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एडोल्फ हिटलर

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बीसवीं सदी के सर्वाधिक चर्चित (और संभवतः सर्वाधिक घृणित) व्यक्तियों में से एक हैं एडोल्फ हिटलर। 20 अप्रैल 1889 को ऑस्ट्रिया में जन्मे हिटलर की नियति तय की उनकी व्यक्तिगत असफलताओं तथा उनके देश जर्मनी की विश्व समुदाय द्वारा अवमानना ने। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मन सेना में भर्ती होकर हिटलर ने सम्मान पाया। 1918 में जर्मनी की पराजय के बाद 1919 में हिटलर ने सेना छोड़ दी व नेशनल सोशलिस्टिक आर्बीटर पाटी (नाजी पार्टी) का गठन कर डाला। उनकी घोषित मान्यता थी कि साम्यवादियों व यहूदियों के कारण ही जर्मनी की हार हुई। उन्होंने एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य रखा और बेहद शक्तिशाली व्यक्ति बनकर उभरे। 1923 में तत्कालीन सरकार ने उन्हें पांच वर्ष के लिए जेल भेज दिया। जेल से रिहा होने के कुछ ही समय बाद हिटलर ने पाया कि जर्मनी भी विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की मार झेल रहा है। जनता के असंतोष का फायदा उठाकर हिटलर ने पुनः व्यापक लोकप्रियता हासिल की और 1933 में जर्मनी के चांसलर (प्रधानमंत्री के समकक्ष) बन गए। इसके बाद शुरू हुआ हिटलर का दमन चक्र। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी को अवैध घोषित कर दिया व यहूदियों के नरसंहार का सिलसिला शुरू कर दिया। तत्कालीन राष्ट्रपति की मृत्यु के बाद हिटलर ने स्वयं को राष्ट्रपति तथा सर्वोच्च न्यायाधीश भी घोषित कर डाला। विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य लेकर हिटलर ने पड़ोसी देशों पर आक्रमण कर दिए जिसके फलस्वरूप 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध भड़क उठा। प्रारंभिक सफलताओं के बाद हिटलर के पांव उखड़ने लगे। उनके अपने लोग उनके खिलाफ होने लगे और अंततः 30 अप्रैल 1945 को हिटलर ने आत्महत्या कर ली।

मैं एक आरामदायक जीवन के खालीपन से बच गया
जब मेरी मां का देहांत हुआ, तो एक तरह से मेरे भाग्य काफैसला हो चुका था। उनकी बीमारी के अंतिम महीनों में मैं 'अकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स' (ललित कला अकादमी) की प्रवेश परीक्षा देने हेतु विएना गया था। रेखाचित्रों का मोटा सा पैकेट लेकर चलते समय मुझे पूरा यकीन था कि मैं आसानी से परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊंगा। 'रिएलशूल' (माध्यमिक विद्यालय) में मैं चित्रकला का सर्वश्रेष्ठ छात्र था। उसके बाद से मैंने चित्रकला में असाधारण प्रगति की थी। अतः मैं प्रवेश परीक्षा में सफलता को निश्चित मानकर प्रसन्न तथा गौरवान्वित महसूस कर रहा था।

बस एक ही आशंका थी। मुझे लगता था कि मुझमें पेंटिंग के बजाय ड्राइंग, विशेषकर वास्तुशिल्पीय नक्शे आदि बनाने की अधिक योग्यता थी, साथ ही वास्तुशिल्प में मेरी रुचि लगातार बढ़ती जा रही थी। अपनी दो सप्ताह की प्रथम विएना यात्रा के बाद मैं और अधिक गति से इस दिशा में बढ़ने लगा। अभी मेरी उम्र सोलह की नहीं हुई थी। मैं हॉफ संग्रहालय की कला दीर्घा में रखे चित्रों के अध्ययन के उद्देश्य से गया, तो उसके भवन ने ही मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया।
अलसुबह से देर रात तक मैं तमाम सार्वजनिक भवनों की सैर करता रहा। ऑपेरा तथा संसद भवन के समक्ष मैं कई-कई घंटों तक उनकी सुंदरता को निहारता खड़ा रहता। 'रिंग स्ट्रासे' ने तो मुझ पर जादुई प्रभाव डाला, मानो वह अलिफ लैला का कोई दृश्य हो।

