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मोबाइल से मिली नौकरी, एसएमएस से सीखा काम

- निखिल श्रीवास्तव

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रेशमा रावत उत्तर प्रदेश के बहराइच िले के एक गांव रामपुर धोबिया में पली बढ़ी, नौवीं तक की पढ़ाई पूरी की। पिता बीमार रहते थे और मां अक्सर बेबस दिखाई देती थी। परिवार में तीन छोटे भाई और एक बहन भी थी।

पांच बच्चों में सबसे बड़ी रेशमा एक गरीब दलित परिवार से ताल्लुक रखती हैं। शुरुआती दिनों में परिवार की मुफलिसी देखते-देखते वो उकता सी गईं थीं। वो घर को सहारा देना चाहती थीं। यही वो वक्त था जब रेशमा ने समाज की तरफ से दलित लड़कियों के लिए खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करने की ठानी।

यही वो वक्त था जब रेशमा ने समाज की तरफ से दलित लड़कियों के लिए खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करने की ठानी। गांव के ही एक स्कूल में वो पहली से पांचवीं तक के बच्चों को पार्ट टाइम हिंदी और आर्ट्स पढ़ाने लगी। दिन में ट्यूशन और शाम को घर का काम। चार पैसे घर में आए, तो मां-बाप को भी बेटी पर यकीन गहराता गया।

रेशमा बताती हैं, 'तीन साल यूं ही चलता रहा। जिंदगी आसान नहीं थी। हाईस्कूल तक पढ़ी छोटी बहन की इसी बीच शादी भी हुई। मैन ठान लिया कि अब नौकरी करनी है और दूर के गांव में रहने वाले मामा से मन की ये बात मैने कह दी।'

'मजाक में कही गई बात' : इसी बीच किसी ने बताया कि मोबाइल से नौकरी पास आती है। एक दोस्त की मजाक में कही इस बात को रेशमा ने काफ़ी गंभीरता से समझा। उसने कुछ पैसे उकठ्ठा किए और खरीद लिया अपनी उम्मीदों का मोबाइल। सस्ता और बेहद साधारण फोन।

वह खुद इसे एक इत्तेफाक ही बताती है कि उनके मोबाइल पर पहला कॉल उनके ममेरे भाई का आया, जिन्हें नौकरी के लिए एक योग्य महिला उम्मीदवार की जरूरत थी, लखनऊ की उस गैर सरकारी संस्थान में काम करने के लिए जिसमें वो खुद काम करते थे।

रेशमा बताती हैं, 'नौकरी के लिए मैंने घर में बात की, लेकिन गांव से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। काफी मान-मनौव्वल की कोशिश की पर बात नहीं बन रही थी। मैंने फिर उस संस्था के अधिकारी अतुलेश से बात की। इंटरव्यू फोन पर ही हुआ और मुझे चुन लिया गया। छह हज़ार रुपए की तनख़्वाह में बात तय हुई।'

रेशमा के पिता डरे हुए थे। घर में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था, कि घर की लड़की बाहर जाकर नौकरी करे। परिवार के कुछ लोगों ने रेशमा के पिता को समझाया तो वे मान गए। अगले कुछ दिनों में रेशमा को लखनऊ जाना था, जाहिर है वो बहुत उत्साहित थीं।

नई जिंदगी का सफर : नई नौकरी, नई जिम्मेदारियां भी लाती है, लिहाजा गांव की रेशमा को नए काम के लिए कंप्यूटर सीखना था। उन्हें तकनीकी उपकरणों के बारे में महज एक लफ्ज पता था, मोबाइल। इसके अलावा, उसने लैपटॉप का नाम ही सुन रखा था।

ट्रेनिंग के पहले ही दिन सामने लैपटॉप था। रेशमा के हाथ कांप उठे। वो बताती हैं, 'मुझे लगा मैं कहां फंस गई। मुझे तो मोबाइल भी अच्छे से चलाना नहीं आता था। लगा मैं कोई गलती कर दूंगी। डर इतना ‌कि लैपटॉप छूने में पसीने छूट गए।'

मैसेजिंग से मिली ताकत, अगले पन्ने पर...


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मैसेजिंग से मिली ताकत : ऑफिस में में रेशमा जैसी कई और लड़कियां थीं। कुछ सीतापुर से, कुछ बहराइच से और कुछ आस-पास के ही इलाकों से। ट्रेनिंग में लड़कियों ने तय किया कि सब आपस में एसएमएस के जरिए एक दूसरे को काम सिखाएंगी।

रेशमा ने अपनी नई सहेलियों से खूब मैसेजिंग की और सबने एक दूसरे की स्पेलिंग की गलतियों को सुधारा। रेशमा बताती हैं, 'मैंने इतने मैसेज कभी नहीं किए थे, लेकिन मोबाइल ने वाकई जिंदगी बदल दी थी। खुद पर इतना यकीन पहले कभी नहीं हुआ था। मुझे लगा मैं सब कुछ कर सकती हूं। दफ्तर में सीनियर्स ने मेरी तमाम गलतियों को सुधारा और ये भरोसा दिला दिया कि लड़कियां बहुत कुछ कर सकतीं हैं।'

रेशमा रावत ने काफी जल्दी काम सीखा और जल्दी ही उसकी तनख़्वाह 15 हजार हो गई।

बढ़ गई रिश्तों की वैलिडिटी : परिवार से अलग रहना रेशमा के लिए आसान नहीं था, पर मोबाइल ने उसे भी आसान बना दिया। उन्होंने एक और मोबाइल खरीदकर घर भेजा, विशेष प्लान के तहत मोबाइल कॉल की सस्ती दरें घरवालों के हमेशा करीब होने का अहसास दिलाती थीं।

'मोबाइल के बगैर मेरा घर पूरे परिवार से कटा हुआ था। तबीयत खराब होने पर किसी को तुरंत खबर भी नहीं दी जा सकती थी। और फिर मेरी फिक्र भी तो थी सबको...इसलिए फोन बहुत जरूरी था। मेरे लिए और घर के लिए भी।'

मोबाइल न होता तो शायद रेशमा की जिंदगी आज भी रामपुर धोबिया गांव में गुजर रही होती। लेकिन, सिर पर पल्लू रखकर चौका करने का वक्त अभी दूर है।

(बीबीसी हिन्दी और अमर उजाला डॉट कॉम की संयुक्त पेशकश)

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