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गहने में कीमती हीरे जैसे दृश्य

हमें फॉलो करें गहने में कीमती हीरे जैसे दृश्य

दीपक असीम

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फिल्म "सात खून माफ" की नायिका पिछले पति की हत्या के मामले में फँसी हुई है। एक बूढ़ा पुलिस अफसर (अन्नू कपूर) उसे इस मुसीबत से निकालता है, पर वो इसकी कीमत नायिका की देह के रूप में चाहता है, जो उसे मिलती भी है।

गले पड़ू बूढ़ा नायिका के घर आया है और आईने के सामने बाल सँवारता हुआ वियाग्रा खाने की तैयारी कर रहा है। बूढ़ा वियाग्रा निकालकर हथेली पर धरता है और नायिका देख लेती है। बूढ़ा गोली छुपाता है। नायिका उसका हाथ पकड़कर हथेली खुलवाती है। हथेली पर हल्की नीली वियाग्रा चमक रही है। इस समय नायिका की आँखों में धिक्कार है और बूढ़ा अफसर ऐसा खिसियाया हुआ है कि रंगे हाथों चोरी करते पकड़े जाने पर भी कोई क्या खिसियाएगा।

कोई भी पुरुष नहीं चाहता कि उसकी मर्दानगी की पोल इस तरह खुले। वो इस तरह की चीजें अत्यंत गोपनीय रखता है और महिला तो दूर अपने खास दोस्तों तक में इसका जिक्र नहीं करता।

विशाल भारद्वाज ने इस झेंप को इस तरह से उभारा है कि देखते ही बनता है। विशाल भारद्वाज की हर फिल्म में कुछ खास दृश्य ऐसे होते हैं जैसे सोने के गहने में कीमती हीरे।

इसी फिल्म में एक दृश्य है जब नायिका अपने दिमागी रूप से बीमार पति (इरफान खान) को मारने की तैयारी कर रही है। पति अभी जिंदा है और नायिका के विश्वस्त नौकर बर्फ में कब्र खोद रहे हैं। जिंदा आदमी के लिए पहले से कब्र खोदना ऐसी क्रूरता है, जो हिलाकर रख देती है।

नायिका अपने पति को उलझाकर कब्र तक ले जाती है। पति कब्र तक जाकर नीचे झाँकता है। खुदी हुई कब्र में तीनों नौकर बैठे सुस्ता रहे हैं और उसकी तरफ देखकर राजदाराना अंदाज में मुस्कुराते हैं। इस मुस्कुराहट में एक भाव मखौल उड़ाने का भी है।

गूँगे नौकर की मुस्कुराहट तो ऐसी जहरीली है कि रीढ़ की हड्डी में सिहरन होती है। विशाल भारद्वाज की लगभग हर फिल्म में कई ऐसे दृश्य होते हैं जिनको देखकर पैसा वसूल हो जाता है और बकाया फिल्म मानो मुफ्त ही पड़ती है।

"मकबूल" तो ऐसे दृश्यों की एक बड़ी श्रृंखला थी। इस फिल्म में पंकज कपूर का थोड़ा सा नाचना भुलाए नहीं भूलता। बूढ़े डॉन की बेटी की शादी हो रही है। हमेशा एक अकड़ में रहने वाला आदमी किसी प्रसंग पर कैसे जबरन थोड़ा सा नाचता है, उसकी अक्कासी पंकज कपूर ने खूब की थी।

कुछ ऐसा ही चरित्र फिल्म "पटियाला हाउस" में ऋषि कपूर का है। खूब अकड़ और ठसक वाला बूढ़ा। मगर उसे ऐसे नाचते दिखाया है, मानो दिन रात भांगड़ा ही डालता रहता है।

चरित्र की पकड़ बहुत जरूरी है। अमुक मौके पर अमुक चरित्र का व्यक्ति किस तरह से रिएक्ट करेगा, यही तो अभिनय है। यही निर्देशन की बारीकी है। कभी अभिनेता अच्छा होता है तो कभी निर्देशक। मगर जब दोनों ही जीनियस हों, तो "मकबूल" में पंकज कपूर वाला चरित्र बनता है।

विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप, इस समय दो ही निर्देशक ऐसे हैं जिनके हर सीन में खास बारीकियाँ होती हैं। इनकी किस फिल्म ने कितना पैसा कमाया ये मत पूछिए। कुछ काम होता है जो टिकट खिड़की से पार का होता है। जहाँ तक "सात खून माफ" का सवाल है, अपेक्षा के अनुसार शहरों में अच्छी गई है और छोटे सेंटरों पर कम चली है। कुछ डायरेक्टर होते हैं जिनके लिए पैसा कमाना बाद की बात होती है। विशाल भारद्वाज भी उन्हीं में से हैं।

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