The Bengal Files, Noakhali massacre of 1946: भारतीय इतिहास में कई ऐसे रक्तरंजित अध्याय दर्ज हैं जिन्हें याद करते ही मन सिहर उठता है। 1946 का नोआखाली उन काले अध्यायों में शामिल है, जिसकी पीड़ा आज भी इतिहास की किताबों, शोधों, संस्मरणों और लोक स्मृतियों में जीवित है। यह कोई साधारण दंगा नहीं था— यह एक पूरे समाज की त्रासदी थी, जिसमें राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट, धार्मिक ध्रुवीकरण और प्रशासन की विफलता का घातक मिश्रण था।
नोआखाली की हिंसा केवल एक ज़िले की घटना नहीं, बल्कि विभाजन की आग में झुलसते भारत की वह दरार थी, जहां सत्ता संघर्ष, धार्मिक उन्माद और सामूहिक असहायता ने मिलकर इंसानियत पर सबसे बड़ा प्रहार किया। जानिए इस भयावह घटना का समग्र विश्लेषण — कैसे बनी इसकी पृष्ठभूमि, हिंसा के स्वरूप, गांधी का हस्तक्षेप, महिलाओं की भूमिका, प्रतिशोध की राजनीति और इतिहासकारों की दृष्टि।
धधकते बंगाल की भूमि : नोआखाली को समझने के लिए 1940 के दशक का बंगाल देखना होगा। 1943 का बंगाल अकाल, जिसमें लाखों लोग भूख से तड़पते हुए मरे, पहले ही ग्रामीण जीवन को तोड़ चुका था। प्रशासन की नाकामी, युद्धकालीन महंगाई, परिवहन संकट और खाद्यान्न की कालाबाजारी ने समाज में अविश्वास भर दिया था। राजनीतिक तनाव भी उतना ही तीखा था। मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग पर अडिग थी, जबकि कांग्रेस अखंड भारत का समर्थन कर रही थी। ब्रिटिश शासन के अंत की आशंका ने सत्ता को लेकर अस्थिरता बढ़ा दी थी।
16 से 19 अगस्त 1946 के बीच कोलकाता में भड़के सांप्रदायिक दंगे, जिन्हें ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स कहा जाता है, ने हिंसा की नींव मजबूत कर दी। जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग द्वारा अलग पाकिस्तान राज्य की मांग के समर्थन में बुलाए गए डायरेक्ट एक्शन डे ने शहर की गलियों को खून से लाल कर दिया। तीन दिनों में लगभग 5000 लोग मारे गए, एक लाख से अधिक बेघर हुए। इतिहासकार मार्कोविट्स क्लाउड ने अपनी पुस्तक 'The Calcutta Riots of 1946 : Mass Violence and Resistance' में इसे विभाजन से पहले का सबसे वीभत्स सांप्रदायिक नरसंहार बताया है।
इस हिंसा ने पूरे बंगाल में भय और अविश्वास की लहर पैदा कर दी। अफवाहें, प्रतिशोध और राजनीतिक प्रचार ने पूर्वी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में हिंसा की चिंगारी भड़का दी। यही चिंगारी अक्टूबर 1946 में नोआखाली के नरसंहार में बदल गई।
नोआखाली में हिंसा : आग जो गांवों तक फैल गई : 10 अक्टूबर 1946 की रात लक्ष्मी पूजा के अवसर पर रामगंज थाने के एक बाजार में तनाव बढ़ा। कुछ उकसावे भरे भाषण और अफवाहें हिंसा की शुरुआत बन गईं। शुरुआत कुछ घंटों की रही, लेकिन देखते ही देखते हिंसा आसपास के गांवों तक फैल गई। बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर, सन्द्वीप, हाजीगंज, फ़रीदगंज, चांदपुर, लक्षाम और चौद्दोग्राम तक आतंक फैल गया। संपर्क टूट गया, राहत नहीं पहुंची और प्रशासन निष्क्रिय रहा।
हत्या, आगज़नी, लूट, महिलाओं पर अत्याचार और जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाओं ने पूरे क्षेत्र को भयभीत कर दिया। मारे गए लोगों की संख्या विवादित है। ब्रिटिश अधिकारियों ने 'सैकड़ों' का अनुमान दिया, जबकि समकालीन गवाहियां कहीं अधिक संख्या की ओर इशारा करती हैं। लेकिन यह निर्विवाद है कि हजारों परिवार उजड़ गए और महिलाओं पर हुए अत्याचार ने समाज की अंतरात्मा हिला दी।
इतिहासकार राकेश बत्याल अपनी पुस्तक 'Communalism in Bengal : From Famine to Noakhali, 1943–47' में लिखते हैं कि यह हिंसा कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। अकाल, गरीबी, राजनीतिक ध्रुवीकरण और प्रशासनिक विफलता की पृष्ठभूमि में यह त्रासदी धीरे-धीरे आकार लेती गई।