अब मैं दूसरी बार इस खूबसूरत शहर में था। प्रवेश परीक्षा का परिणाम जानने के लिए बेताब था, लेकिन साथ ही एक गर्वयुक्त विश्वास भी था कि मैं उत्तीर्ण हो जाऊंगा। अपनी सफलता के प्रति मैं इस हद तक आश्वस्त था कि जब मुझे बताया गया कि मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूं तो मानो मुझ पर बिजली ही गिर पड़ी। खैर, तथ्य तो यही था कि मैं अनुत्तीर्ण हो गया था। मैं प्राचार्य से जाकर मिला और उनसे पूछा कि आखिर उन्होंने मुझे स्कूल ऑफ पेंटिंग के छात्र के रूप में क्यों स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि मैं अपने साथ जो रेखाचित्र लाया था, वे निर्विवाद रूप से यह दर्शाते थे कि मैं पेंटिंग सीखने के योग्य नहीं था, लेकिन यही रेखाचित्र इस बात का स्पष्ट संकेत देते थे कि वास्तुशिल्पीय डिजाइनिंग की प्रतिभा मुझमें है। अतः मेरे मामले में स्कूल ऑफ पेंटिंग कोई मायने नहीं रखती थी, बल्कि अकादमी का ही एक अन्य अंग स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर मेरे लिए अधिक अनुकूल था। पहले पहल तो इस बात को समझना असंभव था, क्योंकि न तो मैं कभी वास्तुशिल्प के किसी विद्यालय में गया था और न ही मैंने वास्तुशिल्पीय डिजाइनिंग का कोई प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

मैं हतोत्साहित होकर लौटा। अपने छोटे से जीवन में पहली बार उदास महसूस करने लगा। अपनी क्षमताओं के बारे में मैंने जो सुना, वह अब मुझे किसी बिजली की चमक जैसा लगा, जो उस द्विविधता को उजागर कर गई, जिससे मैं लंबे समय से पीड़ित था, लेकिन जिसके कारण मुझे अब तक ज्ञात नहीं थे।
इस सदी के आरंभ में ही विएना उन शहरों में शामिल हो चुका था जहां सामाजिक परिस्थितियां विषम हैं। चकाचौंध करती संपन्नता तथा घृणित गरीबी एक-दूसरे में गुंथी हुई थी। शहर के मध्य क्षेत्र में उस साम्राज्य का स्पंदन महसूस होता था, जिसकी जनसंख्या 5 करोड़ 20 लाख थी और जिसमें विभिन्न राष्ट्रीयताओं से बने राज्य का आकर्षण था। दरबार की चकाचौंध भव्यता समूचे साम्राज्य की दौलत तथा बुद्धि के लिए चुंबक की तरह थी। हैबस्बर्ग राजशाही द्वारा सभी कुछ अपने में और अपने लिए केंद्रीकृत कर देने की वंशानुगत नीति ने इस आकर्षण को बढ़ाया।

उन भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयताओं की खिचड़ी को एकजुट रखने के लिए यह केंद्रीयकरण नीति आवश्यक थी। इसके फलस्वरूप शहर में उच्चाधिकारियों का असामान्य जमावड़ा हो गया था, लेकिन विएना महज राजशाही का राजनीतिक व बौद्धिक केंद्र नहीं था। वह व्यावसायिक केंद्र भी था। अतः वहां उच्च पदस्थ सैनिक अधिकारियों, शासकीय अधिकारियों, कलाकारों व वैज्ञानिकों की भीड़ से भी बढ़कर श्रमिकों की भीड़ थी। अभिजात वर्ग तथा व्यापारी वर्ग के दूसरी ओर घोर गरीबी का आलम था। 'रिंग स्ट्रासे' पर राजमहलों के समक्ष हजारों बेरोजगार घूमते थे और नीचे बेघर लोग नालों की गंदगी के बीच कहीं सिर छिपाने का प्रयास करते थे।

