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किस्मत को मात देती 'आशा'

8 सितंबर : जन्मदिवस पर विशेष

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- ज्योत्स्ना भोंडवे

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किस्मत के पाँसे चाहे जैसे रहे हों, लेकिन उनके सुरों की कशिश ने साबित कर ही दिया कि "जहाँ में ऐसा कौन है कि.... और यही वजह है कि आज वे जिस मुकाम पर हैं निश्चित हद तक वहाँ बस आशा हैं यानी "आशा भोंसले"।

जिंदगी की मुश्किलें, गरीबी और जाने कितने ही कटु अहसासों से गुजरते इस तरह के तमाम लफ्ज, जुमले आशाजी के शुरुआती जिंदगी में सुराख कर चुके थे। इस वजह से पारिवारिक जिंदगी तो क्या सुनहरी फिल्मी दुनिया में भी उनके खाते की शुरुआत उपेक्षा से ही हुई।

यदि आप मदनमोहन के गीतों पर नजर डालें तो ताज्जुब होगा की लता और आशा के गीतों की तादाद में फर्क है। उनके उम्दा यानी "वह कौन थी" में "नैना बरसे", "लग जा गले", "जो हमने दास्ताँ" खास गीतों में साधना के लिए लता थी और विजया चौधरी की "शोख नजर की बिजलियाँ" के लिए आशा।

यही हाल नौशाद का रहा "कोहिनूर" के लाजवाब संगीत को जहाँ लता-रफी के सुरों ने सराबोर किया, वहीं कुमकुम के "जादूगर कातिल" से ही आशा को संतोष करना पड़ा। राजकपूर, शंकर जयकिशन भी इससे कुछ अलहदा नहीं रहे। लता यानी कामयाब संगीत।

यह हकीकत राजकपूर के बाबत सोलह आने सच थी। लेकिन "बूट पॉलिश" का संगीत उम्दा दर्जेदार साबित हुआ। "नन्हे-मुन्नो बच्चे", "जॉन चाचा" में मासूम बेबी नाज को आशा ने ही निखारते "चली कौन से देश" में तलत की बराबरी से नजाकत को साबित किया। लेकिन "बूट पॉलिश" से "मेरा नाम जोकर" के बीच सत्रह साल क्या आशा की आवाज नायिका को सूट होगी, ऐसा राजकपूर को एक बार भी नहीं लगा? तभी तो "मुड़ मुड़ के" को सही न्याय देने की खातिर आशा की आवाज का इस्तेमाल हुआ वो भी नादिरा के लिए।

वहीं "जिस देश में गंगा" में लता ने पद्मिनी के लिए गाया तो आशा ने मधुबाला की बहन गंगा के लिए। बर्मन दादा भी तो लता के साथ अनबन होने तक आशा को नजरअदांज ही करते रहे। लेकिन आशा ने "सुजाता", "लाजवंती", "काला पानी", "बम्बई का बाबू", "नौ दो ग्यारह" के संगीत को अलहदा मिठास दी।

शंकर (जयकिशन) ने लता से रिश्तों में अनबन के चलते "रात के हमसफर", "पंछी रे", "कैसे समझाऊँ", "होने लगी है रात", "सूनी सूनी रात", "रे मन सुर में" जैसे सुरों के जवाहरात आशा पर न्योछावर किए।

फिर सुबह होगी में "वो सुबह कभी", "फिर न कीजिए" जैसे नाजुक युगल गीत देने वाले खय्याम ने भी "कभी कभी" के वक्त आशा को झाँककर नहीं देखा। लेकिन वे भी अचानक नींद से जागे और "उमराव जान" का शाही खजाना आपने आशा के सामने रीता कर ही दिया। और आशा की गाई इन गजलों ने फिल्म संगीत में आशा की सर्वश्रेष्ठता को साबित कर दिया।

किस्मत के पाँसे इतने उल्टे पड़ने के बावजूद आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलहदा पहचान कायम करने वाली "आशा" ने अपने नाम को सार्थक किया है। निश्चित ही उनके संगीत के इस दौर में ओपी नैयर की हिस्सेदारी को नकारा नहीं जा सकता। तो जिंदगी के इस "नया दौर" को कामयाब बनाने में बीआर चोपड़ा भी सहभागी हैं। "आइए मेहरबाँ" सुपर हिट रहा तो "माँग के साथ" से आशा-रफी-ओपी के युग का आगाज हुआ।

"एक मुसाफिर एक हसीना", "तुमसा नहीं देखा", "फिर वही दिल लाया हूँ", "कश्मीर की कली" जैसे मोहक मील के कई पत्थर नजर आते हैं। बीच के दौर में ओपी, महेंद्र कपूर के गिरफ्त में आए लेकिन तब भी उन्होंने आशा का साथ नहीं छोड़ा। यही वजह है कि "दिल और मोहब्बत", "किस्मत" की धुनों में वही नशीली अदा महसूस हुई। लेकिन आखिर को "चैन से हमको कभी" कहते आशा ने ओपी से किनारा कर ही लिया।

इसके बाद पंचम के साथ ताजगी से "तीसरी मंजिल" में आशा के अलहदापन ने युवा पीढ़ी को ही नहीं सो कॉल्ड बुजुर्गों को भी दीवाना किया। आज उसके आगे की पीढ़ी जिसकी नुमाइंदगी करते हैं जीनियस एआर रहमान । उनकी ग्लोबल धुनों के "तक्षक" और "लगान" को भी "रंगीला" किया इसी आशा ने।

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