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स्त्री होने का धर्म

लक्ष्मण रेखा के पार...

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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महिला दिवस मनाया ही इसलिए जाता है कि आज भी कहीं न कहीं महिलाएँ स्वतंत्र, समान और सुरक्षित नहीं है। इसी संदर्भ में हम जानते हैं कि क्या है महिला होने का धर्म...

महिला दिवस पर महिला शक्ति को सलाम, लेकिन हमें सोचना होगा उन महिलाओं के बारे में जो बुरी स्थिति में हैं। असमानताओं के बारे में सोचा जाए जो आज भी समाज में कायम है। हम उसके लिए क्या कर सकते हैं यह सोचा जाना अब भी शेष है।

धर्म और राजनीति के मध्ययुगीन विचार आज धीरे-धीरे पुन: हावी होते जा रहे हैं। धर्म के नाम पर स्त्री के जीवन को पुन: घर में ही समेट देने की कवायद तो सभी इस्लामिक मुल्कों में चल रही है, लेकिन सभ्य कहे जाने वाले मुल्कों में भी बाजारवादी सोच के चलते स्त्री की सुंदर देह का भरपूर उपयोग किया जा रहा है।

दो तरह की अतियों से स्त्री का जीवन नर्क बना हुआ है पहली अति वह जिसे हम पश्चिम में देख रहे हैं। वहाँ की स्त्री ने स्वतंत्रता के नाम पर जो नग्नता दिखाई है, उसे लक्ष्मण रेखा को पार कर जाना ही कहा जाएगा। इस पश्चिमी नाच से घबराकर इस्लामिक मुल्कों में दूसरी तरह की अति शुरू हो चुकी है।

जो विचारधारा व्यक्ति स्वतंत्रता के खिलाफ है और जो यह सोचती हैं कि स्त्री और पूँजी का समान वितरण हो तो ऐसी विचारधारा से आप कैसे समानता की आशा कर सकते हैं? जिस विचारधारा ने यह मान ही लिया है कि स्त्री की उत्पत्ति पुरुष की एक पसली से हुई है तो फिर स्वाभाविक रूप से उसकी बराबरी का दर्जा खत्म होता है। स्त्री को तय करना है कि उसे इन विचाराधराओं के खिलाफ रहना है या चुपचाप रहकर पुन: मध्ययुग की त्रासदी को झेलने के लिए तैयार रहना हैं।

स्त्रैणचित्त :
कहते हैं कि पुरुष यदि स्त्रैणचित्त है तो फिर कैसा पुरुष। उसे तो ऐसा-वैसा ही कहेंगे। उसी तरह स्त्री यदि स्त्रैणचित्त नहीं है तो स्त्री होने का कोई मतलब नहीं। प्रकृति ने बहुत स्पष्ट रूप से विभाजन कर रखा है और यदि कोई विभाजन स्पष्ट रूप से नहीं है तो फिर वह अप्राकृतिक ही माना जाएगा।।

आज स्त्रियाँ पुरुष जैसा होने की होड़ में लगी है, इसीलिए तो वे जिंस और शर्ट पहनने लगी है। अच्छी बात है जिंस और शर्ट पहनना लेकिन इससे यदि उनके भीतर पुरुषत्व जाग्रत होता है तो कैसे कहें कि अच्छी बात है। कोई पुरुष यदि सलवार कुर्ती पहन लें तो समझो आफत हो गई, लेकिन लड़कियों के जिंस या शर्ट पहनने पर आफत नहीं होती।

सवाल यह उठता है कि स्त्रियों को स्त्रियों की तरह होना चाहिए या स्त्रतंत्रता के नाम पर पुरुषों की तरह? आज हम देखते हैं कि पश्चिम में स्त्रियाँ स्वतंत्रता के चक्कर में प्रत्येक वह कार्य करती है जो पुरुष करता है। जैसे सिगरेट और शराब पीना, जिम ज्वाइन करना, तंग जिंस और शर्ट पहनना, देर तक पब में डांस करना और यहाँ तक ‍कि पुरुषों की हर वह स्टाइल अपनाना जो सिर्फ पुरुष के लिए ही है। क्या स्वतंत्रता का यही अर्थ है?

