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महंगा हमेशा ही अच्छा नहीं, खुली लूट भी हो सकती है

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, शनिवार, 5 सितम्बर 2020 (16:48 IST)
जो जितना महंगा है वह उतना अच्छा ही हो, यह हमेशा जरूरी नहीं है। किस वस्तु की क्या कीमत हो, यह तय करने का कोई पैमाना और मापदंड दुनियाभर में अभी तक बना नहीं है और शायद बनेगा भी नहीं। फिर भी अधिकांश लोग महंगे को खुली लूट नहीं मानते या महंगे को लूट की संज्ञा नहीं देते। महंगे को पाने की लालसा मनुष्य में लगातार बनी रहती है, पर नकारने की हिम्मत हमेशा मन में नहीं आती।
 
यह हमारे मन, सोच और जीवन का अजीब विरोधाभास है कि हम महंगे को लेकर अंतरमन में कुढ़ते जरूर हैं, पर उसे नकारने, उस पर सवाल उठाने या उसे खुली लूट मानने की मानसिक तैयारी बन ही नहीं पाती। एक सवाल यह भी मन में आता है कि महंगे को नकारेंगे तो जमाना हमें गरीब, दीन-हीन और बिना आर्थिक हैसियत का मानेगा। यह मिथ्या भय भी महंगे के साम्राज्य विस्तार होने का एक महत्वपूर्ण कारक है। पैसे से ही चलने वाली सभ्यता पैसे की जकड़न से मनुष्य मन को पैसा-केंद्रित बना देती है, नतीजा मनुष्य अपने जीवन की हर गतिविधि को पैसे के आधार पर ही जानता, मानता और समझता है।
 
पैसे से अलग कोई विचार मन-मस्तिष्क में ठहरता ही नहीं है। इससे हम सब में यह समझ विकसित होती जा रही है कि पैसे से मूल्यवान कुछ भी नहीं है जबकि पैसे के आविष्कार ने मनुष्य के प्राकृतिक जीवन के स्वावलंबन को न के बराबर करते हुए पैसे के परावलंबन को रोजमर्रा की जिंदगी में प्रविष्ट कर दिया। हमारे जीवन में आई परावलंबन की अतिशय प्रतिष्ठा ने पैसे को जिंदगी का पर्याय बना दिया है।
 
पैसे की अतिशय प्रतिष्ठा ने आज हम जहां खड़े हैं, वहां जो वस्तु, विचार, सेवा या तकनीक बहुत महंगी है, उसे हम पहली निगाह में ही अच्छा ही मानने के आदी होते जा रहे हैं। इसका नतीजा यह होने लगा है कि हम सबका जीवन निरंतर तनावपूर्ण इसलिए होता जा रहा है कि महंगा जीवन हमारे जीवन का क्रम बन गया है। महंगी व मनमानी कीमत को जुटाने में ही हमारी जिंदगी की जीवंतता के लगभग खात्मे के साथ अंतहीन असंतोष हमारे जीवन में आता जा रहा है और फिर भी जानते-बूझते हुए भी हम सब मूकदर्शक बने हुए हैं।
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हम महंगी चीजों व सुविधाओं को इसलिए अपनी जिंदगी में अपना रहे हैं कि हमें लगता है कि महंगी चीजों को नकारेंगे तो हम कमजोर वर्ग के माने जाएंगे। हमारी इसी सोच ने हर महंगी वस्तु और सुविधा को खुली लूट का निरंतर जरिया बना दिया है। महंगे का आकर्षण बढ़ेगा तो जीवन का तनाव कभी खत्म ही नहीं होगा।
 
