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यह युद्ध नहीं, तो और क्या है?

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सुरेश डुग्गर

, शनिवार, 12 नवंबर 2016 (14:18 IST)
युद्ध के मायने क्या होते हैं? आम नागरिक के लिए सीमा पर गोलों की बौछार और राजनेताओं के लिए घोषित रूप से सेनाओं के तीनों अंगों को शत्रु ठिकानों को तबाह करने की अनुमति के निर्देशों को ही युद्ध के मायनों के रूप में लिया जाता है। यही कारण है कि जिन्हें तोपों से छूटने वाले गोलों के स्वर और उनके फूटने के धमाकों के कारण अपने घरों की तबाही को देखना पड़ रहा है अगर वे आग उगलने वाली एलओसी और इंटरनेशनल बॉर्डर पर पैदा वर्तमान परिस्थितियों को युद्ध के रूप में वर्णित करते हैं, तो राजनेता इसे युद्ध के रूप में स्वीकार करने को तैयार इसलिए नहीं हैं, क्योंकि इस जंग में थलसेना के सिवाय सेना के किसी अन्य अंग की भागीदारी नहीं है।
 
देखा जाए तो आज जंग के मायने बदल गए हैं। जंग के मायने मात्र अब यही नहीं रह गए हैं कि सेना के तीनों अंग- थलसेना, नौसेना और वायुसेना मिलकर शत्रु को सबक सिखाने के लिए एकसाथ मैदान में कूद पड़ें तो उसे ही युद्ध कहते हैं बल्कि सेना के किसी भी एक अंग के साथ ही निरीह व मासूम नागरिकों को क्षति पहुंचाने के प्रयासों में अगर युद्ध का साजो-सामान तथा नीतियों का इस्तेमाल शत्रु पक्ष द्वारा किया जा रहा हो तो उसे जंग और युद्ध के शब्दों में निरूपित करना ही बेहतर होगा।
 
और ठीक यही स्थिति आज 1202 किमी लंबी उस सीमा पर है, जो पाकिस्तान के साथ आतंकवादग्रस्त राज्य जम्मू-कश्मीर के साथ सटी हुई है। हालांकि इस स्थिति को जंग का नाम ही दें तो बेहतर होगा। आखिर जंग का नाम नहीं दें तो क्यों नहीं दें? क्या यह जंग नहीं है जिसमें नागरिकों और सैनिक ठिकानों पर युद्धविराम के जारी रहने के बावजूद भारी तोपखाने की गोलाबारी ने सब कुछ तबाह ही नहीं कर दिया बल्कि हजारों की संख्या में लोगों को बेघर करने के साथ ही बड़ी संख्या में मासूम नागरिकों की जानें भी ले लीं। इतना अवश्य है कि इस जंग का ऐलान किसी भी पक्ष की ओर से नहीं था जिसमें भारी तोपखानों ने जो भयानक तबाही मचाई है वह इतनी भयानक थी जिसके निशान अभी भी इसके शिकार होने वालों के सीनों पर हरे हैं।
 
ऐसे में इंटरनेशनल बॉर्डर और एलओसी के इलाकों में रहने वालों का जीवन कैसा है, मात्र सुनने से ही रोंगटे खड़े हो जातें हैं और जब उनकी बदहाल जिंदगी को आंखों से देख जाता है तो बयां करने को शब्द ही नहीं मिलते हैं। इटरनेशनल बॉर्डर और एलओसी पर रहने वालों की हजारों दर्दभरी गाथाएं हैं। ऐसी गाथाएं जिन्हें गाने वाला खून के आंसू रोने को मजबूर हो जाता है।
 
जगतार सिंह को ही लें। इंटरनेशनल बॉर्डर से मात्र 200 गज की दूरी पर स्थित जगतार सिंह के घर की चारदीवारी भी अब उस ओर से आने वाली गोलियों को रोक नहीं पाती हैं। नतीजतन परिवार का एक सदस्य तो सदा के लिए मौत की नींद सो गया है और एक अन्य बेटा अजीत सिंह, जिसका पूरा परिवार आज परेशानी की हालत में है, अभी भी जम्मू के सरकारी अस्पताल में जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है। उसके पेट में गोलियां लगी हैं
 
