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श्राद्ध पक्ष में कैसे पहुंचता है पितरों को भोजन

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अनिरुद्ध जोशी

* पुराणों के अनुसार यमलोक को मृत्युलोक के ऊपर दक्षिण में 86,000 योजन दूरी पर माना गया है। एक लाख योजन में फैले यमपुरी या पितृलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद में मिलता है।
 
 
* कहते हैं कि मरने के बाद आत्माएं पितृलोक में 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितरों का निवास चन्द्रमा के उर्ध्व भाग में माना गया है।
 
 
कैसे नीचे आते हैं पितर?
* सूर्य की सहस्र किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को वस्य अर्थात चन्द्र का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चन्द्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं।
 
 
* इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतिपात, गजच्दाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
 
 
ऊपर कैसे पहुंचता है भोजन?
* जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवता और पितरों का भोजन अन्न का सार तत्व है। सार तत्व अर्थात गंध, रस और ऊष्मा।
 
 
* देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। दोनों के लिए अलग-अलग तरह के गंध और रस तत्वों का निर्माण किया जाता है। विशेष वैदिक मंत्रों द्वारा विशेष प्रकार की गंध और रस तत्व ही पितरों तक पहुंच जाती है।
 
 
* एक जलते हुए कंडे पर गुड़ और घी डालकर गंध निर्मित की जाती है। उसी पर विशेष अन्न अर्पित किया जाता है। तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ तर्पण और पिंडदान किया जाता है। अंगुलियों से देवता और अंगूठे से पितरों को जल अर्पण किया जाता है।
 
 
* पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा-अन्न भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं। इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुंचते हैं।
 
 
* मृत्युलोक में किया हुआ श्राद्ध उन्हीं मानव पितरों को तृप्त करता है, जो पितृलोक की यात्रा पर हैं। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहां कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। 
 
 
* अत: श्राद्धपक्ष में पितरों का पिंडदान और तर्पण कर अपनों को भोजन कराना चाहिए। श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।

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कुछ लोग यह भी सोचते होंगे कि श्राद्ध में प्रदान की गई अन्न, जल, वस्तुएं आदि सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती होगी। यह भी तर्क दिया जाता है कि कर्मगति के अनुसार जीव को अलग-अलग गतियां प्राप्त होती हैं। कोई देव बनता है तो कोई पितर, कोई प्रेत तो कोई पशु पक्षी। अतः श्राद्ध में दिए गए पिण्डदान एवं एक धारा जल से कैसे कोई तृप्त होता होगा?
 
इन प्रश्नों के उत्तर हमारे शास्त्रों में विस्तार से बताए गए हैं। 'नाम गोत्र के आश्रय से विश्वदेव एवं अग्निमुख हवन किए गए पदार्थ आदि दिव्य पितर ग्रास को पितरों को प्राप्त कराते हैं। यदि पूर्वज देव योनि को प्राप्त हो गए हों तो अर्पित किया गया अन्न-जल वहां अमृत कण के रूप में प्राप्त होगा क्योंकि देवता केवल अमृत पान करते हैं।
 
पूर्वज मनुष्य योनि में गए हों तो उन्हें अन्न के रूप में तथा पशु योनि में घास-तृण के रूप में पदार्थ की प्राप्ति होगी। सर्प आदि योनियों में वायु रूप में, यक्ष योनियों में जल आदि पेय पदार्थों के रूप में उन्हें श्राद्ध पर्व पर अर्पित पदार्थों का तत्व प्राप्त होगा।
 
श्राद्ध पर अर्पण किए गए भोजन एवं तर्पण का जल उन्हें उसी रूप में प्राप्त होगा जिस योनि में जो उनके लिए तृप्ति कर वस्तु पदार्थ परमात्मा ने बनाए हैं। साथ ही वेद मंत्रों की इतनी शक्ति होती है कि जिस प्रकार गायों के झुंड में अपनी माता को बछड़ा खोज लेता है उसी प्रकार वेद मंत्रों की शक्ति के प्रभाव से श्रद्धा से अर्पण की गई वस्तु या पदार्थ पितरों को प्राप्त हो जाते हैं।

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