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आधी-अधूरी क्रांतियों का युग

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, मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011 (14:13 IST)
BBC
- योगेन्द्र यादव (वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक)

"हम देखेंगे...
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है"

एक क्षण के लिये मन अटका। जरूर इकबाल बानो की आवाज का जादू रहा होगा कि पहले कभी पलटकर सोचा ही नहीं। क्या वाकई जिस दिन का वादा था वो दिन "लौह-ए-अजल" में लिखा है?

क्रांति इस दुनिया का शाश्वत नियम है? काहिरा की 'बेला-चमेली' क्रांति (अंग्रेजी में इसे जैस्मीन रेवोल्यूशन कहा जा रहा है) ने यह सवाल पूछने पर मजबूर किया है। बेशक काहिरा से इस्कंदरिया तक जनता जनार्दन का उभार क्रांति के पुराने सपने को जगाता है।

पाकिस्तान के क्रांतिकारी कवि फैज अहमद फैज की यह मशहूर गजल हमारे उपमहाद्वीप ही नहीं पूरी दुनिया में तानाशाही के जुल्मो-सितम के खिलाफ लड़ने वालों के लिए प्रेरणा गीत बन चुकी है।

शायद लोकतंत्र की कीमत भारत से ज्यादा पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के लोग समझते हैं, चूँकि उन्होंने तानाशाही झेली है। होस्नी मुबारक के सत्ता छोड़कर भाग जाने पर काहिरा में किसी न किसी के होंठो पर तो फैज के बोल आए होंगे:

'जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ, रुई की तरह उड़ जाएँगे'

मन फिर पहाड़ और रुई के इस रूपक पर अटकता है। कौन नहीं जानता कि मुबारक की तानाशाही के सर पर दुनिया भर को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका और उसके यूरोपीय दुमछल्लों का वरदहस्त था। तानाशाह के रुखसत होने पर इसराइल की चिंता और फिलिस्तीनियों का उल्लास मिस्र, इसराइल और अमेरिका के हुक्मरानों के नापाक रिश्तों का खुलासा करता है।

अगर आप पिछले दस दिन से तेल के दाम का खेल देख रहे हों तो आप समझ जाएँगे कि धरती के नीचे खनिज होना धरती पर रहने वाले मनुष्यों के लिए श्राप हो सकता है।

आँख की किरकिरी : पहले ट्यनीशिया और फिर मिस्र में जो हुआ उसे पहाड़ के रुई की तरह उड़ जाने की बजाए कठपुतली के धागे कटने की संज्ञा देना बेहतर होगा। अरब जगत में अमेरिका की नाक के बाल होस्नी मुबारक अब उसकी आँख में किरकिरी बन गए थे।

विचार श्रृंखला फिर टूटती है। गजल अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई है:

'सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख्त गिराए जाएँगे'

ये रिकॉर्डिंग लाहौर की है, उस वक्त जब पाकिस्तान जिया उल हक की तानाशाही तले पिस रहा था। गजल के इस मोड़ पर श्रोताओं की भावनाओं का विस्फोट होता है।

इकबाल बानो की आवाज तालियों की गड़गड़ाहट और तानाशाही विरोधी नारों में डूब जाती है। एक क्षण के लिए भय का साम्राज्य ढह जाता है। ठीक वैसे ही जैसे तहरीर चौक पर पहले दिन महज दो सौ बहादुर लोगों के खड़े होने से हुआ था।

ताज उछलते और तख्त गिरते देखकर मन फिर फैज के कलाम के साथ बह निकलता है:

'जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे'

लेकिन तभी राजनीति की हकीकत कविता को विराम देती है। ट्यूनीशिया में तख्त तो पलटा लेकिन मसनद पर बहिष्कृत समाज नहीं बैठा। पुराने सत्ताधीशों का एक और गुट फिर सिंहासन पर काबिज हो गया।

मिस्र में अंततः क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिलहाल तो मसनद पर वही बैठे हैं जिनके हाथ में बन्दूक है, जो कल भी बंदूक के मालिक थे। मुबारक भले ही उठा दिए गए हों, सच के मंदिर से झूठ के पुतले उठने की कोई सूरत दिखाई नहीं देती।

अगर क्रांति की चिंगारी जल्द ही बुझ न गई तो यह संभव है कि सत्ता का हस्तांतरण फौज के हाथों से चुनी हुई सरकार के पास आ जाएगा। लेकिन मिस्र के शासक जिस अंतरराष्ट्रीय निजाम के हाथ में मोहरा हैं, वह नहीं बदलेगा। तेल, पूँजी और सत्ता का रिश्ता नहीं टूटेगा। मेरे मन की भटकन से बेखबर इकबाल बानो आगे बढ़ती जा रही थीं:

'और राज करेगी खल्क-ए-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो'

लेकिन अब फैज के कलम से बुना यह सपना हकीकत को और भी मैला किए दे रहा था।

संयोग बना सपना : दिमाग आगे जाने की बजाए पीछे मुड़कर देख रहा था। क्रांति के आधुनिक विचार का जन्म 18वीं सदी में फ्रांस की राज्य क्रांति से हुआ। उन्नीसवीं सदी आते-आते यह संयोग एक सपना बन गया।

क्रांति सिर्फ तख्ता पलट की बजाए सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन का पर्याय बन गई। बीसवीं सदी में इस सपने को हकीकत के धरातल पर उतारने की अनेक कोशिशे हुईं- रूस, चीन और ईरान की क्रांतियों की चर्चा किए बिना बीसवीं सदी का इतिहास नहीं लिखा जा सकता।

इन क्रांतियों ने राज्य सत्ता और शासक वर्ग का चेहरा बदला, समाज और अर्थनीति में दूरगामी बदलाव किए। लेकिन बीसवीं सदी के ये प्रयोग उन्नीसवीं सदी के सपने से बहुत दूर ही रुक गए।

क्रांतियाँ तो हुईं लेकिन जिन लोगों और जिस विचार के नाम पर ये क्रांतियाँ हुई थीं, वो जल्द ही हाशिए पर चले गए। इक्कीसवीं सदी आते-आते क्रांति का संकल्प थक चुका था, ये हसीन सपना एक चालू मुहावरे में बदल चुका था।

हमारे यहाँ हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तर्ज पर दुनिया भर में नाना किस्म की क्रांतियों की बात चल निकली। एक बार फिर क्रांति शब्द का अर्थ सिमट कर तख्ता पलट हो गया।

पूर्व सोवियत संघ के देशों में 'मखमली क्रांति', फिर यूक्रेन में 'नारंगी क्रांति' और अब मिस्र में बेला-चमेली क्रांति। जैसे जैसे क्रांति के विचार पर रंग और रूप मढ़े जाने लगे, वैसे-वैसे क्रांति का विचार फीका और गंधहीन होने लगा।

इकबाल बानो की आवाज थम गई थी। सामने अखबार पड़ा था। मुखपृष्ठ पर एक आंदोलनकारी की छवि थी जो फौजी अफसर को गले लगा रहा था। अचानक छवि तरल हो गई और एक प्रश्नचिन्ह बनकर तैरने लगी। क्या इक्कीसवीं सदी में क्रांति के विचार का पुनर्जन्म होगा? हम देखेंगे?

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