जर्मनी में शायद ही कोई दूसरा शहर होगा, जहां सामाजिक समस्या का अध्ययन करना विएना से बेहतर हो। यहां मैं इस भ्रम के खिलाफ आगाह करना चाहूंगा कि इस समस्या का अध्ययन ऊपर से नीचे की ओर निगाह डालकर किया जा सकता है। जो व्यक्ति कभी उस नाग के चंगुल में नहीं आया, वह जान ही नहीं सकता कि उसका जहर क्या होता है। किसी भी अन्य तरीके से इसके अध्ययन का परिणाम होगा, सतही बयानबाजी तथा भावुक विभ्रम। ये दोनों ही नुकसानदायक हैं।

पहला इसलिए कि वह कभी भी समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच सकता और दूसरा, क्योंकि वह समस्या को पूरी तरह अनदेखा ही कर देता है। मुझे नहीं पता कि इन दोनों में अधिक जघन्य क्या है, सामाजिक व्यथा की अनदेखी करना, जैसा कि उनमें से अधिकांश लोग करते हैं, जिन पर भाग्य का उपकार रहता है और जो अपने श्रम के बल पर समाज में ऊपर उठे हैं या फिर उन लोगों की तरह कृपालुता दर्शाना जो परोपकार का खूब दिखावा करते हैं और 'जनता से हमदर्दी रखने' के घमंड भी पाल बैठते हैं।

वास्तविक समझ के अभाव में ये लोग जितना सोच सकते हैं, उससे कहीं अधिक पाप करते हैं। इसीलिए उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि जिस 'सामाजिक अंतरात्मा' पर वे गर्व करते हैं, उससे कोई समाधान नहीं निकलता, बल्कि कई बार इसके कारण उनके नेक इरादे भी नफरत की नजरों से देखे जाते हैं। फिर वे कहते हैं कि देखो, ये लोग कितने कृतघ्न हैं।

ऐसे लोग बहुत देर से समझ पाते हैं कि यहां महज सामाजिक गतिविधियों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता और कृतज्ञता की उम्मीद नहीं की जा सकती। यहां किसी पर उपकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न है प्रतिफलात्मक न्याय का। उपरोक्त तरीके से सामाजिक समस्या का अध्ययन करने के लालच से मैं बच गया। कारण कि मुझे गरीबों के बीच रहने को बाध्य होना पड़ा। अतः मुद्दा इस समस्या का वस्तुपरक अध्ययन करना नहीं था, बल्कि मुझ पर इसके प्रभावों का परीक्षण करना था। खरगोश प्रयोग के दौर से बच तो निकला, लेकिन इसे उसके हानिरहित होने का प्रमाण नहीं मान लेना चाहिए।

आज जब मैं उस समय के अपने क्रमबद्ध अनुभवों का स्मरण करता हूं, तो मैं सारी बातें याद नहीं कर पाता। यहां मैं केवल उन अनुभवों का वर्णन करूंगा, जो महत्वपूर्ण सिद्ध हुए और जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से मुझे प्रभावित किया तथा कई बार मुझे डगमगा दिया। मैं उन सबकों का भी उल्लेख करूंगा जो मैंने इन अनुभवों से सीखे।

उस समय आमतौर पर काम पाना ज्यादा मुश्किल नहीं था, क्योंकि मैं कोई कुशल कारीगर के तौर पर काम नहीं मांग रहा था, बल्कि तथाकथित 'अतिरिक्त श्रमिक' का काम मांग रहा था। जो भी काम हाथ लगता, मैं कर लेता, ताकि दो जून रोटी का बंदोबस्त होता रहे।

इस प्रकार मैंने स्वयं को उसी स्थिति में पाया, जैसे कि वे प्रवासी जो इस दृढ़ निश्चय के साथ अपने पैरों से यूरोप की धूल झाड़ते हैं कि वे इस नई दुनिया में अपने लिए एक नए अस्तित्व की नींव रखेंगे और एक नया आशियाना बसाएंगे। वर्ग, रुतबे, पर्यावरण या परंपरा के किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वे कई भी उपलब्ध काम करने को तैयार रहते हैं। यह भावना निरंतर उनमें घर करती जाती है कि ईमानदारी से किया गया कार्य किसी का अपयश नहीं करता, फिर चाहे वह किसी भी तरह का काम हो। तो इस प्रकार मैं एक ऐसी दुनिया में पैर जमाने तथा अपने मार्ग पर आगे बढ़ने के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ था, जो मेरे लिए नई थी।

