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क्‍यूँ अलग हैं टाटा सबसे

बदलते पूँजीवादी पैमानों के बरक्‍स जेआरडी और टाटा कंपनी

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jitendra

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जे. आर. डी. टाटा के बारे में बहुत-सी कहानियाँ सुनाई जाती हैं। मुंबई में फ्लोरा फाउंटेन के पास दलाल स्‍ट्रीट पर टाटा हाउस है, मुंबई में टाटा का हेड ऑफिस। पुरानी गॉथिक शैली में बनी इस इमारत में भव्‍यता तो है, लेकिन एक किस्‍म की सादगी भी।

टाटा हाउस के बाहर अक्‍सर रतन टाटा को बहुत साधारण कपड़ों में सड़क पर यूँ ही आते-जाते देखा जा सकता है।

जे. आर. डी. का जिक्र आने पर कुछ साल पहले वहाँ काम करने वाले एक कर्मचारी ने उन्‍हें कुछ इन शब्‍दों में याद किया, ‘जब जे. आर. डी. आते और उस समय अगर लिफ्ट की लाइन लगी होती तो खुद पहले जाने के बजाय वे खुद भी लाइन में लग जाते थे। हालाँकि लोग उनसे पहले जाने का आग्रह करते, लेकिन वे मना कर देते, चाहे उन्‍हें कितनी भी जल्‍दी क्‍यों न हो। अगर उनके आगे कोई चपरासी भी खड़ा हो तो भी वे उसके पीछे खड़े होते और अपना नं. आने पर ही जाते थे’ सड़क पर वडा पाव और फलों का ठेला लगाने वालों के लिए भी जे. आर. डी. उतने ही सहज रूप से दिखने और मिलने वाली चीज थे

इसके ठीक उलट एकता कपूर के बालाजी टेलीफिल्‍म्‍स के
  ‘जब जे. आर. डी. आते और उस समय अगर लिफ्ट की लाइन लगी होती तो खुद पहले जाने के बजाय वे खुद भी लाइन में लग जाते थे। हालाँकि लोग उनसे पहले जाने का आग्रह करते, लेकिन वे मना कर देते, चाहे उन्‍हें कितनी भी जल्‍दी क्‍यों न हो। अगर उनके आगे कोई चपरासी भी खड़ा      
ऑफिस में दो लिफ्ट लगी हैं, एक मालिकों के लिए और दूसरी उसके कर्मचारियों के लिए। हर चीज में नौकर का मालिक फर्क महसूस किया जा सकता है। एक विभाजन रेखा है, दोनों के बीच, जिसे तोड़कर न एकता इधर आती हैं और न इधर का कोई व्‍यक्ति उस तरफ जाने का साहस कर सकता है। बालाजी टेलीफिल्‍म्‍स में काम कर रहा रह व्‍यक्ति किसी सजायाफ्ता की तरह नजर आता है, जबकि टाटा हाउस के असपास की फिजा में भी एक सहजता और खुशनुमा रंगत है। ऐसी विभाजन रेखा नहीं है, जो हर समय नौकर और मालिक का फर्क बताती है।

जे. आर. डी. जैसे कद के किसी व्‍यक्ति के बारे में इस तरह की कहानियाँ हो सकती हैं, लेकिन आम कहानियों और टाटा परिवार से जुड़े लोगों के बारे में इन बातों में एक बारीक फर्क है। इस फर्क पर ही उंगली रखे जाने की जरूरत है।

पिछले कुछ वर्षों में भारत का आर्थिक परिदृश्‍य बहुत तेजी के साथ बदला है। जहाँ सफल होना जीतने की एकमात्र कसौटी है। सफलता के रास्‍तों से कोई सरोकार नहीं। जीतना है और शीर्ष पर पहुँचना है, फिर चाहे शीर्ष पर पहुँचने का रास्‍ता कहीं से भी होकर क्‍यों न गुजरता हो। इस देश में पूँजीवाद पहले भी था, नेहरू की समाजवादी आकांक्षाओं के दौर में भी। लेकिन यह मुक्‍त बाजार, उदारीकरण और साम्राज्‍यवाद की लूट विगत कुछ वर्षों की बात है।

