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भाई-बहन के प्यार का पर्व

हमें फॉलो करें भाई-बहन के प्यार का पर्व
- गरिमा माहेश्वरी

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कहते हैं बहन अपने भाई को राखी के दिन रक्षाकवच बाँधती है। दोनों के प्यार और आपसी विश्वास का पर्व है राखी।राखी का पर्व पूरे भारत में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दिन भाई चाहे कितनी ही दूर क्यों ना हो, बहनों के पास दौड़ा चला आता है। इस दिन बहनें अपने भाई के हाथ पर राखी बाँधती हैं और फिर उसकी आरती उतारती हैं। सालों से यह रीत इसी तरह चली आ रही है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार राखी के रेशमी धागे को रक्षाकवच ही माना जाता है। यह रेशमी धागा प्रेम और विश्वास का प्रतीक है। उस समय यह चलन नहीं था कि सिर्फ बहनें ही भाइयों को राखी बाँधेगी। पुराने समय में तो एक पत्नी भी अपने पति की रक्षा के लिए उसके हाथ में यह रक्षासूत्र बाँधा करती थी। यहाँ तक की ऋषि-मुनि भी अपने शिष्यों के हाथों मे इस दिन यह रक्षाकवच बाँधा करते थे

एक पुरानी प्रचलित कथा के अनुसार दैत्यों और देवताओं में लडाई हो रही थी और देवता कुछ कमज़ोर से पड़ गए थे,तब भगवान इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने अपनी शक्तियों का प्रयोग करके एक तिलिस्म बनाया और उसे भगवान इंद्र के हाथ पर बाँध दिया था।
  कहते हैं बहन अपने भाई को राखी के दिन रक्षाकवच बाँधती है। दोनों के प्यार और आपसी विश्वास का पर्व है राखी।राखी का पर्व पूरे भारत में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दिन भाई चाहे कितनी ही दूर क्यों ना हो, बहनों के पास दौड़ा चला आता है।      


आज लोगों की ज़िंदगी इतनी व्यस्त होने के बाद भी यह दौड़-धूप भाई-बहन के प्यार को नहीं हरा पाई। आज भी यह त्योहार उसी हर्ष और उमंग से मनाया जाता है जैसेकि पहले मनाया जाता था।अगर बहनें किसी कारणवश अपने भाइयों से नहीं मिल पाती हैं तो चिट्ठी के ज़रिए अपना प्यार भेजना नहीं भूलती। तकनीकी विकास की मदद से अब इंटरनेट भी एक ऐसा ज़रिया बन गया है जिसके माध्यम से बहनें अपना प्यार भाइयों तक पहुँचा सकती हैं।

किसी ने ठीक ही कहा है कि प्यार अपना रास्ता खुद ही ढूँढ़ लेता है।लेकिन फिर एक विचार मन में आता है कि क्या एक भाई और बहन का रिश्ता रेशम की इस नाज़ुक डोर के सहारे ही खड़ा है?अगर ऐसा है तो क्या मथुरा के राजा कंस की बहन देवकी उसे राखी नहीं बाँधती थी? फिर क्यों वह अपने अहंकार में अपनी बहन के प्यार को भूल गया?

कंस के लिए शायद उसका अहंकार और उसकी जीत,बहन के प्यार से बड़ी थी। लेकिन अगर हम मान लें कि यह घटना बहुत पुराने समय की है तो अपने आस-पास देखने पर हमें यह ऐहसास होगा कि आज के युग में भी कंसों की कमी नहीं है। रिश्तों में पड़ती दरार और रिश्तों की पवित्रता भंग होने के समाचार मिलना अब आम बात हो गई है। अगर यही होना है तो राखी जैसे पवित्र त्योहार को मनाकर भी क्या फायदा?अगर इंसान अपने मन की आवाज़ ही सुनना छोड़ दे तो बेचारी एक प्यार की नाज़ुक डोर क्या करे?

ज़रूरत है इस बात पर एक विचार की और उस विचार के ज़रिए उठने वाले एक कदम की। शायद वह एक कदम रिश्तों की मिटती मर्यादा को बचाकर फिर वही प्यार और विश्वास कायम कर पाए।

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