आरुषि के बहाने फिर बात बचपन की

Webdunia
- डॉ. अमिता दीक्षि त

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आरुषि की कहानी है एकाकी परिवारों में दरकते विश्वास और टूटते भ्रम की... आरुषि कहानी है संपन्नता के बीच पलती विपन्नता की... लगातार भौतिक होते जीवन में परिवार के बीच अकेले ब़ड़े हो रहे बच्चों की...। यह कहानी है रिश्तों के बीच बॉडिंग के अभाव की... झूठी इज्जत और सच्ची जरूरतों को न समझने की... आरुषि को समझने की।

किशोर हो रही आरुषि को अपनों की जरूरत थी। लेकिन उसका साझा किया शायद उसके अधेड़ हो चुके नौकर ने। यदि और रहती तो पता नहीं परिवार, रिश्तों और अपनों के क्या अर्थ खुलते उसके सामने...? आधुनिक समाज की क्या तस्वीर उसके सामने जाती..?

आरुषि निम्न मध्यमवर्ग का किस्सा नहीं है। उसका संबंध साधन संपन्न परिवार से है। यदि यह सच है और आरुषि का सच तो समय ही बताएगा, मगर इस बहाने कुछ सामाजिक प्रश्नों की पड़ताल की जा सकती है।

स्वतंत्रता की चाह और रोजगार की मजबूरी में संयुक्त परिवारों की परंपरा समाप्तप्राय हो चली है। दादा-दादी, ताऊ- ताई या चाचा-चाची के बीच पलते बच्चों को न तो कभी अकेलेपन का अहसास होता है और न ही उन्हें किसी भी तरह की मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन अब ऐसा संभव नहीं हो पाता, ऐसे में यदि माता-पिता दोनों कामकाजी हों तो फिर बच्चों को निर्मम आया के भरोसे छोड़ा जाना मजबूरी होगी।

भौतिकता की दौड़, महत्वाकांक्षा के पंख और लगातार आधुनिक होते जाने के 'भ्रम' के बीच बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, माता-पिता समझ ही नहीं पाते... और फिर बड़े होते बच्चे क्या ग्राह्य-अग्राह्य ग्रहण कर रहे होते हैं, इसकी तरफ ध्यान देने का माता-पिता के पास न तो समय होता है और न ही वे इस तरफ ध्यान देना जरूरी समझते हैं।

किशोर होते बच्चों को अपनों की जरूरत होती है, लेकिन उनके हिस्से आता है, सूने घर के दरवाजे पर लटका बेजान ताला... टीवी का रिमोट या फिर उनकी एक क्लिक से खुलती पूरी दुनिया, उसमें बहुत कुछ ऐसा भी जो उनकी उम्र के हिसाब से ठीक न हो। शायद ऐसे ही किसी समय में आरुषि ने अपने नौकर की ओर हाथ बढ़ाया होगा...! उस पर टीवी और इंटरनेट के माध्यम से समय से पहले खुलते दरवाजे... कहाँ विराम होगा...?

इस सबके बीच अभिभावकों को अपने बच्चों को स्वयं ही परिपक्व होने के लिए छोड़ने की मजबूरी आ पड़ती है। जब बच्चों को सहारे की जरूरत होती है तब यदि 'अपने' साथ नहीं हों तो फिर वे 'गिर-पड़' कर ही चलना सीखते हैं। ऐसा ही आरुषि के साथ भी हुआ होगा। फिर क्या पता डॉ. तलवार और उनकी सहकर्मी डॉ. दुर्रानी के बीच के संबंध की क्या तस्वीर उसके किशोर मन पर आई होगी...?

ज्यादातर मामलों में होता यह है कि जैविक माता-पिता कभी-कभी ही वास्तविक माता-पिता हो पाते हैं। जन्म देना एक बात है और अभिभावक होकर बच्चों की समस्याओं, उलझनों, जरूरतों को महसूस करना और उन्हें सुलझाना, समझाना दूसरी बात है। बच्चे को जन्म देना एक प्रक्रिया का हिस्सा होता है, लेकिन 'माता-पिता' होना प्रक्रिया नहीं आधुनिक जटिल जीवन की मजबूरी है। ऐसे में यदि बच्चों को सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाता तो, या तो उनमें भटकाव आएगा या फिर नैराश्य...! अब जबकि खुले समाज में बच्चा बड़ा हो रहा है तो उसकी समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता की जरूरत भी बढ़ी है। अब बच्चे के लिए 'सब-कुछ' जुटा देने से कुछ नहीं होगा, उससे आगे बढ़कर बच्चों की जरूरतों को, उनके मन को, उनकी उलझन को समझना होगा।

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