क्या करें, जानवरों को भूखा मरते तो नहीं देख सकते थे और उनके लिए चारे का प्रबंध करना जरूरी था और खेतों में पकी फसलों को भी तो काटना है, अपने बुढ़ापे का सहारा बन चुकी लाठी को टेकता हुआ जगतार सिंह अजीत सिंह की बेटियों के पास आ खड़ा हो जाता है और जगतार सिंह के ठीक पीछे पाकिस्तानी सीमांत चौकी का टॉवर है, जो अब खतरे का प्रतीक बन चुका है, क्योंकि पाक सैनिक गोलीबारी के लिए उसका इस्तेमाल करने लगे हैं।
 
78 वर्षीय जगतार सिंह आज हर दिन नई मौत मरने को मजबूर है। झुकी हुई कमर को उसके परिवार के एक सदस्य की मौत ने और झुका दिया है और हाथों में पकड़ी लाठी को वह अब अपने बुढ़ापे का सहारा समझ रहा है, क्योंकि अभी भी उसके परिवार का एक सदस्य, जिसकी कमाई से परिवार को पेट में डालने के लिए निवाला मिला करता था, अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच द्वंद्व कर रहा है।
 
हालांकि तीन बेटियों तथा एक बेटे के बाप अजीत सिंह का कसूर मात्र इतना था कि वह अपने उन खेतों में कई दिनों से भूखे पशुओं के लिए चारा काटने चला गया था, जो सीमा से सटे थे। और जम्मू के इंटरनेशनल बॉर्डर से सटे सीमांत गांवों में आज यह कथा सिर्फ एक जगतार सिंह या फिर अजीत सिंह की नहीं है बल्कि प्रत्येक उस घर की कहानी बन चुकी है जिसका कोई न कोई सदस्य या तो पाक गोलीबारी का शिकार हो गया या फिर अभी मौत से जूझ रहा है।
 
अब तो स्थिति यह हो चली है कि भारतीय सीमा सुरक्षाबल के जवानों ने भी इन गांवों के लोगों के खेत में जाने की पांबदी लगानी आरंभ कर दी है, क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई गांववासी पाक गोलियों का शिकार हो। वे ऐसा इसलिए भी नहीं चाहते, क्योंकि गांव में चिकित्सा सुविधा का साधन भी नहीं है और किसी के घायल होने और मृत होने पर उनकी परेशानियां बढ़ जाती हैं। अक्सर यही हुआ है कि घायलों को समय पर चिकित्सा सहायता न मिल पाने के कारण कई दम तोड़ गए।
 
अपने खेतों में पकी हुई फसलें देख कइयों की आंखें भर आती हैं। कितनी मेहनत से हमने फसलें उगाई थीं और आज स्थिति यह है कि हम उन्हें छू तक नहीं सकते, सीमांत गांव न्यू कान्हा चक के अमलोक का कहना था। उसका अपना खेत सीमा पट्टी से पूरी तरह से सटा हुआ है और ऐसा भी नहीं है कि उसके परिवार के किसी सदस्य ने खेतों में जाकर फसल काटने का प्रयास न किया हो बल्कि खेतों में पहुंचने पर उनका स्वागत पाक गोलियों तथा मोर्टार के गोलों ने ही किया है।
 
सबसे बुरी दशा सीमावर्ती किसानों की है। कारण स्पष्ट है कि आज सीमा पर बुवाई, कटाई और पेट की भरपाई पाकिस्तानी सेना पर ही निर्भर हो चुकी है। अक्सर यही होता है सीमा पर। किसी तरह से अगर सीमा समझौते कह लीजिए या फिर सीजफायर की आड़ में फसल बो भी ली जाए तो उसे काटने की हिम्मत जुटा पाना सीमांत क्षेत्रों के नागरिकों की बस की बात नहीं होती, क्योंकि खेतों में जाने पर गोलियां उनका स्वागत करती हैं। ऐसे में खेतों का क्या होता है? अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। फसलें खड़ी-खड़ी ही सड़ जाती हैं।
 
