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'ग्रामवासिनी' से 'नगरवासिनी' हुई भारत माता!

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- डॉ. विष्णुदत्त नागर
आजादी के बाद से ही भारतीय समाज के केंद्र पर नजर डालने से यह तस्वीर उभरकर आती है कि भारतमाता 'ग्रामवासिनी' की जगह भारतमाता 'नगरवासिनी' ने ले ली है । शहर ने गाँवों के सपने की जगह ले ली और राष्ट्रीय कल्पनाशीलता के केंद्र से गाँवों को प्रतिस्थापित करके उसकी जगह शहर को बिठा दिया गया। नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण की आहटें सुनाई दीं और वैश्विक पूँजी के उत्पात में ग्रामीण समाज को आधुनिकता के नए चरण का साक्षात्कार करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

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शहरों ने गाँवों को उजड़ी हुई सभ्यता का संस्करण बनाकर रख दिया। शहरीकरण ने कृषि भूमि को लीलकर कांक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया। आजादी के बाद हमने स्थायी और रोजगारपरक औद्योगिकी-करण का ऐसा मॉडल तैयार नहीं किया जिसमें श्रम और पूँजी का समावेश आनुपातिक रूप में इतना हो कि पेट की आग भी बुझे और विकास का पहिया भी दौड़े। बारह प्रतिशत की सीमा को पार कर मुद्रास्फीतिजनित महँगाई ने पेट और पीठ के बीच की दीवार ही नहीं तोड़ी, बल्कि भविष्य, समाज और सरकार के प्रति आस्था का भी क्षरण किया है।

सेवा क्षेत्र के विकास ने शहरों में नए अवसरों का केंद्र बनाया, लेकिन जीवन, आजीविका और अस्तित्व की स्थितियों में गाँव और शहर के बीच बहुत बड़ा फर्क लगने लगा। ठेके की खेती (लीज फार्मिंग) से लेकर विशेष आर्थिक क्षेत्र तक तरह-तरह के नए प्रयोगों के तहत आधुनिकीकरण ने गाँवों को अपनी गिरफ्त में लेकर ग्रामीण समाज की खेती के पारंपरिक रिश्तों को तोड़ दिया।

नगरीकरण ने आर्थिक विषमता को तो बढ़ाया ही है, साथ ही पुलिस और न्याय व्यवस्था की कमियों के कारण आम आदमी पर अपराध के कहर में वृद्धि हुई है। सरलता, सादगी और सहजता का बोध लुप्त होता जा रहा है और अनैतिक, आपराधिक माध्यम से धन पिपासुओं और अर्थ पिशाचों की भीड़ बढ़ती जा रही है। अपराध करने की आजादी के बीच हमारी सामाजिक स्थिति का ऐसा कुत्सित रूप उभरकर आया है, जो शहरी संपन्नता और ग्रामीण गरीबी को एक साथ प्रस्तुत कर हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को चुनौती दे रहा है।

नगरीकरण की प्रक्रिया सिद्धांततः बुरी नहीं है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह विकृति, अपराध, विषमता और प्रदूषण की पोषक है। दुर्भाग्य से आज नगरीकरण को उच्च आर्थिक विकास से जोड़ा जा रहा है, जबकि इसमें सचाई नहीं है। शहर आकर्षण के केंद्र तो बने, लेकिन अकेलेपन के स्रोत के रूप में भी सामने आए। नतीजतन व्यक्ति सामाजिक सहारा घर में नहीं मिलने के कारण उप-सभ्यता और मनोरंजन के बड़े केंद्रों या संस्थानों के पास जाने लगा।

पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव ने नगरवासियों का प्रकृति से जुड़े मन और प्रकृति के दोहन को उन्होंने प्रकृति पर मानव की विजय बताया। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति प्रकृति पर विजय की बात ही नहीं करती, बल्कि उसका संपोषण करते हुए परिवर्तन की गुणवत्ता सुधारने के लिए सतत प्रयासशील है। बढ़ता शहरीकरण, वनों की कटाई, वन्य पशुओं के अवैध शिकार और औद्योगिकीकरण के दबाव के कारण प्रदूषण दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

एक लंबे जमाने से हम पढ़ते और कहते आए हैं कि भारत गाँवों का देश है, लेकिन यह वास्तविकता तेजी से बदल रही है। 2001 की जनगणना के अनुसार देश के हर एक हजार ग्रामीण के पीछे 385 शहरी हैं। अर्थात करीब 39 प्रतिशत शहरी आबादी तेजी से ग्रामीण आबादी को पछाड़ती दिखाई दे रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व जनसंख्या रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में 2030 तक शहरी लोगों की तादाद देहाती लोगों से ज्यादा हो जाएगी।

