  विश्व को सामूहिक नेतृत्व की दरकार है। संयुक्त राष्ट्र संघ का उद्देश्य तो यही था किन्तु यह संस्था पंगु हो चुकी हैं क्योकि निर्णय लेने का अधिकार कुछ महाशक्तियों ने अपने तक सीमित रखा है। ये ऐसे राष्ट्र हैं जिनकी आपस में ही नहीं बनती तो वे विश्वहित के बारे में कैसे निर्णय ले सकते हैं? यदि निर्णय कर भी लें तो लागू नहीं कर सकते।  उदाहरण के लिए ईरान पर लगाए प्रतिबन्ध यदि रूस को मंजूर नहीं तो रूस को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 
 
सच तो यह है कि  वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्न भी सामूहिक चाहिए। सामूहिक प्रयत्नों में प्रत्येक खिलाड़ी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। मतलब साफ़ है कि भले ही देश छोटे हों, गरीब हों किन्तु समस्याओं के हल में उनकी भूमिका को महत्व देना होगा अर्थात महाशक्तियों को उनके लिए स्थान छोड़ना होगा तब तो हम इस विश्व को उज्जवल भविष्य की ओर जाता देख सकेंगे अन्यथा यह विश्व कुछ महाशक्तियों की आपसी रस्साकशी में समस्याओं का विस्तार ही देखेगा। विश्व के अग्रणी नेताओं को जितनी जल्दी यह बात समझ में आ जाये उतना ही श्रेयस्कर होगा।   

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