मुझे शीघ्र ही पता चला कि किसी न किसी प्रकार का काम हरदम मिल सकता था, लेकिन मैंने यह भी जाना कि यह इतनी ही आसानी से हाथ से निकल भी सकता था। नियमित दैनिक मजदूरी कमाने की अनिश्चितता मुझे अपने नए जीवन का सबसे निराशाजनक पहलू लगने लगी। कुशल कारीगर के हाथ पर हाथ धरे बैठने की नौबत उतनी ज्यादा नहीं आती थी जितनी कि अकुशल श्रमिक की, लेकिन तालाबंदी और हड़ताल के कारण उसे भी कई बार रोजी-रोटी से वंचित रहना पड़ता था। रोजी-रोटी की अनिश्चतता समूची सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का सबसे कड़वा पहलू था।

ग्रामीण लड़का 'आसान काम' और कम मेहनत की बात सुनकर महानगर की ओर आकर्षित होता है। वह विशेष रूप से महानगर की चमक-दमक से सम्मोहित हो उठता है। गांव में नियमित मजदूरी पाने का अभ्यस्त होने के नाते उसे यही सिखाया गया होता है कि अपनी नौकरी तब तक मत छोड़ो, जब तक कि कोई दूसरी नौकरी नजर में न हो। चूंकि कृषि मजदूरों की काफी कमी है, अतः गांवों में बेरोजगारी के लंबे दौर की संभावना कम ही है। यह सोचना गलत है कि जो लड़का शहर जाने के लिए गांव छोड़ता है, वह उन लोगों जितना समर्थ नहीं है, जो खेतों में काम करने हेतु गांव में ही रह जाते हैं। इसके विपरीत, अनुभव तो यही दर्शाता है कि अधिक स्वस्थ व मेहनती लोग ही शहर की ओर पलायन करते हैं। इस प्रकार गांव छोड़ शहर की ओर जाने वाला लड़का अनिश्चत भविष्य का जोखिम उठाने को तैयार रहता है। आमतौर पर वह जेब में कुछ पैसे लेकर शहर आता है यदि प्रारंभिक दिनों में काम मिलने का सौभाग्य न मिले तो वह प्रायः हतोत्साहित नहीं होता। हां, यदि उसे नौकरी मिलती है और फिर कुछ दिन में छिन जाती है तो स्थिति बिगड़ जाती है। नए सिरे से काम की तलाश करना, विशेषकर सर्दियों में बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो बिलकुल असंभव। प्रारंभिक सप्ताहों में तो जिंदगी फिर भी कुछ सहनीय होती है।

उसे अपनी ट्रेड यूनियन से बेरोजगारी भत्ता मिलता है और जिंदगी जैसे-तैसे चलती रहती है। लेकिन जब उसका अपना पैसा खत्म हो जाता है और बेरोजगारी बहुत अधिक लंबी खिंच जाने के कारण ट्रेड यूनियन भी उसे पैसा देना बंद कर देती है, तब जाकर वास्तविक पीड़ा शुरू होती है। अब वह भूख का मारा, इधर-उधर भटकता है। अकसर वह अपना आखरी सामान भी गिरवी रख देता है अथवा बेच डालता है। उसके कपड़े अस्त-व्यस्त रहने लगते हैं और अपने बाहरी स्वरूप में गरीबी की बढ़ती निशानियों के बीच वह निम्नतर सामाजिक स्तर पर पहुँच जाता है। यहां वह एक ऐसे वर्ग के लोगों के बीच उठता-बैठता है, जिनके जरिये उसके दिमाग में जहर घुल जाता है। फिर उसके पास सोने के लिए भी कोई ठिकाना नहीं रहा जाता। यदि ऐसा सर्दियों में हो तो यह बहुत ही भारी विपदा सिद्ध होती है। अंततः उसे काम मिल जाता है। फिर पुरानी कहानी स्वयं को दोहराती है। दूसरी ओर फिर तीसरी बार ऐसा ही होता है। अब स्थिति और भी बिगड़ जाती है। धीरे-धीरे वह इस अनंत अनिश्चितता के प्रति उदासीन होता जाता है।

