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विशाल हृदय के 'सुमन'

डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन : जयंती विशेष

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, शुक्रवार, 5 अगस्त 2011 (10:49 IST)
जीवनसिंह ठाकुर
जिन्होंने सुमनजी को सुना है वे जानते हैं कि 'सरस्वती' कैसे बहती है! सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है! जब वे बोलते थे तो तथ्य, उदाहरण, परंपरा, इतिहास, साहित्य, वर्तमान का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए 'ज्ञान' और ज्ञान की 'विमलता' से भरापूरा महसूस करता था। वह अंदर ही अंदर गूंजता रहता था और अनेकानेक अर्थों की 'पोटली' खोलता था। सुमनजी जैसा समृद्ध वक्ता मिलना कठिन है

सुमनजी जितने ऊंचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे, ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर पुरुष थे। उनकी ऊंचाई स्वयं की ही नहीं वे अपने आसपास के हर व्यक्ति में ऊँचाइयों, अच्छेपन का, रचनात्मकता का अहसास जगाते थे। उनकी विद्वता आक्रांत नहीं मरती थी। उनकी विद्वता, प्रशिक्षित करते हुए दूसरों में छुपी ज्ञान, रचना, गुणों की खदान से सोने की सिल्लियां भी निकालकर बताते थे कि 'भई खजाना तो तुम्हारे पास भरा पड़ा है'।

महाकाल की नगरी में बसे डॉ. शिवमंगलसिंह 'सुमन' उज्जैन और अवंतिका से ऐसे मिल गए थे कि 'पर्यायवाची' की तरह थे। सुमनजी ताउम्र कालिदास की शेष कथा हमारे-आपके, मालवा में कहते रहे। ये कथा महाकाल की यात्रा रही है जो शब्दों, अर्थों, दिनों में गुजरी है। उसके प्रवाह में कभी 'था' नहीं लगेगा, क्योंकि काव्य की धारा में सतत प्रवाह की वृत्ति है।

'सुमन' चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है। लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब 'गद्य' में है स्मृतियों में जीवित है। सुमनजी को जिसने भी देखा, सुना है वो अपनी चर्चाओं में, उदाहरण में कभी भी अपनी रचना नहीं सुनाते थे। वे हर अच्छी रचना और हर अच्छे प्रयास के प्रशंसक रहे। अन्य कवियों, लेखकों की रचनाओं की अद्भुत स्मृतियां उनमें जैसे ठसाठस भरी थीं।

कभी-कभी उनके बारे में कहा जाता था कि सुमनजी तारीफ करने में अति कर जाते थे। जहां तक मैं समझा हूं वे तारीफ की अति नहीं वरन्‌ उन छुपी हुई रचना समृद्धि की तरफ इशारा करते थे जो आंखों में छुपी होती थी। वे किसी को 'बौना' सिद्ध नहीं करते, उन्होंने सदा सकारात्मकता से हर व्यक्ति, स्थान, लोगों, रचना को देखा।

वे मूलतः इंसानी प्रेम, सौहार्द के रचनाकर्मी रहे। वे छोटी-छोटी ईंटों से भव्य इमारत बनाते थे। भव्य इमारत के टुकड़े नहीं करते थे। सामाजिक निर्माण की उनकी गति सकारात्मक, सृजनात्मक ही रही। फिर एक बात है तारीफ या प्रशंसा करने के लिए बेहद बड़ा दिल चाहिए, वह सुमनजी में था। आज के संकुचित, जलन भरे, माहौल में 'सुमन' जैसे की जरूरत है।

वे प्रगतिशील कवि थे। वे वामपंथी थे। लेकिन 'वाद' को 'गठरी' लिए बोझ नहीं बनने दिया। उसे ढोया नहीं, वरन्‌ अपनी जनवादी, जनकल्याण, प्रेम, इंसानी जुड़ाव, रचनात्मक विद्रोह, सृजन से 'वाद' को खंगालते रहे, इसीलिए वे 'जनकवि' हुए वर्ना 'वाद' की बहस और स्थापनाओं में कवि कर्म, उनका मानस, कर्म कहीं क्षतिग्रस्त हो गया होता।

हिल्लोल जीवन के गान, प्रलय सृजन, विंघ्य हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की बंदनवारे, विश्वास बढ़ता गया, आंखें नहीं भरी, आदि रचनाएं संघर्ष यात्रा की जन प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।

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