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कास्टिंग में छुपा 'पा' का राज

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अनहद

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सबसे चतुर तो इस फिल्म की कास्टिंग है। अगर कोई और तेरह साल का बच्चा बना होता तो कौन देखता? अमिताभ बने हैं तो देखने लायक बात हो जाती है। कास्टिंग डायरेक्टर को केवल यही नहीं ध्यान रखना पड़ता है कि कौन किस रोल में फिट रहेगा, बल्कि यह भी देखना पड़ता है कि अमुक को लोग देखने आएँगे या नहीं? तो सबसे बड़ी बात तो अमिताभ का चयन है, जो धंधे को ध्यान में रखकर किया गया है।

अभिषेक का चयन इसलिए हुआ, क्योंकि दिवंगत राजेश पायलट के पुत्र सचिन पायलट का गेटअप सबसे ज्यादा उन्हीं पर फिट रहता। पूरी फिल्म में वे सचिन पायलट ही लगते रहे हैं। उनका हेयर स्टाइल, एक दिन की दाढ़ी उगा खुरदुरा चेहरा, सिल्वर कमानी का चश्मा...।

फिल्म में अभिषेक युवा नेता हैं। युवा नेता के रोल में वे तभी विश्वसनीय लग सकते थे, जब उन्हें हूबहू किसी युवा नेता जैसा बनाया जाता। तो अमिताभ का चयन जैसा सटीक है, वैसा ही अभिषेक का चयन भी सटीक है।

विद्या बालन ने जो अभिनय किया है, वैसा अभिनय क्या कोई और अभिनेत्री कर सकती थी? यह सवाल बाद में, पहले सवाल यह कि अमिताभ की माँ बनने को कौन हीरोइन तैयार होती? तैयार हो भी जाती तो क्या अच्छी लगती? तमाम शिखर अभिनेत्रियों को देख लीजिए इस रोल के लिए आपको कोई भी नहीं जँचेगी। चलिए कुछ नाम लेते हैं। कैटरीना...? नहीं चलेगी, बहुत ग्लैमरस है। करीना...? नहीं एक तेरह साल के बेटे की माँ के लिए वे कुछ ज्यादा ही शोख हैं...। प्रियंका चोपड़ा...? नहीं, इस रोल में फैशन की कोई गुंजाइश नहीं थी। अव्वल तो ये सारी हीरोइनें ऐसा रोल करती नहीं। गलती से कर लेतीं तो जमता नहीं।

"पा" में अमिताभ तो प्रोजेरिया के रोगी के गेटअप में जा छिपे हैं। अभिषेक सचिन पायलट के पीछे खड़े हो गए हैं। अकेले अपने दम पर अभिनय किया है विद्या बालन ने और क्या गजब किया है। पहले बिंदास कॉलेज बाला का और बाद में तेरह साल के असहज बच्चे की माँ का। कहीं बाल सफेद नहीं किए, कहीं पैड बाँधकर मोटापा नहीं ओढ़ा, आँखों पर मोटा चश्मा नहीं लगाया। बस गंभीर से कपड़े पहने और लीजिए तेरह साल के असहज बच्चे की माँ मौजूद है। इसे कहते हैं अभिनय। तब्बू के बाद विद्या बालन से उम्मीदें हैं कि वे मुख्यधारा के सिनेमा में भी अभिनय नाम की चिड़िया को पालती रहेंगी।

बच्चे की नानी के रोल के लिए अरुंधती नाग का चयन क्या सोचकर किया गया होगा? एक दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में बच्चा अपनी नानी को "बम" कहता है। बम कहने का कारण यह कि नानी के शरीर का पिछला हिस्सा काफी बड़ा है।

कमज़ोर कड़ी के रूप में हैं अभिषेक के पिता के रूप में परेश रावल। कई बार वे कैरेक्टर में घुसते नहीं केवल अपने खास अंदाज से संवाद बोलकर टरका देते हैं। उन्हें शायद इसलिए ले लिया गया कि "चीनी कम" की टीम को कुछ हद तक बाल्की दोहराना चाहते होंगे।

आर. बाल्की पर कुर्बान जाइए... फिल्म तो निहायत दिलचस्प बनी है। "पा" में रोना-धोना नहीं है। प्रोजेरिया पर लैक्चर और मेडिकल जानकारियाँ भी बोझ नहीं लगती हैं। संवाद लिखने वाले पर भी निसार जाइए...।

क्या बढ़िया संवाद लिखे हैं। संवाद चुस्त हैं। फिर अमिताभ जैसे मँजे हुए कलाकार की टाइमिंग और डायलॉग डिलेवरी...। तेरह साल के बीमार बच्चे में अमिताभ को पूरा समाहित हो जाना था, मगर कई बार अमिताभ नजर आ गए हैं। जैसे कोई बड़ा आदमी बच्चे के पीछे छुपने की कोशिश करे। हालाँकि अमिताभ ने खास आवाज में संवाद बोले हैं। मगर इतने भारी मेकअप के बाद यह काम कोई भी अभिनेता कर सकता था। लोगों ने कौन-से प्रोजेरिया के सौ-पचास मरीज देख रखे हैं?

बहरहाल, फिल्म बढ़िया है। कुछ का कहना है कि नकल है। सन्‌ ९६ में इसी विषय पर अमेरिका में फिल्म बनी थी। नाम था "जैक"। फ्रेंसिस फोर्ड कपोला निर्देशक थे। कुँआरी बेटी गर्भवती होकर घर आए और माँ बेटी से पूछे कि उसे बच्चा गिराना है या रखना है, तो साफ हो जाता है कि यह विदेशी फिल्म की नकल है। बहरहाल, नकल है तो क्या, अच्छी तो है!

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