शरद जोशी अपने समय के अनूठे व्यंग्य रचनाकार थे। अपने वक्त की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को उन्होंने अत्यंत पैनी निगाह से देखा। अपनी पैनी कलम से बड़ी साफगोई के साथ उन्हें सटीक शब्दों में व्यक्त किया।
पहले वह व्यंग्य नहीं लिखते थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपनी आलोचना से खिन्न होकर व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया। वह देश के पहले व्यंग्यकार थे, जिन्होंने पहली दफा मुंबई में ‘चकल्लस’ के मंच पर 1968 में गद्य पढ़ा और किसी कवि से अधिक लोकप्रिय हुए। जहाँ एक तरफ परसाई के व्यंग्य में कड़वाहट अधिक है। वहीं शरद जोशी के व्यंग्य में हास्य, कड़वाहट, मनोविनोद और चुटीलापन दिखाई देता है, जो उन्हें जनप्रिय रचनाकार बनाता है।
शरद जोशी आजकल के व्यंग्यकारों की तरह बाजार को देखकर नहीं लिखते थे। उनके व्यंग्य परिस्थितिजन्य होने के साथ उनमें सामाजिक सरोकार होते थे, जबकि वर्तमान समय के व्यंग्यकारों में सपाटबयानी अधिक होती है।
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शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को उज्जैन में हुआ था। क्षितिज, छोटी सी बात, साँच को आँच नहीं, गोधूलि और उत्सव फिल्में लिखने वाले शरद जोशी ने 25 साल तक कविता के मंच से गद्य पाठ किया।
बिहारी के दोहे की तरह शरद अपने व्यंग्य का विस्तार पाठक पर छोड़ देते हैं। इस वक्त लोग व्यंग्य से दूर हो रहे हैं, क्योंकि सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी खराब होती जा रही है, जो लोग व्यंग्य के शब्दों में छिपी वेदना को अभिव्यक्त करने वाले को स्वीकार करने में हिचकते है। इसको सहजता से पीने का काम शरद जोशी करते थे।
देहरादून के एक कवि सम्मेलन में किसी मसखरे ने कह दिया, ‘शरद तू भांड बन गया है।’ इसके बाद उन्होंने कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ करना ही छोड़ दिया।
वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले के शब्दों में वैश्वीकरण और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों के बीच कोई ऐसा व्यंग्यकार नहीं है जो हमें विनोद की बजाय चुटकी लेकर जगाए। सबके संघर्ष को अपना संघर्ष मानना सब के बस की बात नहीं है। तथाकथित विकास के पीछे भाग रहे लोग भटकाव और भूलभूलैया में खोए हुए हैं और व्यंग्य किसी पैकेट में नहीं मिलता बल्कि रोजमर्रा से पैदा होता है।
शरद जोशी ने लिखा था, ‘'लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरकीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है।'
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उन्होंने लिखा था, 'अब जीवन का विश्लेषण करना मुझे अजीब लगता है। बढ़-चढ़ कर यह कहना कि जीवन संघषर्मय रहा। लेखक होने के कारण मैंने दुखी जीवन जीया, कहना फिजूल है। जीवन होता ही संघषर्मय है। किसका नहीं होता? लिखनेवाले का होता है तो क्या अजब होता है।'
उन्होंने टेलीविजन के लिए ‘ये जो है जिंदगी’, विक्रम बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, देवी जी, प्याले में तूफान, दाने अनार के और ये दुनिया गजब की धारावाहिक लिखे। पाँच सितंबर 1991 में मुंबई में उनका निधन हुआ। इन दिनों 'सब' चैनल पर उनकी कहानियों और व्यंग्य पर आधारित 'सिटकॉम' लापतागंज पसंद किया जा रहा है।