यह दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत थी। खून की नदियाँ बह रही थीं। वह नदी बहती हुई चिली के जंगलों तक जा पहुँची। जिन कविताओं में अब तक चिली के जंगल, समुद्र, पहाड़ और प्रकृति के रंगीन चित्र थे, वहीं अब लाल खून के धब्बे नजर आ रहे थे।
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12 जुलाई, 1904 को लातिन अमरीका की पराल नामक जगह पर पाब्लो नेरुदा का जन्म हुआ था। जन्म के एक माह बाद ही माँ को खो चुके बालक को पिता, जो एक मालगाड़ी के गार्ड थे, अपने साथ दूर बीहड़ की यात्राओं पर ले जाते थे। इन बीहड़ दुर्गम यात्राओं का नेरुदा के बालमन पर गहरा प्रभाव पड़ा। चिली की प्रकृति के तमाम रंग नेरुदा के दिल-दिमाग पर अंकित हो गए। बहुत बचपन से ही वह कविताएँ लिखा करते थे। लेकिन पिता के उग्र विरोध के कारण उन्होंने छद्म नाम से पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया। अपना नाम पाब्लो नेरुदा तो उन्होंने एक चेक लेखक यान नेरुदा से प्रभावित होकर रख लिया था। उनका असली नाम रेफ्ताली रिकार्दो रेयस बासोल्तो था। 1917 में टेमुको के एक अखबार में उनका पहला लेख रेफ्ताली रेयस के नाम से प्रकाशित हुआ। उस समय उनकी उम्र मात्र 13 वर्ष थी।
उस वर्ष, जब माल ढोने वाली एक रेलगाड़ी के एक मामूली गार्ड के घर उस अद्भुत नन्हे कवि का जन्म हुआ था, से अब तक सौ वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं।
देखा जाए तो सारी दुनिया का साहित्य कवियों से भरा पड़ा है। हिंदी में भी रवींद्र, प्रसाद, निराला जैसे कुछ नामों को छोड़कर कौन जानता है कवियों के बारे में? और कौन पढ़ता है उन्हें? जबकि साहित्यकारों में हर दूसरा व्यक्ति कवि है। और ऐसे में यहाँ से हजारों मील दूर कहीं एक कवि जन्मा और उसकी कविताएँ जाने कितने पहाड़, समुद्र, दरख्त पार करती सारी दुनिया पर छा गईं। नेरुदा की कविताएँ न सिर्फ वे पढते थे, जिन्हें उनसे प्रेम था, बल्कि वे भी जिनके खिलाफ नेरुदा का सारा संघर्ष था और जो उनसे खौफ खाते थे। अमरीका की नाक के नीचे बैठकर उन्होंने अमरीका की नाक में दम कर दिया।
आखिर क्या था उन कविताओं में जो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगा? हमारे यहाँ जहाँ किसी कवि की कविता की 500 किताबें भी न बिके, यदि लाइब्रेरी खरीद का सरकारी वरदहस्त न हो, नेरुदा की किताब की लाखों प्रतियाँ हाथोंहाथ बिक जाती थीं। लाखों लोगों की भीड़ में नेरुदा अपनी कविताएँ सुनाते और वे कविताएँ लोगों को तीर की तरह अपने दिलों में उतरती महसूस होतीं।
कुछ तो कारण था कि चिली कविताओं को जीने-महसूस करने लगा। नेरुदा की कविताएँ राजधानियों की अकादमियों और संस्थाओं में बैठे मसिजीवियों से दूर सुदूर खेतों में धान बोते किसानों, खदानों में पसीना बहाते श्रमिकों, दुनिया को उम्मीद भरी निगाहों से देखते बच्चों और नई उम्र के ऊर्जावान युवकों को संबोधित थीं। उनसे सीधे बातचीत करती थीं। इतनी सहज, इतनी सरल कि जिसे समझने के लिए डिग्रीयाफ्ता होने की कोई जरूरत नहीं थी। नेरुदा की जड़ें उनके देश की मिट्टी में गहरे उतरी थीं।
वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे। पूरी दुनिया में जो भी साम्राज्यवाद, औपनिवेशिक शक्तियों और फासीवाद के खिलाफ लड़ रहा था -- चाहे ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ भारत का संघर्ष हो, जनरल फ्रैंको की फासीवादी नीतियों के विरुद्ध स्पेन की लड़ाई हो, निकारागुआ-वियतनाम का मुक्ति संग्राम हो, नेरुदा हमेशा सबके साथ, सबके पक्ष में खड़े थे। सांतियागो के समुद्र तट से उठकर कविता यूरोप की रणभूमि तक बहती चली जाती।