अंततः वह इस दोहराव का आदी हो जाता है। इस प्रकार सामान्यतः उद्यमशील व्यक्ति भी जीवन के प्रति नजरिये में लापरवाह हो जाता है और उन बेईमान लोगों के हाथ का खिलौना बनकर रह जाता है, जो अपने अनैतिक कार्यों के लिए उसका शोषण करते हैं। उसे अपना कोई दोष न होते हुए भी नौकरी से वंचित होने की इतनी आदत पड़ चुकी होती है कि अब उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जिस हड़ताल में भाग ले रहा है, वह उसे उसके आर्थिक अधिकार दिलाने के लिए हो रही है या फिर राज्य, समाज व्यवस्था या सूमची सभ्यता को ही नष्ट करने के लिए। हो सकता है कि हड़ताल करना मूलतः उसे पसंद न हो लेकिन निरी उदासीनता के चलते वह उसमें भाग लेता है।
मैंने अपनी आंखों के समक्ष हजारों बार यही सब घटते देखा है। जितना ज्यादा मैं यह देखता, इस भीमकाय शहर के प्रति मेरी घृणा बढ़ती जाती, जो लोगों को अपनी बांहों में आकर्षित करता है और अंत में उन्हें तोड़कर रख देता है। जब वे आते हैं तब तो वे गांव के अपने लोगों के साथ एका महसूस करते हैं। यदि वे शहर में ही रह गए तो वह बंधन भी टूट जाता है।

महानगरीय जीवन को मैंने इतने करीब से देखा कि मुझे अपने भीतर उपरोक्त नियति की कारगुजारियां महसूस होने लगीं और उसका प्रभाव मुझे अपनी आत्मा पर महसूस होने लगा। एक बात मेरे सामने स्पष्ट थी। काम और बेरोजगारी के बीच निरंतर झूलने के कारण कमाई तथा खर्च में लगातार फर्क के चलते कई लोगों में मितव्ययिता की आदत खत्म होती जाती और अपने व्यय को बुद्धिमत्ता पूर्वक नियंत्रित करने की आदत भी छूटती जाती। शरीर तो मानो भोजन और भूख के परिवर्तन का आदी हो जाता है, अच्छे वक्त में खूब डटकर खाता तथा बुरे वक्त में भूखा रह लेता। जब अच्छा वक्त होता है तो खर्च को नियंत्रित करने की सारी योजनाओं को भूख अस्त- व्यस्त कर देती है। इसका कारण यह है कि बेरोजगार श्रमिक को जो अभाव सहने पड़ते हैं, उनकी मनोवैज्ञानिक पूर्ति के लिए यह जरूरी है कि वह लगातार एक मानसिक मृग मरीचिका पाले, जिसमें वह पेट भरकर खाने की कल्पना करे।

यह स्वप्न एक ऐसी उत्कंठा में बदल जाता है कि जब पुनः काम व वेतन मिलता है तो वह सारा आत्मनियंत्रण एक तरफ धर देने के विकृत आवेग में परिवर्तित हो जाता है। अतः जैसे ही फिर से काम मिलता है, वह खर्च को नियंत्रित करना भूल जाता है और कल की चिंता किए बगैर सारा पैसा खर्च कर डालता है। इससे साप्ताहिक घरेलू बजट में भ्रम की स्थिति निर्मित हो जाती है। जब यह सब पहली बार होता है, तो सात दिन का वेतन पांच दिन में खत्म हो जाता है, फिर तीन दिन में। जैसे-जैसे यह आदत बढ़ती जाती है, सप्ताह भर का वेतन बमुश्किल एक दिन चलता है और अंततः वह एक रात की दावत में ही उड़ा दिया जाता है।