समझो मनोविज्ञान को :
पुरुषों की शारीरिक और मानसिक संरचना कुछ इस प्रकार की है कि वह धर्म और अधर्म के सारे कार्य उस संरचना और स्वभाव के आधार पर करता है किंतु स्त्रियों अगर पुरुषों की नकल करके स्वयं को स्वतंत्र समझती है तो वे भयानक भ्रम में है। भयानक इसलिए कि धीरे-धीरे स्त्रियाँ स्वयं का प्राकृतिक स्वभाव खो देगी। शायद आप जानते ही हैं कि पश्चिम में जो तलाक हो जाते हैं उसका एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है कि किसी भी पुरुष को पूर्ण स्त्री नहीं मिल पाती है। यह कितना हास्यास्पद है कि वहाँ का पुरुष अब स्वयं की पत्नी में ‍स्त्री ढूँढने लगा है। ठीक इसके विपरित भी। देर-सबेर भारत में भी यही होने वाला है।

पुरुष को पुरुष और स्त्री को स्त्री होने में लाखों वर्ष लगे हैं, लेकिन वर्तमान युग दोनों को दोनों जैसा नहीं रहने देगा। होमोसेक्सुअल लोगों की तादाद बढ़ने के कई और भी कारण हो सकते हैं। दरअसल यह पढ़े और समझे बगैर बौद्धिक, सम्पन्न और आधुनिक होने की जो होड़ चल पड़ी है इससे प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र पाखंडी होता जा रहा है। हम टीवी चैनल और फिल्मों की संस्कृति में देखते हैं कि ये कैसे अजीब किस्म के चेहरे वाले लोग है। जरा भी सहजता नहीं। कहना होगा कि ये सभ्य किस्म के जाहिल लोग हैं। रियलिटी शो की रियलिटी से सभी परिचित है।

मीडिया, फिल्म और बाजार की स्वतंत्रता के दुरुपयोग के चलते इस तरह के फूहड़ प्रदर्शन के कारण ही धर्म और राजनीति के ठेकेदारों के मन में नैतिकता और धार्मिक ‍मूल्यों की रक्षा की चिंता बढ़ने लगी है।

हरी मिरची :
महिलाओं ने अभी अपना धर्म विकसित नहीं किया है और शायद भविष्य में भी नहीं कर पाएँगी। इसके लिए साहस, संकल्प और एकजुटता की आवश्यकता होती है। पुरुष जैसा होने की होड़ के चलते तो वह सभी क्षेत्र में किसी भी तरीके से बढ़- चढ़कर आगे आ जाएगी और आ भी रही हैं, लेकिन वह जिस तरह से अपनी स्वतंत्रता का प्रदर्शन कर रही है उससे खुद उसके सामने धर्म, समाज और राष्ट्र की आचार संहिताओं की चुनौतियाँ बढ़ती जाएँगी। जैसा आज हम देख रहे ‍हैं अफगानिस्तान और पाकिस्तान में क्या हो रहा है। पश्चिम की स्त्रियों ने स्वतंत्रता का जो निर्वस्त्र नाच दिखाया है उसी से घबराकर इस्लामिक मुल्कों में स्त्रियों पर ढेर सारी पाबंदियाँ लगाई जा रही है। यह दो तरह की अतिवादिता है।