जिन्ना की जिद और राजनीति की क्रूरता : इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का मानना है कि जिन्ना की पाकिस्तान की जिद ने मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं को उग्र बना दिया। डायरेक्ट एक्शन का आह्वान सांप्रदायिक लामबंदी का उपकरण बन गया। राजनीतिक नेतृत्व ने हिंसा को रोका नहीं, बल्कि मौन समर्थन दिया। विभाजन की राजनीति ने एक समाज को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया। यह कहा जाता है कि जिन्ना की मांगों के कारण मुस्लिम जनता में असुरक्षा और अलगाव की भावना बढ़ी, जिसे उग्र समूहों ने हिंसा में बदल दिया। नोआखाली की त्रासदी उसी जिद का खूनी नतीजा थी।
गांधी का नोआखाली में प्रवेश : शांति की आखिरी कोशिश : हिंसा की लपटों के बीच महात्मा गांधी ने निर्णय लिया कि वे स्वयं नोआखाली जाकर शांति की अपील करेंगे। 6 नवम्बर 1946 को वे वहां पहुंचे और अगले चार महीनों तक गांव-गांव घूमते रहे। उनके साथ न कोई सुरक्षा घेरा था, न सैनिकों का पहरा। वे खेतों, जलमार्गों, कीचड़ भरे रास्तों और उजड़े घरों से होकर गुजरते, भयभीत हिंदू और मुस्लिम परिवारों से मिलते, प्रार्थना सभाएं करते और धार्मिक ग्रंथों से शांति का संदेश देते।
Collected Works of Mahatma Gandhi में दर्ज उनके भाषणों में उन्होंने अपराधियों से प्रायश्चित की अपील की। वे कहते थे, 'हिंसा का उत्तर हिंसा नहीं, प्रेम और करुणा से देना चाहिए।' फिर भी, यह प्रयास नैतिक रूप से प्रभावशाली होने के बावजूद राजनीतिक समाधान तक नहीं पहुंचा। विभाजन की प्रक्रिया जारी रही और अंततः पाकिस्तान का गठन हुआ। लेकिन गांधी का यह कदम संकट के समय नेतृत्व की भूमिका का अद्वितीय उदाहरण बना।
नागरिक समाज और महिलाओं की भूमिका : मानवीय गरिमा की लड़ाई : जब प्रशासन पीछे हट गया, नागरिक समाज ने राहत की कमान संभाली। चिटगांव महिला संघ और अन्य स्वयंसेवी समूहों ने अपहृत महिलाओं की खोज, सूचीकरण, पुनर्वास और परामर्श का कठिन कार्य किया। अशोका गुप्ता और लीला रॉय जैसी महिलाओं ने न केवल राहत शिविरों का संचालन किया, बल्कि समाज में भरोसा बहाल करने का प्रयास भी किया। संचार की कमी, सुरक्षा का अभाव और सामुदायिक तनाव के बावजूद उन्होंने मानवीय गरिमा को केंद्र में रखा।
इतिहासकार सुरंजन दास का मानना है कि यह पहल समाज की आंतरिक ताकत को दर्शाती है, जहां संकट में महिलाएं और स्थानीय समुदाय आगे आकर राहत कार्य संभालते हैं।
बिहार की प्रतिशोधी हिंसा : एक और त्रासदी : नोआखाली की हिंसा का असर केवल बंगाल तक सीमित नहीं रहा। अक्टूबर–नवम्बर 1946 में बिहार में मुसलमानों के खिलाफ प्रतिशोधी हिंसा भड़क उठी। मृतकों की संख्या विवादित है, परंतु स्पष्ट है कि यह प्रतिक्रिया व्यापक और निर्मम थी। पंडित नेहरू ने प्रशासन को सख्त कार्रवाई करने की चेतावनी दी, जबकि गांधी ने आमरण अनशन का ऐलान कर समाज पर नैतिक दबाव बनाया। यह दर्शाता है कि एक क्षेत्र की हिंसा दूसरे क्षेत्र में प्रतिशोध की लहर बन सकती है।
इतिहासकारों की नजर में नोआखाली : मार्कोविट्स क्लाउड, The Calcutta Riots of 1946 : Mass Violence and Resistance (2007) में लिखते हैं कि हिंसा की क्रूरता वीभत्स थी। पीड़ितों को न केवल बेरहमी से मारा गया, बल्कि शवों को क्षत-विक्षत कर भय फैलाया गया। राकेश बत्याल, Communalism in Bengal: From Famine to Noakhali, 1943–47, में अकाल, गरीबी और राजनीतिक ध्रुवीकरण को नोआखाली हिंसा का संरचनात्मक आधार बताते हैं।
सुरंजन दास, Communal Riots in Bengal, 1905–1947, में अफवाहों, भीड़ की मनोवृत्ति और प्रशासनिक शिथिलता को हिंसा के मुख्य ट्रिगर मानते हैं। Noakhali and After : History, Memory and Representations में यह दिखाया गया है कि सरकारी रिपोर्ट, पत्रकारिता और पीड़ितों की स्मृतियां अक्सर अलग-अलग तस्वीरें पेश करती हैं। इसलिए बहु-स्रोत अध्ययन आवश्यक है।
नोआखाली का नरसंहार बताता है कि हिंसा कभी अचानक नहीं होती— यह आर्थिक असमानता, राजनीतिक उग्रता, धार्मिक ध्रुवीकरण और प्रशासन की विफलता का सम्मिलित परिणाम होती है। फिर भी, संकट के समय नेतृत्व, नागरिक समाज और संवेदनशील राहत कार्य समाज को पुनर्जीवित कर सकते हैं। इतिहास के पन्नों में दर्ज यह त्रासदी आज भी सवाल पूछती है— क्या हम अपनी राजनीति, प्रशासन और सामाजिक रिश्तों को ऐसे संकटों से बचाने के लिए तैयार हैं? नोआखाली की कहानी अतीत की चेतावनी है, और भविष्य की ज़िम्मेदारी भी।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala