तौकीर कहते हैं कि मैंने चुनौती स्वीकार की, आलोचनाएँ झेलीं और प्रतियोगिता जीती। कुछ लोग आलोचना नहीं झेल पाते, लेकिन प्रतियोगियों को ये समझना चाहिए कि ये रियलिटी शो का हिस्सा हैं और आलोचना तो उन्हें झेलनी ही पड़ेगी। शिंजिनी के माँ-बाप सारा दोष जजों पर मढ़ रहे हैं पर ऐसे शो में जज बनने वालों का तर्क है कि अगर आप सही गलत नही बताएँगे तो प्रतियोगी कैसे अपने को सुधारेंगे, बेहतर बना पाएँगे ताकि जीत की इस दौड़ में आगे हों। '
जो जीता वही सिकंदर' में जज और विशाल-शेखर नामक मशहूर संगीत निर्देशक जोड़ी के शेखर कहते हैं कि गायक को उसकी कमियाँ बताना बहुत जरूरी है। लेकिन टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में कुछ जज बहुत ज्यादा बोल जाते हैं, ये सही नहीं है। गायकों को बहुत प्यार से समझाना चाहिए। कुछ शो तो उकसाने-भड़काने वाले बनाए ही जाते हैं... यानी लोकप्रियता या टीवी की भाषा में टीआरपी के फेर में तड़का जरूरी है। मीडिया आलोचक शैलेजा वाजपेयी कहती हैं कि ये सारे रियलिटी शो विदेशी शो की नकल हैं। मसलन हैल्थ किचन नामक शो में तो जज गाली तक देते हैं। अगर शो में ड्रामेबाजी नहीं होगी तो इन्हें कौन देखेगा। पर टीआरपी के चक्कर में कभी-कभी हदें भी पार हो जाती हैं और शिंजिनी जैसी घटनाएँ भी घट जाती हैं। डाँट-फटकार : डाँट-फटकार का कई बार गहरा असर हो जाता है, खासकर बच्चों पर। अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं कि शिंजिनी का मामला बहुत गंभीर है। बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं। जजों को बहुत सोच-समझकर और सावधानी से टिप्पणियाँ करनी चाहिए।
तो सवाल ये उठता है कि क्या टीआरपी की होड़ में कहीं प्रोड्यूसर शो के जजों पर ज्यादा ड्रामा करने का दबाव तो नहीं डालते। क्या सब कुछ पहले से तय होता है।
सिद्धार्थ बसु ऐसा नही मानते। वे कहते हैं कि मैं नहीं मानता कि किसी भी शो में प्रतियोगी को तैयारी कराई जा सकती है। प्रदर्शन अच्छा रहेगा तो शो अच्छा रहेगा। ड्रामेबाज़ी से कुछ नहीं होता। लड़ाई-झगड़े या बनावटी सनसनी से टीआरपी नहीं बढ़ती।
कुछ जिम्मेदारी परिवारों की भी है। उन्हें भी सोचना चाहिए कि उनके बच्चे उनकी अभिलाषा पूरी करने का जरिया नहीं हैं और न ही कमाई का साधन।
इसी ओर इशारा किया महिला और बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी ने। वे कहती हैं कि माँ-बाप से भी पूछा जाना चाहिए कि ये जानते-बूझते भी कि उनके बच्चे इतने नाजुक हैं, वे बच्चों पर दबाव क्यों डालते हैं।
फेम गुरुकुल विजेता काजी आज फिल्मों में काम कर रहे हैं। कुछ विजेताओं को फ़िल्मों में गाने का मौका मिला, कुछ का करियर चल निकला।
शो का लोभ : इसलिए इन शो का लोभ भी बढ़ा है और तादाद भी। पर इसका एक नकारात्मक प्रभाव ये पड़ा कि अब इतने विजेता हो गए हैं कि दर्शक भी कम हो गए हैं और जीत के फायदे भी।
हिमानी कहती हैं कि फायदा तब था जब एक-दो शो चल रहे थे। अब तो इतने शो चल रहे हैं कि जो थोड़ा बहुत भी गाता है ऑडिशन देने चला आता है। पर रियलिटी शो ने गाँवों और छोटे शहरों के कई गुमनाम लोग रातोरात राष्ट्रीय स्टार बना दिया। इसे करोड़ों लोगों ने देखा कि कई परिवारों को लगने लगा कि उनका चिंटू, उनकी गुडिया भी किसी से कम नहीं है।
शैलेजा वाजपेयी कहती हैं कि एक तरह से ये अच्छा है। छोटे शहरों के बच्चों को मौका मिल रहा है, लेकिन पहले इंडियन आइडल अभिजीत सावंत को ही लीजिए। एक-दो एलबम के बाद वो कहाँ हैं। पता नहीं। तो क्या शो के लिए नियम कानून बनाए जाने चाहिए या फिर इन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए, खासकर जिनमें बच्चे भाग लेते हैं।
जिम्मेदारी : डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं कि शो हों पर जिम्मेदारी भरे हों। शो के नियम कानून होने चाहिए। ऐसा न हो कि अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षा के लिए बच्चों पर शो में शामिल होने का दबाव बनाएँ। इन शो में अक्सर बच्चों को उम्र से पहले बड़ा दिखाने की कोशिश की जाती है। उन्हें बड़ों जैसे कपड़े पहनाए जाते हैं, मेकअप किया जाता है।
संगीत निर्देशक शेखर कहते हैं कि बच्चों को बच्चा रहना दें। रियलिटी शो बच्चों के लिए ठीक नहीं हैं। प्रतियोगिता के बजाय ट्रेनिंग शो होना चाहिए। माँ-बाप को बच्चों की प्रतिभा निखारनी चाहिए।
वहीं सिद्धार्थ बसु भी बच्चों पर बहुत दबाव डालने के खिलाफ हैं। वे कहते है नियम टीवी उद्योग को खुद बनाने चाहिए और अभिभावकों को भी जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए। वो कहते हैं कि माँ-बाप का बच्चों को प्रोत्साहित करना सही है, लेकिन एक सीमा तक ही ये ठीक है।
यानी मुनाफे के लिए और मनोरंजन का साधन बने इन शो के निर्माताओं को जहाँ ज़्यादा जिम्मेदारी दिखाने कि जरूरत है, वहीं जजों को समझना चाहिए कि उन पर शो टिके हैं और शो के दौरान बच्चे उनके हर शब्द को पत्थर की लकीर मानते हैं।
ऐसे में वे कहीं बच्चों को आहत तो नहीं कर रहे हैं। माँ-बाप को भी सोचना जरूरी है कि प्रतिस्पर्धा, लोकप्रियता और कमाई के लालच में कहीं वे अपनी बच्चों पर जरूरत से ज्यादा दबाव तो नही डाल रहे। कहीं आगे बढ़ने की इस अंधी दौड़ में वो अपनी बच्चों की जान शिंजिनी कि तरह खतरे में तो नहीं डाल रहे हैं।