कई बार घर पर बीवी-बच्चे भी होते हैं। अनेक मामलों में ये भी इसी जीवन पद्धति के आदी हो जाते हैं, खासतौर से यदि उनके प्रति गृहस्वामी का बर्ताव अच्छा है और वह उनके लिए अपनी क्षमतानुसार अधिक से अधिक करना चाहता है तथा अपने ही खास ढंग से उन्हें प्यार करता है। तब सप्ताह भर की कमाई घर पर ही मिल-जुलकर दो-तीन दिन में उड़ा दी जाती है। जब तक पैसा होता है, परिवार खूब खाता-पीता है। फिर सप्ताह पूरा होते-होते सब मिलकर फाके करते हैं।

पत्नी अड़ोस-पड़ोस में घूम-घामकर कुछ पैसे उधार लेती है और उधर दुकानदारों के यहां भी उसकी उधारी बराबर बढ़ती जाती है। परिवार में अगले वेतन वाले दिन की चर्चा होती है, लयोजनाएं बनाई जाती हैं। भूख में बैठकर भावी समृद्धि के ख्वाब बुने जाते हैं। इस प्रकार नन्हे बच्चे इस उम्र से ही दरिद्रता से रूबरू हो जाते हैं।

बुराई उस समय चरम बिंदु पर पहुँच जाती है, जब पति सप्ताह के आरंभ में ही अपने अलग रास्ते पर चल पड़ता है और बच्चों के प्यार की खातिर पत्नी विरोध करती है। फिर लड़ाई-झगड़े और मनमुटाव का दौर चलता है। पति शराब पीने लगता है और पत्नी से दूर होता चला जाता है। अब हर शनिवार वह नशे में धुत्त रहता है। अपने व बच्चों के अस्तित्व की खातिर वेतन वाले दिन पत्नी फैक्टरी से शराबखाने तक पति का पीछा करती जाती है और उससे कुछ पैसे झटक लेने का प्रयास करती है। फिर, जब वह रविवार या सोमवार को अपना सारा पैसा लुटाकर घर लौटता है तो अनेक करुण दृश्य उपस्थित होते हैं, जो ईश्वर से रहम की भीख मांगते हैं।

मुझे सैकड़ों मामलों में इन सब बातों का वास्तविक अनुभव हुआ है। पहले पहल मुझे जुगुप्सा व रोष महसूस हुआ, लेकिन बाद में मैं इन लोगों के दुर्भाग्य की त्रासदी और उसके कारण समझने लगा। ये लोग अनिष्टकारी परिस्थितियों के शिकार थे। आज मैं नियति को धन्यवाद देता हूं कि उसने मुझे ऐसे विद्यालय में भेजा। वहां मैं उन चीजों में दिलचस्पी दिखाने से इनकार नहीं कर सकता था, जिनसे मुझे खुशी नहीं होती थी। इस विद्यालय ने शीघ्र ही मुझे एक गहरा सबक सिखाया। जिन लोगों के बीच मैं रहता था, उनके लिए हमेशा केवल दुःख ही अनुभव न करूं, इसके लिए मैं उनका बाहरी रूप एक तरफ रखता था और जिन कारणों से वे वैसे बने, उन्हें दूसरी तरफ रखता था। फिर मैं बिना हतोत्साहित हुए सब कुछ सह सकता था, क्योंकि इस तमाम दुर्भाग्य और विपत्ति से जो निकलकर आते थे, वे एक तरह से मनुष्य थे ही नहीं। वे तो शोचनीय कानूनों के दयनीय परिणाम थे। मेरे अपने जीवन में ऐसी ही मुश्किलों ने मुझे इन दयनीय परिणामों के प्रति दयालु भावुकता का शिकार होने से रोका। नहीं, भावुकतापूर्ण रवैया गलत होता।

उन दिनों भी मैं स्पष्टतः देख सकता था कि दो सूत्री नीति द्वारा ही इन परिस्थितियों में सुधार लाया जासकता था। प्रथम, जनता में सामाजिक जिम्मेदारियों की भावना स्थापित कर बेहतर आधारभूत परिस्थितियों का निर्माण। द्वितीय, सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति इस बोध को उन तमाम अपवृद्धियों को काट फेंकने के निष्ठुर संकल्प के साथ जोड़ देना, जिनमें सुधार संभव नहीं।

-आत्मकथा (मेनकॉम्फ, एडोल्फ हिटलर)

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