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सिद्धि विनायक व्रत

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यह व्रत भी भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को ही किया जाता है। इसी दिन दोपहर में गणेशजी का जन्म हुआ था। अतः श्रद्धालुजन इसे गणेशोत्सव या गणेश जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। इसमें मध्यव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि यह दो दिन हो या दोनों दिन न हो तो मातृ विद्धा प्रशस्ते के अनुसार पूर्वविद्धा लेनी चाहिए। इस दिन रविवार या मंगलवार हो तो यह महाचतुर्थी हो जाती है।
 
वैसे तो प्रत्येक मास की कृष्ण चतुर्थी को गणेश व्रत होता है। फिर भी माघ, श्रावण, भाद्रपद तथा मार्गशीर्ष में इस व्रत का विशेष माहात्म्य है।
 
* इस दिन प्रातःकाल सफेद तिलों से बने उबटन से स्नान करें।
* पश्चात दोपहर को गणेश-पूजन के समय इस मंत्र का जाप करें-
 
एकदन्तं सूर्पकर्णं गजवक्त्रं चतुर्भुजम्‌।
पाशांकुशधर देव ध्यायेत्सिद्धिविनायकम्‌॥
 
* तत्पश्चात आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, पंचामृत, स्नान, शुद्धोदक स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, सिंदूर, आभूषण, दूर्वा, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य, पानादि से विधिवत पूजन करके दो लाल वस्त्रों का दान करना चाहिए।
 
* पूजन के समय घी से बने 21 लड्डू गणेशजी के पास रखकर पूजन समाप्त करें। इसमें से दस अपने पास रखकर शेष गणेश मूर्ति एवं दक्षिणा सहित किसी ब्राह्मण को भोजन कराने के उपरान्त दान कर देने चाहिए।
 
कपर्दि विनायक व्रत: कपर्दि विनायक व्रत श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तक किया जाता है। जो मनुष्य एक मास तक एक समय भोजन करके कपर्दि गणेश का व्रत करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस व्रत में भी पूजा की विधि गणेश चतुर्थी के व्रत जैसी है किन्तु पूजा के बाद 28 मुट्ठी चावल और कुछ मिठाई ब्रह्मचारी को देने का विधान है।

व्रतकथा: एक बार भगवान शिव तथा पार्वतीजी चौपड़ खेल रहे थे। पार्वती ने खेल-खेल में भगवान शिव की सारी वस्तुएँ जीत लीं। शिवजी ने जीती हुई वस्तुओं में से केवल गजचर्म वापस माँगा। परन्तु पार्वतीजी ने देने से इंकार कर दिया। इस पर महादेवजी ने क्रुद्ध होकर कहा- अब मैं 29 दिन तक तुमसे नहीं बोलूंगा। यह कहकर महादेव अन्यत्र चले गए।
 
पार्वतीजी उन्हें ढूंढती-ढूंढती एक घनघोर वन में जा पहुँचीं। वहाँ उन्होंने कुछ स्त्रियों को किसी व्रत का पूजन करते देखा। यह कदर्पि विनायक व्रत था। पार्वतीजी ने भी उन्हीं स्त्रियों के अनुसार यह व्रत करना आरंभ कर दिया।
 
अभी उन्होंने एक ही व्रत किया था कि शिवजी उसी स्थान पर प्रकट हो गए और पार्वतीजी से पूछा- तुमने ऐसा क्या विलक्षण उपाय किया, जिससे मेरा तुम्हारी ओर से उदासीन रहने का निश्चय भंग हो गया?
 
तब पार्वतीजी ने कपर्दि विनायक व्रत का विधान शिवजी को बता दिया। तत्पश्चात शिवजी ने विष्णु को, विष्णु ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने इंद्र को तथा इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को यह व्रत बताया। राजा विक्रमादित्य ने इसका वर्णन अपनी रानी से किया। रानी ने राजा की बात पर विश्वास तो किया नहीं, उलटे निंदा की। इस कारण वे कोढ़ग्रस्त हो गईं। राजा ने तत्काल रानी को कहीं अन्यत्र चले जाने का आदेश दे दिया ताकि उनका राज्य इस भयंकर रोग की चपेट में न आने पाए।
 
रानी ने महल छोड़ दिया और ऋषियों के आश्रम में जाकर उनकी सेवा करने लगीं। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर मुनियों ने बताया कि तुमने कपर्दि विनायक का अपमान किया है। इसलिए जब तक तुम गणेशजी का पूजन-व्रत नहीं करोगी, तब तक स्वस्थ नहीं हो पाओगी।
 
तब रानी ने गणेश पूजन व्रत आरंभ किया। गणेशजी की उन पर ऐसी कृपा हुई कि एक मास पूरा होते-होते ही रानी स्वस्थ हो गईं। इसके बावजूद वे लौटकर राजधानी नहीं गईं और आश्रम में ही रहती रहीं।
 
एक बार पार्वतीजी नंदी पर सवार होकर शिवजी के साथ उस वन से गुजरीं। मार्ग में एक दुःखी ब्राह्मण को देखकर पार्वतीजी ने पूछा- हे ब्राह्मण! आप किसलिए इतना विलाप कर रहे हैं? ब्राह्मण ने उत्तर दिया- यह सब दरिद्रता की ही कृपा का फल है।
 
दयालु पार्वती ने ब्राह्मण को राजा विक्रमादित्य के राज्य में चले जाने का आदेश दिया और कहा-वहाँ किसी वैश्य से पूजन की सामग्री लेकर कपर्दि विनायक व्रत और पूजन करो। तुम्हारी दरिद्रता नष्ट हो जाएगी। ब्राह्मण ने वैसा ही किया। परिणामस्वरूप एक दिन वह विक्रमादित्य के राज्य में मंत्री हो गया।
 
उधर संयोगवश एक दिन राजा विक्रमादित्य उसी आश्रम की ओर आ निकले, जहाँ उनकी पत्नी देश निकाला दिए जाने के बाद से रह रही थीं और कदर्पि विनायक की कृपा से अब भली-चंगी हो गई थीं। रानी को स्वस्थ तथा निरोग देखकर राजा विक्रमादित्य की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। वे रानी को लेकर महल में चले गए। साधक को चाहिए कि व्रत के एक मास में इस कथा को कम से कम पाँच बार अवश्य सुने।

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