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कैसे पूरा होगा मोदी का अश्वमेध?

चुनाव चिंतन : मसीहा की तलाश में भटकता हिंदुस्तान

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जयदीप कर्णिक

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सोलहवीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनावों में मोदी और उनकी महत्वाकांक्षा इस कदर हावी है कि गोया ये सारा चुनाव ही मोदी के होने या ना होने के लिए हो रहा है। उनसे जुड़ी हर अच्छी या बुरी ख़बर ने मीडिया में अधिकांश जगह घेर रखी है। यहाँ तक कि जो अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक नई राजनीतिक अवधारणा को आगे बढ़ाने के लिए चर्चा में रहे वो अब इस वजह से चर्चा में हैं कि वो मोदी को बनारस में सीधे चुनौती दे रहे हैं और मोदी को कहाँ और कितना नुकसान पहुँचा पाएँगे।

हालाँकि अपनी बुरी गत के लिए केजरीवाल ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं और एक नई राजनीतिक अवधारणा को लेकर लोगों के दिल तोड़ने के अपराध से भी उन्हें मुक्त नहीं किया जा सकता। नरेंद्र मोदी द्वारा उठाए गए तमाम कदमों से ये तो समझ में आता है कि उन्होंने देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने की अपनी ख़्वाहिश को बहुत जतन से पाला है। देश का प्रधानमंत्री बन जाने की ये कामना किस क्षण उनके मन में प्रस्फुटित हुई होगी ये तो ख़ैर ठीक-ठीक वो ख़ुद भी नहीं बता पाएँगे। पर जब भी हुई तब से उन्होंने उस सपने को बहुत प्यार से सहलाकर थपकी दी है। ऐसे तो कई नेता हुए देश में जो प्रधानमंत्री बनने की अभिलाषा मन में पाले हुए दुनिया से कूच कर गए या अब भी कहीं हाशिए पर पड़े हुए हैं...।

सब कुछ निर्भर इस बात पर करता है कि आपके प्रयत्न और बाहर के हालात के बीच किस तरह का राब्ता है। क्या होता अगर 2004 में इंडिया शाइनिंग काम कर जाता? या क्या होता अगर 2009 में आडवाणी का पीएम इन वेटिंग का इंतज़ार ख़त्म हो जाता? क्या होता अगर कहीं से कांग्रेस को ये अक्ल आ जाती कि मोदी के इस अश्व को दिसंबर 2012 में गुजरात में रोक देना ही सही रणनीति होगी और वो गुजरत के 2012 के विधानसभा चुनाव में मोदी को पछाड़ पाती? ... लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और मोदी के प्रधानमंत्री बनने की ख़्वाहिश का बीज अंकुरित हो गया। संघ से मिले खाद-पानी ने उसे बहुत तेजी से बड़ा किया। इतना कि आडवाणी रूपी जिस वटवृक्ष के नीचे ये बीज अंकुरित हुआ, धरती से बाहर आते ही उसने उसी वटवृक्ष की शाखाओं को चीरते हुए आसमान की ओर झाँकने में देरी नहीं की...।

मोदी न केवल भाजपा की चुनाव अभियान समिति के प्रमुख बने बल्कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी घोषित हो गए। इसमें कोई शक नहीं की मोदी इन शर्तों पर ही अपनी पूरी ऊर्जा झोंकने के लिए राजी हुए हों। उन्होंने चूँकि अपने सपने को बहुत करीने से पाला था, उसे व्यवहार में लाने में आने वाली अड़चनों के लिए उन्होंने ख़ुद को और अपनी टीम को भी अलग से तैयार किया। इसीलिए वो पार्टी और संघ के पुराने और परंपरागत नेटवर्क की बजाय अपने ख़ुद के नेटवर्क पर ज़्यादा भरोसा कर रहे हैं। यहाँ तक कि जिस संघ के खाद पानी के बगैर उनका यहाँ तक पहुँचना संभव नहीं था उस संघ के प्रमुख मोहन भागवत को भी ये कहना पड़ा कि नमो-नमो करना हमारा काम नहीं। चाहे ये भविष्य के लिए संघ के लिए अपनी पहचान सुरक्षित रखने की नीति के तहत ही ऐसा किया गया हो।

