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नवरात्रि केवल उत्सव नहीं, आत्मा से जुड़ने का अवसर : गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर

Webdunia
रविवार, 21 सितम्बर 2025 (12:37 IST)
हम नौ महीने मां के गर्भ में रहते हैं। गर्भ के भीतर केवल अंधकार होता है- रात ही रात। नौ महीने बाद जब हम जन्म लेते हैं, तो हमारे सामने एक नई सृष्टि दिखाई देती है। ठीक उसी प्रकार नवरात्रि के ये नौ दिन मां के स्मरण और अपनी आत्मा से गहराई में जुड़ने के लिए हैं। नवरात्रि हमें तीनों प्रकार के तापों से मुक्त करती है- आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक। हर ‘रात’ समूची सृष्टि को अपनी गोद में लेकर विश्राम देती है, विविधता, विभिन्नता को दूर करके एकता में लाकर सबको विश्राम देती है।

हमारे ऋषियों ने जो भी शब्द गढ़े, उनमें उसकी क्रिया निहित है। ‘रात्रि’ शब्द सुनते ही हमारे भीतर शांति और विश्राम का अनुभव जाग उठता है। नवरात्रि में अपने आप में, अपनी आत्मा में, अपनी चेतना में डुबकी  लगाओ मगन हो जाओ, भजन करो, कीर्तन करो कम से कम मन को इन नौ दिन किसी और चीजों में मत लगाओ।  मित आहार या तो फल वगैरा  लेकर  उपवास करो।

इस तरह से चेतना को भक्ति  की लहर में लगाओ।  उपवास का असली अर्थ केवल अन्न से दूर रहना नहीं है, बल्कि मन को व्यर्थ विषयों से हटाकर दिव्य ऊर्जा से जोड़ना है। तब क्या होता है सारे असुर दूर हो जाते हैं- महिषासुर, रक्तबीजासुर, मधु-कैटभ।

असुरों का प्रतीकात्मक अर्थ
देवी के द्वारा जिन असुरों का संहार हुआ, वे वास्तव में हमारे भीतर की प्रवृत्तियां हैं।
मधु और कैटभ-मधु का अर्थ है राग और कैटभ का अर्थ है द्वेष। देवी सबसे पहले इन्हीं का संहार करती हैं। पुराणों में कहा गया है कि मधु और कैटभ विष्णु जी के कान के मैल से उत्पन्न हुए।

सुनने से ही राग और द्वेष जन्म लेते हैं। जो सृष्टि का संचालन करता है, उसे चारों ओर से अनेक बातें सुननी पड़ती हैं, लेकिन जो संहार करता है, वह किसी की नहीं सुनता इसलिए शिवजी को न राग है, न द्वेष; ब्रह्मा जी को भी न राग है, न द्वेष।

विष्णु जी अपने ही कान के मैल (अर्थात् राग-द्वेष) से उत्पन्न इन असुरों से एक हज़ार वर्षों तक लड़े, पर उन्हें समाप्त नहीं कर पाए। अपने से ही उपजे दोष को स्वयं मिटाना कठिन होता है। तब उन्होंने देवी-चेतना शक्ति को पुकारा। जब चेतना बढ़ जाती है, तो राग-द्वेष दोनों मिट जाते हैं।

देवी ने विष्णु की प्रार्थना स्वीकार कर जल में प्रवेश किया और वहीं मधु-कैटभ का संहार किया। जल प्रतीक है प्रेम का। जब चेतना प्रेममय हो जाती है, तब न राग बचता है न द्वेष,केवल अनुराग ही शेष रह जाता है।

चंड और मुंड- ‘चंड’ का अर्थ केवल सिर (बुद्धि) और ‘मुंड’ का अर्थ केवल धड़ (भावना)। बुद्धि बिना हृदय के व्यक्ति को कठोर बना देती है और भावना बिना विवेक के जीवन को अव्यवस्थित कर देती है। जब चेतना जगती है, तो इन दोनों का संतुलन स्थापित करती है।

महिषासुर-भैंस के समान जड़ता का प्रतीक। जब जीवन बिना किसी समझ के, केवल बोझिल ढंग से चलता है, वह महिषासुर है। इस जड़ता को समाप्त करना तभी संभव है जब चैतन्य शक्ति जाग जाए सभी देवी-देवताओं ने अपने अस्त्र-शस्त्र मान मां को दिए अपने सभी कला कौशल प्रदान किए तो देवी मां ने महिषासुर का वध किया। जड़ता को नष्ट करने के लिए चैतन्य शक्ति की आवश्यकता होती है।

रक्तबीजासुर- यह हमारे डीएनए और संस्कारों का प्रतीक है- रक्त+बीज+असुर। माने आपके डीएनए में जो गुण पड़ा हुआ है उसको भी परिवर्तन करना हो, तो देवी ही कर सकती, चेतना ही कर सकती है। कथा में, जहां एक बूंद खून की गिरी पूरी तरह से वह राक्षस फिर खड़ा हो जाता था। माने अपने जींस में जो गुण या स्वभाव घुस गया, वह रक्तबीजासुर है।

एक बार जो दोष भीतर जम जाता है, वह बार-बार प्रकट होता है, जैसे रक्तबीज की हर बूंद से नया राक्षस उत्पन्न होता था। किंतु चेतना के जागरण से यानी देवी ने इन सबका संहार कर दिया।कई लोगों की  जेनेटिक परेशानियां, जो कई पीढ़ियों  से चली आ रही हैं, दैवी शक्ति जाग्रत होने पर ठीक हो जाती हैं।  जींस में अपने परिवर्तन आ जाता  है।

नवरात्रि का सच्चा संदेश
नवरात्रि केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और साधना का अवसर है। इन दिनों में यदि हम अपनी चेतना को भक्ति और ध्यान में लगाएं, तो भीतर के असुर-राग-द्वेष, जड़ता और नकारात्मक संस्कार-सब मिट जाते हैं। जब चेतना प्रेम और भक्ति में रच-बस जाती है, तब केवल अनुराग ही शेष रह जाता है। यही नवरात्रि का वास्तविक संदेश है।

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