बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता

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बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु

पूछेगा सारा गाँव बंधु

यह घाट वही जिस पर हँसकर

वह नहाती थी धँसकर

आँखें रह जाती थी फँसकर

कँपते थे दोनों पाँव बंधु

बाँधों न नाव इस ठाँव बंधु

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी

फिर भी अपने में रहती थी

सबकी सुनती थी सहती थी

देती थी सबके दाँव बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु।

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