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तालिबान की सफलता का रहस्य

एम इलियास ख़ान, इस्लामाबाद

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, शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011 (12:41 IST)
आतंकवाद के ख़िलाफ़ चल रहे युद्ध को दस साल हो चुके हैं लेकिन तालिबान का अभी ख़ात्मा नहीं हो सका है। दस साल पहले तालिबान चरमपंथियों ने अपने ठिकाने छोड़ कर और अपने हजारों अधिकारों को खत्म कर ग्रामीण क्षेत्रों में फरार हो गए थे और पश्चिमी ताकतों को बिना किसी संघर्ष के अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने की अनुमति दी थी।

आज चरमपंथी एक जटिल गुरिल्ला शक्ति के रुप में विकसित हुए हैं जिन्होंने हाल के दिनों में बड़े लक्ष्यों को निशाना बनाया है और अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की सहज और सफल वापसी को पटरी से उतार दिया है।

अक्तूबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने के तीन सालों बाद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान विद्रोहियों की बड़ी सीमित गतिविधि थी।

तालिबान से बेज़ार लोग"चार सालो के लंबे गृहयुद्ध के ख़ात्मे के बाद अफ़ग़ानिस्तान की जनता ने शुरुआत में तालिबान के आने का स्वागत किया था और उन्होंने कठिन इस्लामी नियम लागू किए तो उनसे बेज़ार होने लगे थे।

महमूद शाह, रक्षा मामलों के जानकार
रक्षा मामलों के जानकार ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) मेहमूद शाह का कहा है, 'चार साल के लंबे गृहयुद्ध के ख़ात्मे के बाद अफ़ग़ानिस्तान की जनता ने शुरुआत में तालिबान के आने का स्वागत किया था और उन्होंने कठिन इस्लामी नियम लागू किए तो उनसे बेज़ार होने लगे थे।

'अमरीका का स्वागत'
उन्होंने कहा कि जब अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया था तो स्थानीय लोगों ने अमरीका का स्वागत किया था और वह समझ रहे थे कि वह तालिबान से मुक्ति दिलाएंगे।

उनके मुताबिक उस समय तालिबान विद्रोहियों की तुरंत वापसी का कोई रास्ता नहीं था।

साल 2006 तक तालिबान ने दक्षिण के बड़े इलाक़ों ख़ासतौर पर ज़ाबुल, कंधार और हेलमंड प्रांतों में घुसपैठ कर दी थी और साल 2008 तक वह उत्तर की ओर काबुल तक फ़ैल गए थे।

ब्रिगेडियर मेहमूद शाह के मुताबिक़ अमरीका ने दो बड़ी गलतियां की और उसने फ़ायदा गवां दिया था।

उन्होंने कहा, 'उन्होंने विकास कार्यों पर ध्यान देने के बजाए सैन्य लक्ष्यों पर अपना ध्यान ज़्यादा केंद्रित किया और उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में ज़रुरी युद्ध लड़ने के बजाए ईराक़ में अपनी पसंद से संघर्ष किया।

जब अफ़ग़ानिस्तान और ईरान से लाखों अफ़ग़ान शरणार्थियों की वापसी हुई तो उस समय सरकारी दफ़्तरों में भारी भ्रष्टाचार और पुनर्निमाण के आभाव के कारण विद्रोह में बढ़ौतरी हुई।

'तालिबान का विकास'
लेकिन अधिकतर विश्लेषकों ने इस के लिए पाकिस्तानी की भूमिका पर इशारा किया है जहां साल 1994 में तालिबान का विकास हुआ था और वह 2001 में अधिकतर पाकिस्तान से आए थे।

पाकिस्तानी सेना भारी अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद तालिबान के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी कर चुकी है।

कुछ विश्लेषकों का ख़्याल है कि अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा विद्रोह का जन्म पाकिस्तान के क़बायली इलाक़े वज़ीरिस्तान में हुआ था।

अधिकतर जानकार इस बात सहमत हैं कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने तालिबान को ख़त्म करने के बजए उन्हें वज़ीरिस्तान में एक सुरक्षित ठिकाने की अनुमति दी।

जाने-माने विश्लेषक हसन असकरी रिज़वी कहते हैं, 'मेरे विचार से सेना एक मुद्दे पर विभाजित है। वह बर्दाश्त भी करते हैं और उनकी मदद भी करते हैं।'

अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद अंतरराष्ट्रीय सेनाओं ने वज़ीरिस्तान से सटे दक्षिण पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में हाल के दिनों में भारी नुक़सान का सामना किया था।

ये संघर्ष दक्षिण पूर्व में हुआ था और फिर उत्तर पूर्व यावी अफ़ग़ानिस्तान के कुनड़ प्रांत तक फ़ैल गया था जो पाकिस्तान के क़बायली इलाक़ों बाजौड़ और मोहमंद एजेंसी से सटा हुआ है। साल 2002 से लेकर 2006 तक इन इलाक़ों में बहुत ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया गया था।

'बलूचिस्तान से घुसपैठ'इस लड़ाई की वजह से तालिबान विद्रोहियों ने पाकिस्तान के दक्षिण पश्चिमी प्रांत बलूचिस्तान पर अपना ध्यान केंद्रित किया और फिर अफ़ग़ानिस्तान के ज़ाबुल, हेलमंद और कंधार प्रांतों में घुसपैठ शुरु कर दी.

पाकिस्तानी सुरक्षाबलों और अंतरराष्ट्रीय सेनाओं ने तालिबान की इन गतिविधियों को नज़र अंदाज़ कर दिया था।

पश्चिमी अधिकारी इस बात को स्वीकार करते हैं कि 2008 और 2009 तक नेटो सेना दक्षिण के इलाक़ों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में विफल रही जो तालिबान के लिए महत्वपूर्ण थे जैसेकि मध्य कंधार और दक्षिण हेलमंद जहाँ तालिबान ने बम बनाने की फ़ेक्टरी बनाई थी।

अमरीकी रक्षा मंत्री के मुताबिक़ हक़्क़ानी नेटवर्क अमरीका सेना पर हमले करता है जिसके पाकिस्तान में सुरक्षित ठिकाने हैं।

साल 2010 में जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सैनिकों की संख्या बढ़ाने की घोषणा की, नेटो सेना कंधार और हेलमंद स्थित तालिबान के सुरक्षित ठिकानों से चरमपंथियों हटाने में कामयाब हो गई।

लेकिन तब तक तालिबान का विद्रोह काबुल के आस पास के इलाक़ों में फ़ैल चुका है और अब तालिबान किसी बड़े लक्ष्य को आत्मघाती हमलों और बम धमाकों से निशाना बनाते हैं।

अभी भी तालिबान को पाकिस्तान के क़बायली इलाक़ों ख़ास तौर पर वज़ीरिस्तान से आत्मघाती हमलावर मिल जाते हैं।

विश्वसनीय सूत्रों ने बीबीसी को बताया है कि अधिकतर हमलावर पाकिस्तानी हैं जिन को पंजाबी तालिबान कहा जाता है और हक़्क़ानी नेटवर्क के प्रभाव वाले इलाक़े वज़ीरिस्तान से जाते हैं।

सूत्रों के मुताबिक़ साल 2009 तक ये हमलावर अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर पाकिस्तानी सेना के वाहनों में सवार यात्रा करते रहे ताकि अमरीकी मानवरहित विमानों के हमलों से बच सकें।

सैन्य सूत्रों ने इन चरमपंथी हमलावरों से सहयोग को स्वीकार किया है लेकिन पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल अतहर अब्बास ने इसका खंडन किया है।

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