डिजिटल तकनीक ने फोटोग्राफी की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया है। फोटोग्राफी को उसने इतना सरल, सुलभ और स्वचालित बना दिया है कि कैमरा हाथ में लेते ही हर कोई अपने आप को फोटोग्राफर कह सकता है।
अधिकतर तो कैमरे का बटन दबाना ही मनपसंद फोटो या वीडियो को उस के मेमोरी कार्ड में कैद कर लेने के लिए काफी है। लेकिन, साथ ही यह भी देखने में आ रहा है कि डिजिटल कैमरों में इतनी सारी सुविधाएँ होती हैं, फोटो या वीडियो को सुंदर, सुरुचिपूर्ण और दोषमुक्त बनाने के इतने सारे पैरामीटर (प्राचल) होते हैं कि साधारण व्यक्ति फोटो लेते समय उन सबका ध्यान ही नहीं रख पाता।
यदि इन सारी सुविधाओं का उपयोग किया जा सके, तो डिजिटल कैमरों से इस बीच ऐसे-ऐसे चित्र पाए जा सकते हैं, जो सामान्यत: फोटोग्राफर के केवल दिमाग़ में ही बन सकते हैं। रचनात्मकता की लगभग कोई सीमा नहीं है। इन दिमागी तस्वीरों में छिपे विशेष प्रभावों (इफेक्ट्स) को रूपाकार देने के लिए पहले जहाँ किसी अच्छे व महँगे कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की जरूरत पड़ती थी, वहीं आज यह काम कैमरे में लगे उसके अपने सॉफ्टवेयर की मदद से ही हो जाता है। मछली की आँख जैसे फिश-आई प्रभाव, किसी एक ही रंग वाले मोनोक्रोम प्रभाव या पॉप-आर्ट प्रभाव के लिए कैमरा अकेले ही काफी है। यहाँ तक कि आड़ी-तिरछी तस्वीरों को भी कैमरा स्वयं ही सीधा कर लेता है।
इनसे आगे बढ़कर यदि फोटो या वीडियो को व्यावसायिक अथवा कलात्मक बनाना है, वास्तविकता के साथ कल्पना को भी पिरोना है या उसे त्रि-आयामी (3D) रूप देना है, तो इसके लिए कंप्यूटरजन्य छविकरण (कंप्यूटर जनरेटेड इमेजिंग--CGI) का सहारा लेना होगा। सीजीआई वैसे शौकिया फोटोग्राफरों के बदले व्यावसायिक फोटोग्राफरों के लिए कहीं अधिक उपयुक्त है, हालाँकि समय के साथ उसके भी अधिकाधिक प्रयोजन (एप्लीकेशन) शौकिया फोटोग्राफरों की भी समझ और सामर्थ्य के भीतर आते जाएँगे।
सीआईजी मूलत: कंप्यूटर ग्राफिक के ऐसे सॉफ्टवेयर प्रोग्राम हैं, जो सिनेमा और टेलीविजन के लिए 3D, कार्टून या एनिमेशन फिल्में बनाने, कल्पना को वास्तिकता में बदलने या बहुत जटिल किस्म के प्रभाव पैदा करने के काम आते हैं। शौकिया फोटोग्राफरों के लिए फिलहाल वे सॉफ्टवेयर दिलचस्प हो सकते हैं, जो विविध प्रकार के चित्रों के मेल से कोलाज बनाने या किसी चित्र को पच्चीकारी (मोजाइक) जैसा रूप देने या इसी तरह के अन्य उपयोगों के काम आते हैं।
कंप्यूटरजनित छविनिर्माण का सबसे पहला उदाहरण थी 1973 में आयी साइंस फिक्शन फिल्म 'वेस्टवर्ल्ड'। 1977 में आई इसी तरह की एक और पहली फिल्म स्टारवॉर्स भी काफी प्रसिद्ध हुई थी। उन दिनों कंप्यूटरजनित छविकरण (सीआईजी) अमेरिकी विश्वविद्यालयों और कंप्यूटर प्रयोगशालाओं तक ही सीमित हुआ करता था। जिसने 1993 में आई फिल्म 'जुरासिक पार्क' के डायनासरों को देखा है, वे भलीभाँति कल्पना कर सकते हैं कि कंप्यूटरजनित फिल्में कितनी रोमांचक हो सकती हैं।
इन दिनों जो 3D फिल्में बन रही हैं या ब्लू-रे डिस्क पर उपलब्ध हैं, वे भी सीजीआई तकनीक की बढ़ती हुई लोकप्रियता को सिद्ध करती हैं। कोलोन के फोटोकीना मेले के दौरान सुनने में आया कि जिस तरह, भारत में कुछ साल पहले पुरानी 'मुग़ल-ए-आजम' फिल्म का कंप्यूटर की सहायता से रंगीन संस्करण बना था, उसी तरह कुछ ही वर्षों के भीतर ऐसे तेज कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर भी बन जाएँगे, जिनकी मदद से अब तक की द्वि-आयामी (2D) फिल्मों के त्रि-आयामी (3D) संस्करण बनाना संभव हो जाएगा। संभव है कि उनका कोई नया संस्करण बनाए बिना भी टेलीविजन पर उन्हें त्रि-आयामी रूप में बदल कर देखना-दिखाना संभव हो जाए।
कल्पना कीजिए कि उन पुरानी रंगीन फिल्मों को अगली बार सिनेमाघर में नहीं सीधे अपने घर के टेलीविजन पर 3D में देखना कितना अद्भुत होगा, जिन्हें अब तक हम केवल 2D में देखा करते थे!