खेतों को किसान जोत सकें, अक्सर इसके लिए बीएसएफ को धमकीपूर्ण रवैया भी अपनाना पड़ता है। अधिक दिन नहीं हुए, पाकिस्तानी सेना ने गोलीबारी न करने के समझौते को तोड़ डाला इस सेक्टर में तो बीएसएफ कमांडेंट ने हिम्मत दर्शाई और पाकिस्तानी रेंजरों को धमकी दे डाली। अगर उन्होंने भारतीय किसानों पर गोली चलाई तो वे उनके किसानों को नहीं बख्शेंगे। हालांकि इस धमकी का असर अधिक दिनों तक नहीं चल पाया, क्योंकि रेंजरों का स्थान पाक सेना के नियमित जवानों ने ले लिया, जो ऐसी धमकी को धमाके में बदलने के लिए आतुर हैं।
स्थिति यह है कि कभी बुवाई के समय और कभी फसलों की कटाई के समय पाक बंदूकों के मुंह खुलने लगे हैं नतीजतन अगर फसल लग भी जाए तो उसे काट पाना संभव नहीं। परिणाम दोनों ही तरह से पेट की भरपाई प्रभावित का होना है।
 
यही कारण है कि फसलों की बुवाई और कटाई पर जिन किसानों का जीवन निर्भर है उनके पेट की भूख की भरपाई अब पूरी तरह से पाक सैनिकों के रहमोकरम पर है। जिनके दिमाग पर युद्ध का साया ऐसा मंडरा रहा है कि वे बस दिन-रात गोलियों की बरसात कर उन सभी कदमों को रोक दे रहे हैं, जो अपने खेतों की ओर बढ़ते हैं। ये कदम कभी अपनी पेट की भूख शांत करने की खातिर और कभी अपने जानवरों की भूख शांत करने की खातिर खेतों की ओर बढ़ते हैं।
 
सीमावर्ती इलाकों में पाकिस्तान द्वारा 13 सालों से चले आ रहे संघर्ष विराम को बार-बार तोड़ने का परिणाम यह है कि अब सीमांत इलाकों में जिंदगी और मौत के बीच कोई अंतर भी नहीं रह गया है। अगर मौत पाक गोलीबारी देती है तो पलायन भी जिंदगी नहीं देता। बस मौत का साम्राज्य है। ऐसा साम्राज्य जिसके प्रति अब यह कहा जाए कि वह अमर और अजय है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस साम्राज्य पर शासन करने वाले हैं तोप के गोले और उनकी रानियां हैं बंदूकों की नलियों से निकलने वाली गोलियां।
 
कोई फासला भी नहीं है यहां जिंदगी और मौत के बीच। अभी आप खड़े हैं और अभी आप कटे हुए वृक्ष की तरह ढह भी सकते हैं। आपको ढहाने के लिए सीमा के उस पार से मौत बरसाई जाती है। खेतों में जाना या फिर नित्य कर्म के लिए खेतों का इस्तेमाल तो भूल ही जाइए। घरों के भीतर भी बाथरूम का इस्तेमाल डर के कारण लोग नहीं करते। ऐसा इसलिए कि कहीं गोली दीवार को चीरकर आपके शरीर में घुस गई तो आपकी क्या स्थिति होगी?
 
यह सच है कि प्रतिदिन लोग मौत का सामना कर रहे हैं। रात को जमीन पर सोने के बजाय खड्ड में सोने पर मजबूर हैं सीमावासी। हालांकि अब वहां भी खतरा बढ़ा है। मोर्टार के इस्तेमाल के उपरांत खड्ड में ही कहीं दफन न हो जाएं इसी डर से रात कहीं तथा दिन कहीं ओर काटने का प्रयास करते हैं उन गांवों के लोग। यहां पाक गोलीबारी ने जिंदगी और मौत के बीच के फासले को कम कर दिया है।
 