लाल मिरची :
नकली है भारतीय स्त्रियाँ। भारत की स्‍त्रियाँ धीरे-धीरे पश्चिमी मूल्यों की तरफ जा रही है। यह अंधानुकरण है। आधुनिक होना और पश्चिमी होना दोनों में फर्क है। लेकिन भारतीय स्त्रियाँ यह कभी नहीं समझ पाएँगी कि वे जिस तरह आज बजरंग दल जैसे संगठनों में आग भर रही है, देर-सबेर यह आग फैलेगी तो तालिबानीकरण होने में देर नहीं लगेगी। और समूचे स्त्री समाज में इतना साहस, संकल्प और एकजुटता नहीं है कि इसका मुकाबला कर सकें। बंदूक की एक गोली जुबान पर ताले लगा देती है।

सोचें तसलीमा नसरीन को समूचा विश्व मिलकर भी स्त्रतंत्र रूप से घुमने नहीं दे सकता। आखिर क्यों? क्योंकि पुरुषों के पास धर्म और राष्ट्र की बहुत बड़ी ताकत है। पुरुष की सत्ता आपको फिर से ‍चुल्हे-चौके में दबाने के मामले में संकल्पित, साहसिक और एकजुट है। पाकिस्तान के जो पुरुष स्त्रियों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की बात करते थे वे आज चुप रहने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं।

सुरंग से बाहर :
प्राचीन काल और मध्यकाल के बारे में हम सोचें तो आज स्त्री ही नहीं पुरुष भी स्वयं को स्वतंत्र और सुरक्षित महसूस करता है। मध्यकाल में स्त्रियाँ ही नहीं पुरुष भी सरेबाजार बेचें और नोचें जाते थे। एक राजा के पास कम से कम 100 या 200 स्त्रियाँ होती थी। हैदराबाद के निजाम के पास पाँच सौ स्त्रियाँ थी। दासप्रथा के चलते पुरुष की हालत दयनीय थी। बिजली नहीं थी अंधेरा कायम था। डाकुओं का धड़का लगा रहता था। आधुनिक विज्ञान और गणतंत्र की धारणा ने समूची मानव जाति को इस अंधेरी और भयानक सुरंग से बाहर निकाला है, लेकिन यदि इस स्वतंत्रता और सुरक्षा का मुठ्ठीभर लोगों द्वारा दुरुपयोग होता रहा तो हम सभी फिर से उस अंधेरी सुरंग में चले जाने के लिए मजबूर होंगे।

स्त्री होने का धर्म :
स्त्री स्वतंत्र और सुरक्षित है कम से कम कुछ मुल्कों में तो स्वतंत्र और सुरक्षित है ही। देखना है कि यह स्वतंत्रता और सुरक्षा कब तक कायम रहती है। जब तक लक्ष्मण रेखा पार नहीं होती तब तक स्वतंत्रता और सुरक्षा की ग्यारंटी दी जा सकती है। यह पुरुष का अहंकारपूर्ण वक्तव्य भी हो सकता है क्योंकि पुरुषों को मालूम है कि दुनिया रावणों से भरी पड़ी है।

रावण सिर्फ पुरुष के भेष में ही नहीं होता वह तो स्वतंत्रता और ऊँचे सपनों के नाम पर दस तरह के भेष बदल कर आता है। अंतत: स्त्री के जीवन का अंत उसकी इच्छानुसार नहीं होता।

तब स्त्री क्या करें? यह स्व:विवेक का मामला है। स्त्री को स्त्री होने के लिए स्त्री जैसा ही सोचना, समझना और रहना होगा। उसे साहस, संकल्प और एकजुटता का परिचय देना होगा। यह भी कि लड़ाई तब तक जारी रखी जाए जब तक की धर्म, समाज और राजनीति में आमूल परिवर्तन न हो जाए। खासकर तो उन्हें धर्म के उन कानूनों के खिलाफ लड़ना होगा जो उस पर लादे जाते हों या उसे किसी भी तरह से पुरुषों से कमजोर सिद्ध करते हों। दरअसल स्त्रियों के पास स्वयं का धर्म होना चाहिए तभी स्त्री जान पाएगी कि स्त्री होने का धर्म क्या है।

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