इस लुटेरे मुक्‍त बाजार के दौर में जो नए खिलाड़ी जीतने के लिए बाजार में आ रहे हैं, उनके मकसद और उनके तरीके पुराने लोगों से भिन्‍न हैं। यही एक बारीक फर्क है, टाटा और नए रईसों में, पूँजीवाद के नए खिलाडि़यों में

  पिछले कुछ वर्षों में भारत का आर्थिक परिदृश्‍य बहुत तेजी के साथ बदला है। जहाँ सफल होना जीतने की एकमात्र कसौटी है। सफलता के रास्‍तों से कोई सरोकार नहीं। जीतना है और शीर्ष पर पहुँचना है, फिर चाहे शीर्ष पर पहुँचने का रास्‍ता कहीं से भी होकर क्‍यों न गुजर      
पूँजी के तमाम दाँव-पेंचों के बावजूद एक कंपनी अपनी गरिमा बनाए रखती है। उसे आगे बढ़ना है, लेकिन वह उस गलाकाट प्रतिस्‍पर्द्धा से संचालित नहीं है। एक कंपनी, जिसके निर्माण और संचालन में पैसे की भूमिका है, लेकिन वह अपना एकछत्र साम्राज्‍य स्‍थापित करने के उद्देश्‍य से नहीं की जा रही है।

कहने का आशय यह है कि एक पिछड़े, सामंती समाज से जब कोई ऊपर उठकर पूँजीवाद का हिस्‍सा बनता है तो वह स्‍वस्‍थ अर्थों में पूँजीवादी भी नहीं होता। वह बाजार के तमाम तिकड़मी जालों का हिस्‍सा होता है, उसके निकृष्‍ट गलाकाट नियमों से संचालित।

टाटा को अपनी सामाजिक छवि बनाने के लिए किसी गुरु फिल्‍म की जरूरत नहीं है। उनका काम ही उनकी पहचान है, बिल्‍कुल वैसे ही जैसे हिंदी फिल्‍मों में आमिर खान, जिसे पार्टियों में नाचने, अवॉर्ड समारोह में जाने तेल से लेकर जूता तक हर कुछ बेचने की जरूरत नहीं। जिसमें एक आत्‍मविश्‍वास और गहराई है। जो भीतर से डरा हुआ और असुरक्षित नहीं है और बाजार के हाथों की कठपुतली नहीं

इंडियन एयरलाइंस की 40 मंजिला ऊँची इमारत जे. आर. डी. के स्‍वप्‍नदर्शी मस्तिष्‍क और दूरदर्शिता का ही परिणाम है। टाटा कंपनी आज भी अपने कर्मचारियों के साथ एक किस्‍म का सौहार्द्र और सदाशयता बरतती है। मुंबई में जहाँगीर आर्ट गैलरी और टाटा थिएटर, नैश्‍नल काउंसिल ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट जे. आर. डी. की ही देन हैं, जहाँ साहित्‍य, कला, नाटक और संगीत सीमित अर्थों में ही सही, जीवित है।
  टाटा को अपनी सामाजिक छवि बनाने के लिए किसी गुरु फिल्‍म की जरूरत नहीं है। उनका काम ही उनकी पहचान है, बिल्‍कुल वैसे ही जैसे हिंदी फिल्‍मों में आमिर खान, जिसे पार्टियों में नाचने, अवॉर्ड समारोह में जाने तेल से लेकर जूता तक हर कुछ बेचने की जरूरत नहीं।      


तेजी से बदलते बाजार में भी कोई अपनी जमीन, अपनी जड़ों से उखड़ा नहीं है। फिल्‍में बनाकर अपनी छवि नहीं सुधार रहा। उसके कामों की अर्थवत्‍ता ही उसकी पहचान हैं। इन्‍हीं अर्थों में सबसे अलग हैं टाटा।

(जे. आर. डी. टाटा का फोटो विकिपिडिया से साभार)

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