एलओसी पर तो 1947 के पाकिस्तानी हमले के उपरांत ही जिंदगी और मौत के बीच फासला कम होने लगा था और आज 69 सालों के उपरांत वहां के निवासी आदी हो गए हैं, लेकिन जम्मू फ्रंटियर की जनता के लिए यह नया है। वे इसके अभी अभ्यस्त नहीं हुए हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि इंटरनेशनल बॉर्डर होने के कारण वे अक्सर इस धोखे में रहते हैं कि पाकिस्तान यह सब करना छोड़ देगा।
 
जम्मू के इंटरनेशनल बॉर्डर पर मौत का खेल वर्ष 1995 में आरंभ हुआ था। जब भारत सरकार ने आतंकवादियों की घुसपैठ तथा हथियारों की तस्करी को रोकने की खातिर इस 264 किमी लंबी सीमा पर तारबंदी करने की घोषणा की तो पाकिस्तान चिल्ला उठा। उसकी चिल्लाहट में सिर्फ स्वर ही नहीं था बल्कि बंदूक की गोलियों की आवाज भी थी। नतीजतन मौत बांटने का जो खेल जुलाई 95 में आरंभ हुआ वह अब जिंदगी और मौत के बीच के फासले को और कम कर गया है।
 
मौत तथा जिंदगी के बीच का फसला दिनोदिन कम होता गया। अब तो स्थिति यह है कि दोनों के बीच मात्र कुछ इंच का फासला रह गया है। हालांकि इस मौत से बचने की खातिर नागरिक पलायन का रास्ता तो अख्तियार कर रहे हैं लेकिन वे वापस लौटकर भी आते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगर सीमा पर पाक गोलीबारी उनके लिए मौत का सामान तैयार करती है तो पलायन करने पर सरकारी अनदेखी उन्हें भूखा रहने पर मजबूर करती है अर्थात सीमावासियों के लिए सरकार और पाक गोलीबारी में कोई खास अंतर नहीं है।
 
13 साल हो गए हैं सीमाओं पर सीजफायर को, पर पाकिस्तानी सेना ने हमेशा ही इसकी पवित्रता को रौंदा है। यही कारण था कि एलओसी ही नहीं, इंटरनेशनल बॉर्डर से सटे गांवों के लोगों को भी पलायन के लिए लगातार बोरिया-बिस्तर बांधकर रखना पड़ रहा है। सीजफायर के बावजूद होने वाली मोर्टार और छोटे तोपखानों के गोलों की बरसात सिर्फ तबाही ही ला रही है। भयानक तबाही। फिर इस तबाही का परिणाम होता है पलायन। जब गोलों की बरसात रुकी तो कुछेक सीमावासियों ने अपने गांव लौट अपने मकानों की हालत देखने की हिम्मत जुटाई थी। अपने मकानों की दुर्दशा देख गांववासियों की आंखों से बरबस आंसू निकल पड़ते हैं, क्योंकि घर क्या, आधी-अधूरी खड़ी टूटी-फूटी दीवारें पाकिस्तानी जुल्मोसितम की कहानी सुना रही थीं।
 
ऐसी दशा सिर्फ एक मकान की नहीं है। शांतिकाल में और सीजफायर के बावजूद पाक गोलाबारी का निशाना बने गांवों के अधिकतर ईंट-मिट्टी से बने मकान गोलों की मार को सह नहीं पाए थे। हालांकि एक बार भारतीय सैनिकों ने उन्‍हें गांवों में कदम रखने से भी रोका था। सैनिकों को भय था कि गांव में कहीं अनफूटे तोप के गोले भी हो सकते हैं, जो खतरनाक साबित हो सकते हैं।
 
गांवों की हालत देख लोग असमंजस की स्थिति में फंसे हुए हैं। घर लौटने की चाहत तो है, लेकिन यह सवाल बार बार कौंधता था कि अगर उन्होंने मेहनत कर मकानों को पुन: खड़े भी कर लिया तो इस बात की क्या गारंटी कि पाकिस्तान अपने वचन पर कायम रहेगा और सीजफायर कायम रहेगा। नतीजतन कई गांववासी सच में दोराहे पर हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन गांववासियों के लिए सच में युद्ध शुरू हो चुका है। उनके लिए आए दिन युद्ध हो रहा है चाहे सरकार इसे घोषित युद्ध न मानती हो।

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