कितना त्रस्त है बचपन

Webdunia
- अनवर बड़नगर ी

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उत्तरप्रदेश में इटावा के पास कुछ दिन पहले एक बच्ची की कुछ पुलिसकर्मियों द्वारा टीवी चैनल पर पिटाई देखकर दिल पसीज उठा। कहीं निठारी कांड, कहीं अबोध बच्चियों से बलात्कार, तो कहीं शिक्षकों की बेरहमी और अन्य ऐसी घटनाओं से हमारे यहाँ बचपन कितना त्रस्त है, यह सोचकर ग्लानि-सी होती है।

आजकल बच्चों के साथ निर्मम व्यवहार इस कदर आम हो गया है, जैसे वायु में प्रदूषण। इस निर्ममता को परिभाषित करना एक दुष्कर कार्य है। अक्सर तो हमें पता नहीं चलता कि हम बच्चों के प्रति बेरुखी दिखा रहे हैं। बच्चे अमीर घर के हो या गरीब घर के वे प्रताड़ना, कोई प्रतिबंध, कोई अवहेलना सहन करते हुए ही बड़े होते हैं।

अतिसंपन्न और अमीर घरों के बच्चे जब कुछ समझने लायक होते हैं तो सबसे पहले माँ और आया का फर्क समझाया जाकर उसी आया से निर्ममता से दूर कर दिया जाता है जिसकी स्नेहभरी गोद में वे पले हैं। जैसे-जैसे उनकी समझ बढ़ती जाती है, उसकी बाल सुलभ स्वच्छंदता को रौंदते हुए उन्हें मैनर्स और एटिकेट्स की परिधि में घेर दिया जाता है।

  राह चलते किसी खिलौने की दुकान के आगे रुककर खिलौने देखते रहने पर दुकानदार द्वारा झिड़क दिया जाता है। कहीं किसी जगह अचरजभरी वस्तु को उत्सुकतावश छू लेने भर से चोर समझ लिया जाता है और शारीरिक प्रताड़ना भी दी जाती है।      
मध्यमवर्गीय परिवारों में अपने बच्चों को अधिक बुद्धिमान बनाने, दिखाने की प्रतिस्पर्धा में हम उन पर क्षमता से अधिक मानसिक बोझ लादकर उनकी उन्मुक्तता को घुटन में बदल देते हैं। उनको नैसर्गिक खेल-कूद, उछल-कूद से रोककर उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

स्कूलों में भी किसी कारणवश होमवर्क करके नहीं ले जाने पर डाँट पिलाई जाती है, झिड़का जाता है और अन्य बच्चों का उदाहरण देकर उनमें हीनभावना भरी जाती है।

कभी-कभी तो इतनी पिटाई कर दी जाती है कि बच्चे स्कूल के नाम से डरने लगते हैं, अपने टीचर से खौफजदा रहने लगते हैं और उनके प्रति अपने मन में नफरत पालने लगते हैं। अपनी खीझ जब वे किसी पर नहीं उतार पाते तो कुंठित हो जाते हैं और अपने बड़ों के प्रति कठोर होने लगते हैं।

गरीब घर के बच्चे तो निर्मम परिवेश में ही पलकर बड़े होते हैं। इन्हें गरीबी लाड़-प्यार से वंचित ही रखती है। खिलौने, नए कपड़े माँगने पर डाँट-फटकार मिलती है और पिटाई भी होती है। यहाँ तक कि यदा-कदा घर का बासी, रुखा-सूखा भोजन भी थोड़ा अधिक खाने पर इनको भुक्खड़ और हब्शी जैसे शब्दों से परिचित कराया जाता है। अपने घर में, मुहल्ले में और बस्ती में तिरस्कार और अपमान सहना इनकी नियति होती है। पड़ोस या मुहल्ले के साफ-सुथरे ओटले पर खेलने से इन्हें रोका जाता है।

रोकने वाले पहले खुद इनकी पिटाई करते हैं, और शिकायत करके इनके माँ-बाप से भी पिटवाते हैं। राह चलते किसी खिलौने की दुकान के आगे रुककर खिलौने देखते रहने पर दुकानदार द्वारा झिड़क दिया जाता है। कहीं किसी जगह अचरजभरी वस्तु को उत्सुकतावश छू लेने भर से चोर समझ लिया जाता है और शारीरिक प्रताड़ना भी दी जाती है। कोई गिरी पड़ी वस्तु या उठाया हुआ पैसा इनके हाथों में दिखने पर भी इन्हें चोर कहलाने का पात्र बना देता है जबकि तब तक तो ये बच्चे चोरी शब्द या चोरी के व्यावहारिक रूप से परिचित भी नहीं होते होंगे।

इन परिस्थितियों से बचने के लिए या अपनी आय बढ़ाने के लिए माँ-बाप बच्चों को बाल मजदूरी में लगा देते हैं, जहाँ से अपने पर निर्मम और कठोर व्यवहार सहते हुए स्वयं आगे चलकर समाज के प्रति कठोर हो जाते हैं। शायद ऐसी ही कोई मानसिक विकृति उन पुलिसकर्मियों के मन-मस्तिष्क में रही होगी जिसकी परिणतिस्वरूप मात्र २८० रुपए की चोरी का इल्जाम सहने वाली उस अबोध बच्ची को निर्ममता से मारा-पीटा गया।

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