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सुनो कश्मीर फिर लौट आओ...

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सुशील कुमार शर्मा

सुनो कश्मीर तुम तो ऐसी न थीं,
तुम तो अमित सौंदर्य की देवी थीं।


 
पर्वतों पर हिम-श्रृंगार करती थीं,
अप्सरा बनकर जमीं पर उतरती थीं।
 
उत्तुंग शिखरों पर सूरज की सुनहरी किरण थीं,
जैसे दुल्हन की चांद बिंदी मनहरण थीं।
 
चिनार के पत्तों से ढंका आंचल तुम्हारा था,
डल झील के बीच में एक प्यारा शिकारा था।
 
तुम्हारे पास गुलमर्ग के लंबे कोनिफर थे,
सोनमर्ग के पाइन और पहलगाम के देवदार थे
 
श्रीनगर की पश्मीना शॉल थीं तुम,
जम्मू में वैष्णोदेवी की ढाल थीं तुम।
 
अनंतनाग के घने जंगल कहां खो गए,
कश्मीरी केसर कैसे जहर हो गए।
 
किसने छोटे बच्चों के स्कूलों को जलाया है,
किसने कश्मीरी जवानी को फुसलाया है।
 
किसने सुरीले संगीत को विस्फोटों में बदला है,
किसने भूखे बच्चे के दूध को बमों से निगला है।
 
किसने संविधान की सीमाओं को ललकारा है,
किसने कश्मीर की अस्मिता को दुत्कारा है।
 
सुनो कश्मीर तुम्हें किसी की नजर लगी है,
खून से लथपथ तुम्हारी हर गली है।
 
किताबों की जगह हाथों में तुम्हारे पत्थर हैं,
तुम्हारी क्यारियों में फूलों की जगह नस्तर हैं।
 
जहां अजानों और भजनों की आशनाई थी,
जहां हरदम बजती सुरीली शहनाई थी।
 
आज वहां नफरत का मंजर है,
सभी के हाथों में खूंरेज खंजर है।
 
आतंक के मंसूबे बुने जा रहे हैं,
भारत विरोधी स्वर सुने जा रहे हैं।
 
हर पत्थर तुम्हें लहूलुहान कर रहा है,
तुम्हारा ही खून तुम्हें श्मशान कर रहा है।
 
सुनो कश्मीर बच सको तो बचो इस वहशी बवंडर से,
सुनो कश्मीर लौट आओ इस खूनी समंदर से।
 
फिर से क्यारियों में केसर महकने दो,
दो फूल मुहब्बत के इस धरती पे खिलने दो।
 
पढ़ने दो पाठ बच्चों को इंसानियत के,
मत बनो खिलौने फिर से हैवानियत के।
 
एक बार फिर भारत का मुकुट बन जाओ,
सुनो मेरी कश्मीर अब दिल न दुखाओ,
सुनो प्यारी कश्मीर अब लौट आओ।
 
घिनौने हैं सफेदपोश चेहरे...!
 
 
 

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