होलिका दहन के बाद धुलेंडी के पर्व क्यों मनाते हैं, क्या करते हैं इस दिन, जानें-
त्रेता युग के प्रारंभ में श्री विष्णु ने धूलि वंदन किया था। धूल वंदन अर्थात एक दूसरे पर धूल लगाना। इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है।
पुराने समय में होलिका दहन के बाद धुलेंडी के दिन लोग एक-दूसरे से गले मिलते थे, प्रहलाद के बच जाने की खुशी में मिठाइयां बांटते थे।
पुराने समय में धुलेंडी के दिन सुबह के समय लोग एक दूसरे पर कीचड़, धूल लगाते थे। जिसे धूल स्नान कहते हैं।
पुराने समय में चिकनी मिट्टी का गारा या मुलतानी मिट्टी को शरीर पर लगाया जाता था।
धुलेंडी के दिन टेसू के फूलों का सूखा रंग उस घर के लोगों पर डाला जाता हैं जहां किसी की मौत हो चुकी होती है।
आजकल होलिका दहन के बाद अगले दिन धुलेंडी पर पानी में रंग मिलाकर होली खेली जाती है। कई जगह इसका उल्टा होता है।
होलिका दहन से रंगपंचमी तक भांग, ठंडाई आदि पीने का प्रचलन हैं।
इस दिन महिलाएं संपदा देवी के नाम का डोरा बांधकर व्रत रखती हैं तथा कथा सुनती हैं।
इस दिन देश के कई स्थानों पर जुलूस निकालने की परंपरा है, जिसे गेर कहते हैं।
इस दिन गिलकी के पकोड़े, खीर, पूरी, गुजिया, बेसन की सेंव और दही बड़े आदि बनाकर खाए जाते हैं।
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