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भारती जोशी
आज भी संतानहीन स्त्री के प्रति समाज में मानसिकता बदली नहीं है। उन्हें दुर्भाग्यशाली, बाँझ जैसी उपमाओं से बेझिझक पुकारा जाता है। अनेक महिलाएँ प्रकृति के इस अनुपम उपहार से वंचित रह जाती हैं। भले ही ज्यादातर मामलों में स्त्री का कोई दोष न हो फिर भी आरोप उसी पर लगाया जाता है।कारण पुरुष भी हो सकता है, किंतु पुरुष को धिक्कारा नहीं जाता बल्कि उसे विवाह विच्छेद तथा दूसरी शादी के लिए उकसाया जाता है। चाहे दूसरी पत्नी का हाल भी पहले वाली की तरह क्यों न हो।आज के बदलते परिवेश में जरूरत है इस तरह की खोखली मानसिकता बदलने की। इस मामले में पढ़े-लिखे लोगों से आशा की जा सकती है कि वे ही चुनौती स्वीकार कर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करें। यदि कोई दम्पति नि:संतान हो तथा मेडिकल चेकअप से भविष्य में कोई आशा नजर नहीं आए तो एक-दूसरे पर दोषारोपण न करते हुए दोनों को परस्पर सहमति से किसी शिशु को गोद ले लेना चाहिए। |
आज भी संतानहीन स्त्री के प्रति समाज में मानसिकता बदली नहीं है। उन्हें दुर्भाग्यशाली, बाँझ जैसी उपमाओं से बेझिझक पुकारा जाता है। अनेक महिलाएँ प्रकृति के इस अनुपम उपहार से वंचित रह जाती हैं। |
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गोद लेने से शिशु को प्यार नसीब होगा ही। आपकी मनोकामना भी पूरी होगी। गोद लेना शास्त्र व कानून सम्मत है। दत्तक संतान ग्रहण करना हमारे देश में वैदिककाल से प्रचलित है। हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य तीन ऋण लेकर पैदा होता है - ऋषि ऋण, देवऋण तथा पितृऋण।
वेदों के अध्ययन से ऋषि ऋण चुकता हो जाता है, धार्मिक यज्ञों से देवऋण पूरा होता है और पितृऋण तब चुकता होता है जब वह अपने पुत्र का मुँह देखता है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार बिना संतान के मोक्ष प्राप्ति असंभव मानी गई है। इसीलिए मनुस्मृति में भी सगी संतान के अभाव में दत्तक संतान का उल्लेख मिलता है।
किंतु आधुनिक परिवेश में प्राचीन मान्यताओं की बात न करते हुए हमें स्वयं अपनी अनुभूतियों पर विचार करना ही ठीक होगा। प्रत्येक दम्पति संतान के अभाव में दु:खी रहता है। उनमें समाया ममत्व, प्यार कसमसाने लगता है। वे चाहते हैं उनके बीच एक नन्हा शिशु हो जो उनके दाम्पत्य जीवन को पूर्णता प्रदान करे।
माँ-पिता कहलवाने की तृष्णा शांत करे और वे अपनी खुशियाँ उस पर न्योछावर कर दें। उनका बच्चा उनमें छाया एकाकीपन दूर कर घर को अपनी तोतली भाषा और किलकारियों से गुंजायमान कर दे।
संयुक्त परिवारों में नि:संतान दम्पति को संतान का अभाव कम खलता है क्योंकि घर करीबी रिश्तेदारों के बच्चों से भरा-पूरा रहता है किंतु एकाकी परिवार में दम्पति को बच्चे की कमी खलती रहती है। ऐसे में बच्चे की चाह में अच्छे से अच्छे आधुनिक कहलवाने वाले भी अंधविश्वासों, जादू-टोनों, ज्योतिषियों, पूजा-पाठ के मकड़जाल में फँस जाते हैं, परिणाम चाहे निराशाजनक ही हो, किंतु गोद लेने से कतराते हैं। अंदर ही अंदर घुटते रहने की अपेक्षा किसी प्यारे से शिशु को गोद लेने में हर्ज ही क्या है।
