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क्यों अग्रसर हैं महाशक्तियां फिर से विनाश की ओर?

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शरद सिंगी

पिछली सदी के मध्य यानी सन् 1947 से सन् 1991 तक दुनिया के राष्ट्र दो गुटों में विभाजित रहे। एक तरफ अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी लोकतांत्रिक देशों का गुट था तो दूसरी तरफ सोवियत संघ और उसके सहयोगी साम्यवादी देशों का गुट। यह शीतयुद्ध का काल माना जाता है, क्योंकि इन गुटों में कभी आमने-सामने की लड़ाई नहीं हुई किंतु परोक्ष रूप से कई युद्धों में ये गुट विरोधी पक्षों को समर्थन देते रहे। इस काल में विश्व के राष्ट्र दो गुटों में बंटकर एक-दूसरे के सामने भृकुटियां ताने खड़े थे और कई राष्ट्र दो महाशक्तियों की आपसी जोरावरी में मोहरा बने बैठे थे। परमाणु अस्त्र बनाने की होड़ मची थी और इनके अम्बार खड़े कर लिए गए थे। उसी काल में भारत, मिस्र, इंडोनेशिया आदि देशों ने गुटनिरपेक्ष देशों का एक संगठन खड़ा करने की कोशिश तो की किंतु यह संगठन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष प्रभावी नहीं हो पाया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का एक संस्थापक सदस्य होने के बावजूद भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर बना रहा। 
 
यहां यह उल्लेखनीय है कि शीतयुद्ध की स्थिति को समाप्त करने का श्रेय सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को जाता है जिन्होंने परिणामों की परवाह न करते हुए अपनी दो प्रमुख नीतियां 'पेरेस्त्रोइका' (राजनीतिक सुधार) और 'ग्लासनोस्त' (नीतियों में पारदर्शिता) लागू कीं। सोवियत संघ की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुए और परिणामस्वरूप सोवियत संघ का विघटन हुआ। पश्चिमी राष्ट्रों से रूस के संबंधों में सुधार हुआ। गोर्बाचेव द्वारा उठाए गए लोकतांत्रिक कदमों को विश्व में सराहना मिली तथा उनके प्रयासों से 40 वर्षों से ज्यादा शीतयुद्ध की भेंट चढ़ी पृथ्वी पर सामान्य स्थिति बहाल हुई इसलिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। वही व्यक्ति आज चेतावनी दे रहा है उस अंधेरे युग की वापसी की।
 
इतना ही नहीं, शीतयुद्ध काल में अमेरिका के कूटनीतिक पंडित तथा नोबेल पुरस्कार विजेता 91 वर्षीय हेनरी किसिंजर भी यही चेतावनी दे रहे हैं। किसिंजर ने अमेरिकी सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश सचिव की हैसियत से अपनी सेवाएं दीं। इनकी मान्यता इतनी थी कि रिटायर होने के बाद भी इनकी सलाह आगे भी कई अमेरिकी राष्ट्रपति और दुनिया के राजनेता लेते रहे। वह व्यक्ति भी आज शीतयुद्ध के दौर की वापसी की बात कर रहा है। आखिर विश्व के इतने बड़े महारथियों को ऐसी चेतावनी देने की जरूरत क्यों पड़ी? 
 
ये दोनों नेता यूक्रेन को लेकर विश्व में हो रही रस्साकशी को लेकर चिंतित हैं। उनके अनुसार विश्व एक बार फिर शीतयुद्ध के मुहाने पर खड़ा हो चुका है। गोर्बाचेव पूछते हैं कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की सोच को क्या हो गया है? अमेरिका तो घने जंगलों में खो गया है और वह हम सबको भी उसी जंगल की ओर खींच रहा है। यह शीतयुद्ध कहीं ऊष्ण युद्ध में न बदल जाए यही उनकी चिंता है, क्योंकि रूस के पास विकल्प नहीं छोड़े जा रहे हैं और ऐसे में शायद वह युद्ध की जोखिम भी ले ले। उधर हेनरी किसिंजर भी यही कह रहे हैं कि दुनिया को समझना चाहिए कि रूस, मॉस्को से मात्र 300 मील दूरी पर यूक्रेन को अपने प्रतिद्वंद्वियों के हाथों में नहीं छोड़ सकता, क्योंकि यह रूस की सुरक्षा का प्रश्न है लेकिन कुछ लोग अपनी जिद में आकर दुनिया को पुनः युद्ध के मार्ग पर धकेल रहे हैं। 
 
यूक्रेन को यूरोपीय देशों ने सिद्धांत का प्रश्न बना लिया है और रूस को यूक्रेन से खदेड़ने के लिए उस पर अधिक से अधिक आर्थिक प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि आप किसी पहलवान को रिंग के बाहर करने की कोशिश करोगे तो वह अपनी पूरी शक्ति से प्रतिआक्रमण करेगा। गोर्बाचेव को यही खतरा सामने नजर आ रहा है। रूस पर इतना दबाव भी न हो कि वह अपनी सहनशक्ति खो दे और उलटवार करने को मजबूर हो जाए। यदि ऐसा होता है तो दुनिया का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। आश्चर्य तो यह है कि यूरोप के छोटे-छोटे राष्ट्र भी रूस को बोतल में बंद करने की बात कर रहे हैं। 
 
जिस त्रास को दुनिया ने लगभग आधी शताब्दी तक झेला उस त्रास में लौटने के लिए इतनी बैचैनी क्यों? दुखद बात यह है कि अपने अहम में अंधे, अपनी शक्ति में संवेदनहीन और अपनी उपलब्धियों में मदहोश राष्ट्रों को इस दुनिया में आईना देखने के लिए समय नहीं है। किसिंजर के शब्दों में, 'सिद्धांतों पर अडिग रहना अच्छी बात है किंतु सिद्धांतों पर चलने के लिए अपने आपको जीवित रखना भी तो जरूरी है। इस समय दुनिया आतंकवाद से जूझ रही है और विश्व में एकता की दरकार है।' यदि विश्व के नेता इतनी आसान-सी चीज को समझ लें तो इन अनुभवी नेताओं की सलाह व्यर्थ नहीं जाएगी। एक शांतिप्रिय विकासधर्मी प्रजातंत्र के नागरिक की हैसियत से हम तो यही कामना करते हैं कि भौतिक संपन्नता के इस युग में विनाश के खतरों को जितना गहरे और जितना जल्दी दफन कर दिया जाए उतना ही श्रेयस्कर होगा। 
 

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