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दाँतों को चाहिए छः रस

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-देवेन्द्रदत्त कौशि

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आयुर्वेद दंत विज्ञान में दाँतों के 8 तथा मसूड़ों के 11 रोग माने गए हैं। मसूड़ों के 11 रोग हैं : शीतोद, दंतवेष्ट, दंतपुप्पुट, शौषिर, महाशौषिर, वैदर्भ, कराल, परिदर, उपकुश, खरीवर्धन, अधिमांस। इसी प्रकार दाँतों के रोग हैं : दालत, कृमी दंत, दंत हर्ष, दंत विद्रधि, शर्करा, कपालिका, श्यावदंतक, भंजनक।

आयुर्वेद में दाँतों के बारे में गहन अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार शुक्र धातु से गर्भ में ही दंत बीजांकुरों सहित शिशु की उत्पति होती है। शिशु के जन्म के छः-सात महीने बाद नीचे के दो दाँत निकलते हैं और आठ वर्ष की आयु में आभायुक्त बीस दाँत आ जाते हैं। युवावस्था में दाँतों की संख्या 32 हो जाती है। उनकी मोती जैसी चमक और दाँतों एवं दाढ़ों की लंबाई-चौड़ाई भी शुक्र धातु के बलाबल और शुक्रसारता तथा असारता पर उत्तम, मध्यम, साधारण के अनुसार ही होती है। हमारे शरीर में केवल दाँत ही ऐसे हैं, जिनमें पाँच तत्वों का उच्च कोटि का मिश्रण मिलता है। इस तरह के संगठन वाली और कोई अस्थि (हड्डी) नहीं है। दाँतों के स्वास्थ्य के लिए चूना (कैल्शियम) और विटामीन 'डी' की आवश्यकता रहती है। ये दोनों तत्व हमें अपने भोजन से मिलते हैं।

शुरुआत में दाँत बीजांकुर के रूप में होते हैं, जो समय पाकर मसूड़ों को चीरकर बाहर आ जाते हैं। यदि बच्चे के दाँतों को बलपूर्वक निकाला जाए तो धातुबीज नष्ट हो जाने से पुनः दाँत नहीं आता। प्रत्येक दाँत के मूल (जड़) में तीन रक्त नाड़ियाँ ही दाँत का पोषण करती हैं।

आयुर्वेद त्रिदोष विज्ञान के सिद्धांत में विश्वास करता है। उसके अनुसार शरीर में वात, पित्त और कफ की उचित मात्रा होनी चाहिए। यह भोजन में षड्रसों के होने पर ही संभव है। यदि षड्रसों का उपयोग न होकर एक ही रस (मीठा, खट्टा, नमकीन) का उपयोग किया जाए तो वह भयानक दंतवेदना का कारण बन सकता है। मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय, तिक्त रसों से ही पंचतत्वों से बने शरीर का पोषण होता है। इसलिए भोजन में छः रसों का सेवन अवश्य होना चाहिए।

असंतुलित भोजन करने से रोग पैदा होते हैं। मधुर, अम्ल, लवण रस वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से कफ (श्लेष्मा) दोष बढ़ता है। कटु, कषाय, तिक्त रसों को लेने से कफ दोष का शमन होता है। कटु, अम्ल, लवण रसों से पित्त बढ़ता है। मधुर, तिक्त, कषाय रसों से वायु (वात) बढ़ती है जबकि मधुर, अम्ल, लवण रस वायु का शमन करते हैं।

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