गर्मी में शीतल बयार हैं पापा

Webdunia
- विवेक हिरदे
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हम चार भाई-बहन, तीन बड़ी बहनें और छोटा मैं, बेसब्री से पापा के टूर से लौटने की प्रतीक्षा किया करते थे। तब मैं दस वर्ष का था। पापा माह में बीस दिन से भी अधिक समय दौरे पर ही रहा करते थे और ये दिन हम सभी के लिए काफी बेचैनी भरे रहते थे। दिन में या कभी रात-बेरात घर के बाहर रिक्शा रुकने की आवाज इतना आह्लादित कर देती थी कि बस...। पर हाँ रिक्शे से जब कोई और सवारी बाहर निकलती थी, तो फिर मायूसी के आलम की भी मत पूछिए।

खैर, माँ और बच्चों पर खासी चर्चाएँ और पर्याप्त काव्य लिख जा चुका है, लेकिन एक पिता से बच्चा कितना ज्यादा भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है, इस पर अभी और चिंतन अपेक्षित है। पापा जब लंबे दौरे पर जाते थे, तब माँ की भीगी आँखें कभी हम देख लेते थे। कभी पापा की विदाई यानी 'टाटा पापा, जल्दी आना' और कुछ दूर तक रिक्शा के पीछे दौड़ने में ये सजल आँखें हमसे अनदेखी-सी हो जाती थीं। तब एक गीत काफी चर्चित था, जो हम पापा की रवानगी पर गाते थे, 'पापा जल्दी आ जाना, सात समुंदर पार से, गु‍ड़ियों के बाजार से, अच्छी सी गुड़िया लाना' फिर माँ धीरे से बुदबुदाती थी, 'चाहे गुड़िया ना लाना' फिर हम गाते थे, 'पापा जल्दी आ जाना...।'

गजब की कुव्वतें-कशिश थीं इन पंक्तियों में। आज पापा को गुजरे अरसा बीत गया, लेकिन वे कई दृश्य मानस-पटल पर बेखौफ-बेधड़क उभर आते हैं।

' पापा' या 'बाबा' या 'बाबूजी' या अन्य कोई भी स्नेहिल संबोधन अपने आप में संवेदनाओं और प्रेम की इतनी मिठास समेटे हुए हैं कि इसका वर्णन संभव नहीं है। भीषण गर्मी में शीतल बयार हैं पापा। आँसुओं की झड़ी पर मीठी मुस्कान हैं पापा। बुझे दिलों पर हौसले की दस्तक हैं पापा। झिझकते आशंकित कदमों पर आत्मविश्वास से थामा हाथ हैं पापा। पिता सब कुछ हैं। जीवन उनके बिना अधूरा नहीं शून्य है। जैसे सब कुछ मिल जाता है, लेकिन माँ नहीं मिलती, वैसे ही पिता भी नहीं मिलते।
  हम चार भाई-बहन, तीन बड़ी बहनें और छोटा मैं, बेसब्री से पापा के टूर से लौटने की प्रतीक्षा किया करते थे। तब मैं दस वर्ष का था। पापा माह में बीस दिन से भी अधिक समय दौरे पर ही रहा करते थे और ये दिन हम सभी के लिए काफी बेचैनी भरे रहते थे।      


इंदिरा गाँधी अपने इस्पात से इरादों और कुशल राजनेता होने का श्रेय सदा नेहरूजी को ही देती थीं।

गाँधीजी कहते थे-' प्रत्यक्ष रूप से आप मुझे सच्चा देशभक्त मानकर राष्ट्रपिता कहकर संबोधित कर रहे हैं, परंतु परोक्ष रूप से इस हेतु मेरे पिता (श्री करमचंद गाँधी) वंदनीय हैं, जिन्होंने मुझमें ये संस्कार डाले हैं।'
जब बच्चा रूठ जाता है तो बहते आँसुओं को देखकर कठोर से कठोर पिता का अंतर्मन भी पसीज जाता है।

' आशीर्वाद' फिल्म की नायिका के हृदय में गहरे तक पिता से बिछुड़ने के इतने तीव्र स्पंदन होते हैं कि वह उन्हें कभी भुला ही नहीं पाती। बचपन में उसके पिता यानी अशोककुमार ने 'नीना की नानी की नाव चली' और 'रेलगाड़ी' गीतों द्वारा उसका इतना मनोरंजन किया था कि नायिका के बाल मन में पिता के अनुपम प्रेम की फसल लहलहाती हुई सदैव दिखती रहती है और युवावस्था में भी वह गाती है, 'एक था बचपन, बचपन के एक बाबूजी थे।'
कबीरदासजी के 'ढाई आखर प्रेम' में से आधा आखर और घटाकर दो आ‍खर पिता के जो श्रद्धा से आत्मसात कर ले, उनकी हिमालय सी महानता को जो सच्चे मन से पूज ले, उसके लिए जीवन में निराशा का कोई स्थान नहीं रहता। परमपिता ईश्वर को हमने साक्षात तो नहीं देखा है, परंतु उसका अनुभव हम कई बार करते हैं। कभी चंचल मन यह कल्पना करता है कि काश वेदनाओं की तीव्र अनुभूतियों में प्रभु हमें थोड़ा सा सहला दे।

लेकिन ऐसा ठीक-ठीक संभव नहीं है। यह कमी पूरी करते हैं हमारे पिता। हम उन्हें नित्य देखते भी हैं और हमारे आँसुओं को स्नेह से पोंछते हुए भी पाते हैं।

अब धर्म और वेद तो यही कहते हैं न कि सबसे बड़ा परमपिता है, परंतु सच बताइए कि हमारे लिए सबसे बड़ा कौन है?

रफी साहब का गीत सुना है आपने? 'उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी जरूरत क्या होगी, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी। 'सच्चा, निर्मल गीत है। मैं इसमें एक छोटी-सी पंक्ति जोड़ने का साहस कर रहा हूँ जो शायद मेरे दिवंगत पिता ही दे रहे हैं। 'हे पिता तेरी सीरत से अलग भगवान की सीरत क्या होगी?' ईश्वर हमें हर जनम में यही पापा दें, इस जनम वाले।
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