बहरहाल, मोदी का प्रधानमंत्री पद की ओर दौड़ने वाला अश्व शुरु में तो बहुत तेज़ दौड़ा। गुजरात चुनाव जीतने के बाद ये सरपट दौड़ा। कॉलेज के युवाओं से उनके संवाद ने भी उम्मीद की किरणों को प्रखर किया। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी उनको मजबूती मिली। हालाँकि दिल्ली में उनके घोड़े को अरविंद केजरीवाल ने रोककर परेशान ज़रूर किया पर केजरीवाल ने ख़ुद ही दिल्ली से इस्तीफा देकर घोड़े की लगाम छोड़ दी। मोटे तौर पर कांग्रेस के दस साल से नाराज़ और बिगड़ी अर्थव्यवस्था से परेशान जनता मोदी को उम्मीद की नज़रों से देख रही थी।

पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने उनके इस अश्व की लगाम को तेज़ी से ख़ींचा है। इसे खींचा है आडवाणी के टिकट और जसवंत के आँसुओं ने, इसे खींचा है मुतालिक और साबिर अली की भर्ती और वापसी ने। केजरीवाल भी उसी घोड़े को फिर रोकने बनारस पहुँच गए हैं। ये सब मिलकर मोदी के इस अश्वमेध को कितना रोक पाएँगे ये तो आनेवाला वक्त ही बताएगा। ये लड़ाई यों भी आसान नहीं थी। मोदी को कई मोर्चों पर एक साथ लड़ना था, लड़ना है। और उन्हें इस आत्मचिंतन के लिए तो वक्त निकालना ही होगा कि भीतर और बाहर से हो रहे इन हमलों के बीच वो अपनी सर्वग्राह्यता को किस तरह कायम रख पाते हैं। क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि देश को इस वक्त सारी मुसीबतों को एक झटके में दूर कर देने वाले नायक का इंतज़ार है, पर अपनी कुर्सी तक पहुँचने के लिए ये नायक किस रास्ते को अपनाता है, किस तरह के समझौते करता है और किस को रौंदकर आगे बढ़ता है, इस पर भी जनता की बराबर नज़र है।

ये भी सही है कि इस वक्त देश में भयानक विकल्पहीनता की स्थिति है। मसीहा की तलाश में भटकता भारत फिर एक बार अपनी उम्मीदों का दीया जलाए हुए है। सच ये भी है कि दूरगामी सोच और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति वाले नेतृत्व की आवश्यकता के बीच भी इस देश की सामूहिकता से समझौता नहीं किया जा सकता।

और किन पड़ावों पर इस अश्व को रोका जाता है और ये अपनी मंज़िल तक पहुँच पाएगा या नहीं ये तो आप और हम साथ में ही देखेंगे...पर फिलहाल ये पंक्तियाँ जो 2012 में मोदी की गुजरात में जीत के बाद लिखीं थीं-

मोदी तो यों भी कांग्रेस और केशुभाई से लड़ नहीं रहे थे। वो अपने आप से लड़ रहे थे, अपने अहं से, अपनी छवि से, अपने लोगों से, अपनी पार्टी से, अपने संघ से। ... और वो चुनाव जीत गए हैं... लेकिन सिर्फ चुनाव.... बाकी लड़ाइयाँ अभी बाकी हैं। आगे की लड़ाई के लिए इस चुनाव को जीतना उनके लिए बेहद जरूरी था, नहीं तो आगे की सीढ़ी ही टूट जाती। इस जीत ने उनके अहं को पुष्ट किया है, आगे की लड़ाई के लिए आवश्यक गोला-बारूद और असला जुटाया है, उनके विरोधियों को बगलें झाँकने के लिए मजबूर किया है। मगर आगे अब भी लंबी लड़ाई है। उनकी छवि और अपने आप से लड़ाई बहुत बड़ी और अहम है। अपने ईगो को बनाए रखते हुए सर्वस्वीकार्य हो जाने की उनकी छटपटाहट को अभी मुकाम तक पहुँचना है।

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