जीवन के लिए आवश्यक जितनी भी बुनियादी जरूरतें हैं, वे सब अमूल्य हैं फिर भी उनके महंगे-सस्ते होने का सवाल अभी तक मानव के मन-मस्तिष्क में आया नहीं है। हवा, प्रकाश व पानी अमूल्य हैं, पर प्रत्येक मनुष्य के लिए सर्वसुलभ है। मनुष्य ने अपने कृतित्व और भाष्य से जिन-जिन जरूरतों को मनुष्य की बेहतरी या विकास के लिए जरूरी बताया, वे सब निरंतर महंगी होती जा रही हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तो दिन दूनी और रात चौगुनी गति से महंगी होता जा रही है और दुनियाभर में लाभ-हानि का मुक्त व्यापार बनती जा रही है। जिसे ताकतवर से लेकर कमजोर तबके तक सब लोग टुकुर-टुकुर देखते हैं, दु:खी होते हैं, रोते और झल्लाते रहते हैं फिर भी न केवल महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सहन करते हैं, वरन उसे विकास की जरूरत भी बताते हैं।
 
यह विरोधाभास तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि आधुनिक समाज समान और सर्वसुलभ सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए अपनी जबान क्यों नहीं खोलता या सवाल क्यों नहीं उठाता? समान शिक्षा हम क्यों नहीं चाहते? अपने पूरे जीवन को बेहतर बनाने के लिए हम शिक्षा की कल्पना करते हैं, पर हमारा और हमारे बच्चों की जिंदगी को हम तनावमुक्त नहीं बना पाते।
 
भारत जैसा देश, जहां 80 करोड़ से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आती है, में महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा लगातार महंगी होती जा रही है। इतनी महंगी कि उच्च शिक्षा के लिए उच्च मध्यम वर्ग का बैंक से ‌ऋण लेना सामान्य बात हो गई है और स्वास्थ्य के लिए लाखों का बीमा करना समाधान हो गया। फिर भी लोग वैचारिक रूप से लाचार और महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा लेते रहने के न केवल आदी हो गए, वरन गर्व करने लगे कि देखो कितनी महंगी शिक्षा हम अपने बच्चों को दिला रहे हैं और हमने तो बीमा भी करा लिया है। महंगी वस्तुओं और सुविधाओं का आदी होना एक तरह से खुली लूट को जीवनावश्यक गतिविधि बना देने जैसी मन:स्थति का बन जाना है।
 
हमारी समझदार और नासमझदार आबादी महंगाई पर मौन है। जीवन जीने में आह-आह हो रही है फिर भी महंगी वस्तुओं और सुविधाओं की वाह-वाह करते नहीं थकती। महंगा मोबाइल, बाइक, कार, मकान, शिक्षा संस्थान और चिकित्सा संस्थान का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा है। एक जमाने में देश के हर हिस्से में लोग अपने प्रतिरोध जुलूस में खुलकर नारा लगाते थे- 'लूटने वाला जाएगा, कमाने वाला खाएगा, नया जमाना आएगा।' आज ऐसा नया जमाना आ गया कि लूटने वाला हम सबका सिरमौर है। महंगा हमारी पहली पसंद है।
 
महंगा चुनौती का विषय न हो जीवन में वैभव का प्रदर्शन हो गया। हमें महंगे से नहीं, सस्ते से परेशानी होती है। सस्ती आवागमन व्यवस्था, शिक्षा-चिकित्सा सुविधाओं को दोयम दर्जे में धकेलकर हम आगे आकर महंगी चीजों को जीवन का अंग बना चुके हैं। महंगी वस्तुओं की हमारी दीवानगी ने खुली लूट को जायज स्वरूप का बना दिया है। इसी का नतीजा हुआ है घोर विषमता और विरोधाभासों से भरपूर हमारा समाज और लोकतंत्र खुले लूटतंत्र में अपने आप बदल गया है।
 
हम जमीनी स्तर पर मजबूत लोकतंत्र बनाने में भले ही सफल न हुए हों, पर जमीनी स्तर पर सरकारी-असरकारी लूटतंत्र खड़ा करने में जरूर कामयाब हुए हैं। हम महंगे को लूट के बजाय अपनी हैसियत बढ़ना समझने लगे हैं तभी तो महंगा हमारी चर्चा और चिंता का नहीं, आकर्षण का विषय बन गया है। यह नए जमाने की खुली हकीकत है जिसमें हम लूटतंत्र में भागीदारी पसंद करते हैं और लोकतंत्र में अनमने रहना पसंद करने लगे हैं।

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