लेकिन दिनोंदिन गाँव जिस तरह मजबूरियों के शिकार होते जा रहे हैं उससे तो आभास होता है कि 2030 से काफी पहले गाँवों का पर्यावरण विनाश और आजीविका के साधनों के अभाव के केंद्र बन जाएँगे। ऐसा भले ही प्रतीत हो कि शहरों की स्वास्थ्य सेवाएँ सभी के लिए आसानी से उपलब्ध हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाएँ आवश्यकता पूर्ति हेतु कम ही नहीं बल्कि अत्यंत महँगी भी हैं। शहरी गरीबों का एक बहुत बड़ा भाग फुटपाथ, निर्माण स्थलों के पास झुग्गी-झोपड़ियों तथा अन्य कामकाजी जगहों के समीप रहने को बाध्य है। आसानी से दिखाई नहीं देने के कारण ये लोग सरकारी योजनाओं के लाभों से भी वंचित हैं। एक अध्ययन के अनुसार ऐसी बस्तियों की संख्या कुल बस्तियों के करीब आधी है।

दूसरी ओर शहर की संस्कृति के गाँव और छोटे-छोटे कस्बों में पहुँचने के कारण गाँव अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। जब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गाँवों की तरफ कदम रखा है शहरों के दुष्प्रभाव भी गाँव में तेजी से बढ़े हैं। सौंदर्य प्रतियोगिता के माध्यम से शहरों की वस्तुएँ और फैशन भी तेजी से गाँवों तक पहुँच गए। गाँवों के सामान्य युवा और युवतियाँं शहरों से इतने आकर्षित हैं कि हेयरडाई, क्रीम, महँगे साबुन जैसे सौंदर्य के साधन बनाने वाली कंपनियाँ गाँवों में अपना बाजार तलाश रही हैं। ग्रामीण सहजता की जिंदगी को शहरी कृत्रिमता और दिखावे ने छीन लिया है।

सत्य यह है कि शहरों की आबादी बढ़ने के पीछे गाँवों की आबादी के बाहर जाने की विवशता ही है। गरीबी और लाचारी का पारगमन होने के कारण शहरों की दुर्दशा बढ़ती जा रही है। शहर बढ़ती आबादी के दबाव को नहीं झेल पा रहे हैं और कुछ क्षेत्रों को छोड़कर असुविधा, कुव्यवस्था की तस्वीर उभरने लगी है। इस प्रकार को छद्म शहरीकरण गाँवों की आबादी का बोझ तो शहरों पर लाद ही रहा है, लेकिन भूमंडलीकरण और उदारीकरण के कारण गाँवों के परंपरागत रोजगार और हुनर पर इतना घातक हमला हुआ है कि उसने बेकारी की समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं एवं लोग शहरों की ओर रोजगार के लिए भागने लगे हैं।

वास्तव में पूँजीवाद और बाजारोन्मुख औद्योगिकीकरण इसकी जड़ में है और अब विशेष आर्थिक क्षेत्र के कारण शहरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। शहरीकरण के बजाय हमें गाँवों में ही प्रसंस्करण आधारित उद्योग लगाने तथा स्वरोजगार के साधन मुहैया कराने का नया मॉडल विकसित करना होगा तथा गाँवों में परंपरागत रोजगार और हुनर के साथ उन्नत तकनीकी में तालमेल बिठाना होगा।

गाँवों में किसानों की बदहाली का आलम यह है कि आज कोई किसान नहीं चाहता है कि उसकी संतान खेती करे। दूसरी ओर नगरवासियों की हार्दिक इच्छा रहती है कि उनकी संतान पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी करे या ऊँचे वेतन देने वाले निजी क्षेत्र में काम करे। किसान का शैक्षणिक और समझ का स्तर समाज के अन्य वर्गों की अपेक्षा भले ही कम हो, लेकिन वह भली-भांति जानता है कि किस प्रकार उसका शोषण हो रहा है।

लॉर्ड मेघनाद देसाई के शब्दों में जनसाधारण 'सरकारी कार्यालय से यथासंभव दूर रहना चाहता है, क्योंकि सरकारी कार्यालय परेशानी के प्रतीक बन गए हैं।' यह कितनी क्रूर विडंबना है कि जो अन्नदाता है वही आत्महत्या करने पर विवश हो रहा है। किसान की पारंपरिक छवि गाँव के खेत-खलिहानों के बीच संतोष और समृद्धि का प्रतीक न होकर किसान का शोषण, लाचारी, बेरोजगारी का पर्यायवाची बन गए हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ का एक शैक्षणिक वर्ग ऐसा है जिनका लालन-पालन शहरों में हुआ, जिनकी शिक्षा पब्लिक स्कूलों में हुई, जिन्होंने गरीबी, पिछड़ी हुई कृषि, ग्रामीण समस्या आदि के बारे में पुस्तकों में तो पढ़ा, लेकिन गरीबी और किसानों की समस्याओं को उनके बीच जाकर नहीं देखा और समझा।

दरअसल, ग्रामीण भारत को लाचारी, बेरोजगारी, भुखमरी से तभी निजात मिलेगी जब महानगरों की बढ़ती चमक-दमक के बीच देश के दूर-दराज के गाँवों में सूखा, बाढ़ और सूखे से प्रभावित लोगों का दुःख-दर्द समझा जाए तथा इस त्रासदी से निपटने के लिए प्रभावित परिवारों की सहायता में महत्वपूर्ण वृद्धि की जाए। यह कार्य तेजी से किया जाए। इसमें जरा भी देरी असहनीय दुःख-दर्द के रूप में देश को बहुत महँगी पड़ सकती है। (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं)

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