वैदिककाल में दत्तक ग्रहण सिर्फ पुत्र का ही होता था वह भी स्वार्थवश, इसीलिए उसे प्रतिस्थायी संतान मानकर पालन-पोषण होता था तथा सिर्फ पुरुष ही गोद जा सकता था। समय के साथ-साथ इस विचारधारा में परिवर्तन हुआ है । आज आधुनिक समाज बंधनमुक्त है।
बेटी भी गोद ली जा सकती है तथा स्त्रियाँ भी संतान गोद ले सकती हैं यदि वे अविवाहित, तलाकशुदा या पति की मृत्यु हो चुकी हो। इसके साथ ही यह भी जरूरी नहीं कि दत्तक संतान समान जाति, धर्म तथा अच्छे खानदान की ही हो। बच्चा अनाथालय, स्वयंसेवी संस्था या अन्य इसी तरह की संस्था से किसी भी जाति या धर्म का ग्रहण किया जा सकता है।
हमारी कानून-व्यवस्था से हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम 1956 के मुताबिक स्त्री-पुरुष दोनों ही दत्तक ग्रहण कर सकते हैं, बशर्ते, दत्तक ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष वयस्क और स्वस्थचित्त होना चाहिए। यदि गोद ली जाने वाली संतान पुत्र हो तो आवश्यक है कि उसके पास कोई हिन्दू पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र न हो। इसी तरह यदि दत्तक ग्रहण किसी पुत्री का हो तो यह आवश्यक है कि गोद लेने वाले के पास कोई पुत्री या पुत्र की पुत्री न हो।
अर्थात संतान गोद लेने की इच्छा कभी भी पूरी की जा सकती है, बस स्वयं की मानसिकता इसे अनुरूप बनाने की जरूरत होती है कि दत्तक संतान कभी परायापन अनुभव न करे अन्यथा कई तरह की परेशानियाँ भी जन्म ले सकती हैं।
गोद लिया शिशु पाता है माता-पिता का अपार स्नेह, प्यार, देखभाल और अपनत्व। जब तक वह घर के बंधनों में माता-पिता के साथ ही रहे तब तक उसके मन में उनके प्रति कभी परायापन नहीं आता है किंतु जैसे-जैसे उसका सामाजिक दायरा बढ़ने लगता है, उसके दिल में कई तरह के विषाक्त विचार पनपने की आशंका रहती है, क्योंकि परिवेश में कई ऐसे तत्व मौजूद रहते हैं जो आपकी खुशी नहीं देख सकते। अत: दत्तक संतान से हमेशा अपनत्व वाला ही व्यवहार करें ताकि उसे आप पर पूरा-पूरा विश्वास हो और वह अन्य लोगों की बातों में कभी न आए।
नि:संतान दम्पति को चाहिए कि वे अपने मस्तिष्क में दत्तक संतान के प्रति कभी भी कटुता नहीं लाएँ और न ही अतिरिक्त लाड़-प्यार में बिगड़ैल बना दें। जहाँ डाँट-फटकार की जरूरत हो वहाँ डाँटे भी तथा जहाँ प्यार से समझाने की आवश्यकता हो वहाँ प्यार से उसका मार्गदर्शन करें, किंतु भूलकर भी कभी उसे उसके बारे में झूठे तथ्य प्रस्तुत न करें।
कई बार दत्तक संतान को वयस्क होने तक स्वयं के सगे या पराए होने का अहसास नहीं होता है, ऐसे में जब वह समझदार हो जाए तो उसकी जिज्ञासा का खुलासा किया जा सकता है। पर इसके पूर्व उसमें स्वयं के प्रति पूर्ण-आस्था, विश्वास तथा प्यार पैदा करना नितांत आवश्यक है। एक बार विश्वास पैदा हो जाने पर वह किसी के द्वारा भी गुमराह किए जाने पर भटकेगा नहीं और आप अपनी संतान से भरपूर आदर अर्जित कर सकेंगे।