जिस दौर में पाब्लो नेरुदा की कविता जवान हो रही थी, चिली समेत पूरी दुनिया में वह दौर काफी उथल-पुथल से भरा था। साम्राज्यवादी पूँजी की गिरफ्त में छटपटाते देशों में मुक्ति की आवाज उठने लगी थी। उपनिवेश टूट रहे थे। नेरुदा का रुख स्पष्ट था। वे जानते थे कि वे किसके साथ हैं। 1945 में उन्होंने चिली कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। वे निरंतर प्रगतिशील जनांदोलनों में सक्रिय रहे। 1969 में चिली की केंद्रीय कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति पद के लिए नेरुदा का नाम प्रस्तावित किया। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया और सल्वादोर एलंदे के पक्ष में अपना मत दिया।
नेरुदा को प्रकृति से बहुत प्रेम था। खासकर चिली के जंगलों से। यह बात उनके विश्वविख्यात संस्मरणों, जो ‘मेमोयर्स’ नाम से प्रकाशित हुए, में भी दिखाई पड़ती है। वे लिखते हैं, ‘जिन्होंने चिली के जंगल नहीं देखे, उन्होंने पृथ्वी क्या देखी। मैं उस प्राकृतिक दृश्य से - भूदृश्य से वापस आ गया हूँ। उस मिट्टी के बाहर ताकि अब गुनगुनाते हुए पूरी दुनिया में घूमूँ-फिरूँ।' प्रकृति उनकी रग-रग में बसी हुई थी। उन्होंने सांतियागो में समुद्र तट के किनारे एक टूटा-फूटा घर ले रखा था और अकसर वहाँ जाया करते थे। किनारे पर टूटती और पछाड़ खाती लहरों के बीच कविता मानो अपने आप फूट पड़ती थी। जीवन के अंतिम दिनों में भी कोई अदृश्य शक्ति उन्हें वहाँ खींच ले गई। सांतियागो के उसी तट पर उन्होंने अपने संस्मरणों को अंतिम रूप दिया था।
नेरुदा की शुरुआती कविताएँ प्रकृति और प्रेम का ही काव्य हैं। पूरे विश्व में शायद ही कोई प्रेम कविताएँ इतनी ज्यादा पढ़ी गई होंगी, जितना कि उनकी बीस कविताओं का एक पतला-सा संग्रह - ‘बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत।’
मुझे प्यार है उस प्यार से कि जिसे बाँटा जाए
चुंबनों में तलहटी पर और रोटी के साथ
प्यार जो शाश्वत हो सके
और हो सके संक्षिप्त
प्यार जो अपने को मुक्त करना चाहे
फिर से प्यार करने के लिए
नेरुदा के लिए महान उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खेज ने कहा था, ‘पाब्लो नेरुदा बीसवीं सदी में दुनिया के महानतम कवि हैं - दुनिया की किसी भी भाषा में!’ नेरुदा के संस्मरण पढ़ने के बाद शमशेर ने उनके लिए कविता लिखी थी -
वह एक रोमानी मध्ययुगी वीर नायक
कविता की मध्ययुगी आन-बान के साथ
आधुनिक समाज के समंदर
और पहाड़ों
और पठारों और मैदानों को फतह करता
तमाम महाद्वीपों में
आजाद घूमता रहा
आजाद हवाओं की तरह।
नेरुदा चिली या लातिन अमेरिका के ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया की मानवता के कवि थे। सारी भौगोलिक सीमाओं से परे धरती के जिस भी कोने में सत्य, न्याय, समानता और इंसानी हक की लड़ाई थी, नेरुदा अपनी समूची भावना और शिद्दत के साथ वहाँ मौजूद थे और उस लड़ाई में साझीदार थे।
पचीस वर्ष की उम्र में ही नेरुदा पहली बार भारत आए थे। वे कलकत्ते की गलियों में घूमते रहे। काँग्रेस पार्टी के अधिवेशन में हिस्सा लिया। यह काँग्रेस का वही अधिवेशन था, जिसमें शहीद भगत सिंह भी सांडर्स हत्याकांड के बाद लाहौर से कलकत्ता की अपनी ऐतिहासिक फरारी के बाद गुप्त रूप से हिस्सा ले रहे थे।
चिली में अमरीका के सहयोग से दक्षिणपंथियों के सत्ता में आ जाने के बाद नेरुदा की गिरफ्तारी का आदेश हुआ। वे चिली से भाग निकले और भूमिगत हो गए। वक्त तेजी से गुजरता जा रहा था। 11 सितंबर, 2001 इतिहास का एक काला अध्याय है, अमरीका के खिलाफ। 28 साल पहले वह 11 सितंबर का ही दिन था, जब ऐसा ही एक काला अध्याय अमरीका ने चिली के खिलाफ लिखा था। अमरीका की मदद से दक्षिणपंथियों ने चिली की सत्ता हथिया ली और सल्वादोर एलेंदे को मौत के घाट उतार दिया। नेरुदा यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और एलेंदे की मौत के मात्र 12 दिनों बाद नेरुदा ने भी आँखें मूँद लीं।
लोगों ने भरी आँखों से देखा, टेमुको और सांतियागो के घर सूने पड़े थे। चिली के जंगलों और सांतियागो के समुद्र तट पर अब भी पाब्लो नेरुदा की कविताएँ गूँज रही थीं।
जाना चाहता हूँ वापस वह बनने,
जो मैं नहीं हूँ...
मैं जी सकूँ या न जी सकूँ, कोई बात नहीं।
एक और पत्थर होना, वह काला पत्थर
वह खालिस पत्थर, जिसे ले जाती है, नदी अपने साथ।